॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०८)
ध्यान-विधि और भगवान् के विराट् स्वरूप का वर्णन
ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा
विडूरुरङ्घ्रिश्रितकृष्णवर्णः ।
नानाभिधाभीज्यगणोपपन्नो
द्रव्यात्मकः कर्म वितानयोगः ॥ ३७ ॥
इयान् असौ ईश्वरविग्रहस्य
यः सन्निवेशः कथितो मया ते ।
सन्धार्यतेऽस्मिन् वपुषि स्थविष्ठे
मनः स्वबुद्ध्या न यतोऽस्ति किञ्चित् ॥ ३८ ॥
स सर्वधीवृत्त्यनुभूतसर्व
आत्मा यथा स्वप्नजनेक्षितैकः ।
तं सत्यमानंदनिधिं भजेत
नान्यत्र सज्जेद्यत आत्मपातः ॥ ३९ ॥
ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं ॥ ३७ ॥ परीक्षित् ! विराट् भगवान् के स्थूलशरीर का यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ॥ ३८ ॥ जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्था में अपने-आप को ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान् का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अध:पतनका हेतु है ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🍁🥀🌹🥀🍁जय श्री हरि:🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
सर्वआत्म सर्वत्र व्याप्त परब्रह्म
अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी
के पावन चरणों में हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:नमन अनंत कोटि वंदन 🌼🌺🙏🙏🙏🙏