श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट
02 )
कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये
यमुना-जल में निवास का रहस्य
कालिय उवाच -
हेभूमिभर्तर्भुवनेश भूमन्
भूभारहृत्त्वं ह्यसि भूरिलीलः ।
मां पाहि पाहि प्रभविष्णुपूर्णः
परात्परस्त्वं पुरुषः पुराणः ॥ २२ ॥
श्रीनारद
उवाच -
दीनं भयातुरं दृष्ट्वा कालियं श्रीफणीश्वरः ।
वाचा मधुरया प्रीणन् प्राह देवोजनार्दनः ॥ २३ ॥
शेष उवाच -
हे कालिय महाबुद्धे श्रृणु मे परमं वचः ।
कुत्रापि न हि ते रक्षा भविष्यति न संशयः ॥ २४ ॥
आसीत्पुरा मुनिः सिद्धः सौभरिर्नाम नामतः ।
वृन्दारण्ये तपस्तप्तो वर्षाणामयुतं जले ॥ २५ ॥
मीनराजविहारं यो वीक्ष्य गेहस्पृहोऽभवत् ।
स उवाह महाबुद्धिः मांधातुस्तनुजाशतम् ॥ २६ ॥
तस्मै ददौ हरिः साक्षात् परां भागवतीं श्रियम् ।
वीक्ष्य तां नृप मांधाता विस्मितोऽभूद्गतस्मयः ॥ २७ ॥
यमुनांतर्जले दीर्घं सौभरेस्तपतस्तपः ।
पश्यतस्तस्य गरुडो मीनराजं जघान ह ॥ २८ ॥
मीनान्सुदुःखितान् दृष्ट्वा दुःसहा दीनवत्सलः ।
तस्मिन् शापौ ददौ क्रुद्धः सौभरिर्मुनिसत्तमः ॥ २९ ॥
सौभरिरुवाच -
मीनानद्यतनाद् अत्र यद्यत्सि त्वं बलाद्विराट् ।
तदैव र्पाणनाशस्ते भूयान्मे शापतस्त्वरम् ॥ ३० ॥
शेष उवाच -
तद्दिनात्तत्र नायाति गरुडः शापविह्वलः ।
तस्मात् कालिय गच्छाशु वृंदारण्ये हरेर्वने ॥ ३१ ॥
कालिंद्यां च निजं वासं कुरु मद्वाक्यनोदितः ।
निर्भयस्ते भयं तार्क्ष्यान् न भविष्यति कर्हिचित् ॥ ३२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तः कालियो भीतः सकलत्रः सपुत्रकः ।
कालिंद्यां वासकृद् राजन् श्रीकृष्णेन विवासितः ॥ ३३ ॥
कालिय ने कहा - भूमिभर्ता भुवनेश्वर
! भूमन् ! भूमि-भारहारी प्रभो ! आपकी लीलाएँ अपार हैं, आप सर्वसमर्थ पूर्ण परात्पर
पुराणपुरुष हैं; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २२ ॥
नारदजी
कहते हैं—कालियको दीन और भयातुर देख फणीश्वरदेव जनार्दनने मधुर वाणीसे उसको प्रसन्न
करते हुए कहा ।। २३ ।।
शेष
बोले- महामते कालिय ! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसारमें कहीं भी तुम्हारी
रक्षा नहीं होगी। (रक्षाका एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो — ) पूर्वकालमें सौभरि
नामसे प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे । उन्होंने वृन्दावन में यमुनाके
जलमें रहकर दस हजार वर्षोंतक तपस्या की ॥ २४-२५ ॥
उस
जलमें मीनराजका विहार देखकर उनके मनमें भी घर बसानेकी इच्छा हुई। तब उन महाबुद्धि महर्षिने
राजा मान्धाताकी सौ पुत्रियोंके साथ विवाह किया। श्रीहरिने उन्हें परम ऐश्वर्यशालिनी
वैष्णवी सम्पत्ति प्रदान की, जिसे देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गये और उनका
धनविषयक सारा अभिमान जाता रहा ॥ २६-२७ ॥
यमुनाके
जल में जब सौभरि मुनिकी दीर्घकालिक तपस्या चल रही थी, उन्हीं
दिनों उनके देखते-देखते गरुड ने मीनराज को
मार डाला। मीन- परिवा रको अत्यन्त दुःखी देखकर दूसरों का दुःख दूर करनेवाले दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ सौभरि ने
कुपित हो गरुड को शाप दे दिया ॥ २८-२९ ॥
सौभरि बोले-पक्षिराज
! आजके दिन से लेकर भविष्य में यदि तुम
इस कुण्डके भीतर बलपूर्वक मछलियों को खाओगे तो मेरे शापसे उसी क्षण तुरंत तुम्हारे प्राणों का अन्त हो जायगा ॥ ३० ॥
शेषजी
कहते हैं—उस दिनसे मुनिके शापसे भयभीत हुए गरुड वहाँ कभी नहीं आते। इसलिये कालिय !
तुम मेरे कहनेसे शीघ्र ही श्रीहरिके विपिन - वृन्दावनमें चले जाओ। वहाँ यमुनामें निर्भय
होकर अपना निवास नियत कर लो। वहाँ कभी तुम्हें गरुड से भय नहीं
होगा ।। ३१-३२ ॥
नारदजी कहते हैं— राजन्
! शेषनागके यों कहनेपर भयभीत कालिय अपने स्त्री- बालकोंके साथ कालिन्दी में निवास करने लगा। फिर श्रीकृष्ण ने ही उसे
यमुनाजल से निकालकर बाहर भेजा ॥ ३३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियके उपाख्यानका वर्णन' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ
॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
💐🌺🌺💐जय श्री हरि:🙏🏼🙏🏼
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद