सोमवार, 19 अगस्त 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

रास-विहार तथा आसुरि मुनि का उपाख्यान

 

श्रीनारद उवाच -
अथ गोपीगणैः सार्धं पश्यन् श्रीयमुनातटम् ।
विहर्तुमामयौ कृष्णो वृंदारण्यं मनोहरम् ॥ १ ॥
वृंदावने चौषधयो लीना जाता हरेर्वरात् ।
ताः सर्वाश्चांगना भूतवा यूथीभूत्वा समाययुः ॥ २ ॥
लतागोपीसमूहेन चित्रवर्णेन मैथिल ।
रेमे वृंदावने राजन् हरिर्वृंदावनेश्वरः ॥ ३ ॥
कालिन्दनन्दिनीतीरे कदंबाच्छादिते शुभे ।
त्रिविधेन समीरेण सर्वतः सुरभीकृते ॥ ४ ॥
विलसत्पुलिने रम्ये वंशीवटविराजिते ।
स्थितोऽभूद्‌राधया सार्धं रासश्रमसमन्वितः ॥ ५ ॥
वीणातालमृदंगादि मुरुयष्टियुतानि च ।
वादितत्राण्यंबरे नेदुः सुरैर्गोपीगणौः सह ॥ ६ ॥
देवेषु पुष्पं वर्षत्सु जयध्वनियुतेषु च ।
तोषयन्त्यो हरिं गोप्यो जगुस्तद्यश उत्तमम् ॥ ७ ॥
काश्चिद्वै मेघमल्लारं दीपकं च तथापराः ।
मालकोशं भैरवं च श्रीरागं च तथैव च ॥ ८ ॥
हिंदोलं च जगुः काश्चित् राजन् सप्तस्वरैः सह ।
काश्चित्तासां प्रमुग्धाश्च काश्चिन्मुग्धाः स्त्रियो नृप ॥ ९ ॥
काश्चित् प्रौढा प्रेमपराः श्रीकृष्णे लग्नमानसाः ।
जारधर्मेण गोविंदं काश्चिद्‌गोप्यो भजन्ति हि ॥ १० ॥
काश्चिच्छ्रीकृष्णसहिताः कन्दुकक्रीडने रताः ।
काश्चित् पुष्पैश्च हरिणा क्रीडां चक्रुः परस्परम् ॥ ११ ॥
काश्चिल्लतासु धावन्त्यः क्वणन् नूपुरमेखलाः ।
काश्चित् पिबंति सततं बलात्कृष्णाधरामृतम् ॥ १२ ॥
काचिद्‌भुजाभ्यां श्रीकृष्णं योगिनामपि दुर्लभम् ।
संगृहीत्वा प्रहस्याराच्चक्रुरालिंगनं महत् ॥ १३ ॥

नारदजी कहते हैं—तदनन्तर गोपीगणोंके साथ यमुनातटका दृश्य देखते हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ते रास-विहारके लिये मनोहर वृन्दावनमें आये । श्रीहरिके वरदानसे वृन्दावनकी ओषधियाँ विलीन हो गयीं और वे सब की सब व्रजाङ्गना होकर, एक यूथके रूपमें संघटित हो, रासगोष्ठी में सम्मिलित हो गयीं। मिथिलेश्वर ! लतारूपिणी गोपियोंका समूह विचित्र

कान्ति से सुशोभित था । उन सबके साथ वृन्दावनेश्वर श्रीहरि वृन्दावनमें विहार करने लगे। कदम्ब वृक्षोंसे आच्छादित कालिन्दी के सुरम्य तटपर सब ओर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलकर उस स्थानको सुगन्धपूर्ण कर रही थी । वंशीवट उस सुन्दर पुलिन की रमणीयता को बढ़ा रहा था। रासके श्रमसे थके हुए श्रीकृष्ण वहीं श्रीराधाके साथ आकर बैठे ॥ १-

उस समय गोपाङ्गनाओंके साथ-साथ आकाशस्थित देवता भी वीणा, ताल, मृदङ्ग, मुरचंग आदि भाँति-भाँतिके वाद्य बजा रहे थे तथा जय-जयकार करते हुए दिव्य फूल बरसा रहे थे । गोप-सुन्दरियाँ श्रीहरिको आनन्द प्रदान करती हुई उनके उत्तम यश गाने लगीं ॥ ६-७

कुछ गोपियाँ मेघमल्लार नामक राग गातीं तो अन्य गोपियाँ दीपक राग सुनाती थीं । राजन् ! कुछ गोपियोंने क्रमशः मालकोश, भैरव, श्रीराग तथा हिन्दोल राग का सात स्वरोंके साथ गान किया। नरेश्वर ! उनमें से कुछ गोपियाँ तो अत्यन्त भोली-भाली थीं और कुछ मुग्धाएँ थीं । कितनी ही प्रेमपरायणा गोपसुन्दरियाँ प्रौढा नायिकाकी श्रेणीमें आती थीं । उन सबके मन श्रीकृष्ण  में लगे थे। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ जारभाव से गोविन्द- की सेवा करती थीं ॥ -१

कोई श्रीकृष्णके साथ गेंद खेलने लगीं, कुछ श्रीहरिके साथ रहकर परस्पर फूलोंसे क्रीड़ा करने लगीं। कितनी ही गोपाङ्गनाएँ पैरोंमें नूपुर धारण करके परस्पर नृत्य-क्रीड़ा करती हुई नूपुरोंकी झंकारके साथ-साथ श्रीकृष्णके अधरामृत का पान कर लेती थीं। कितनी ही गोपियाँ योगियों के लिये भी दुर्लभ श्रीकृष्णको दोनों भुजाओं से पकड़कर हँसती हुई अत्यन्त निकट आ जातीं और उनका गाढ़ आलिङ्गन करती थीं ॥ १-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. 🌼💟🌺🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    वृदावनेश्वर राधा रमण गोविंद
    की जय हो 🙏🥀🙏
    जयश्री राधे कृष्णा

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