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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
रास-विहार तथा आसुरि
मुनि का उपाख्यान
मनोज्ञो
यदुराजा च गोपीनां भगवान् हरिः ।
काश्मीरमुद्रितो रेमे वने वृंदावनेश्वरः ॥ १४ ॥
काश्चिद्वीणां वादयन्त्यः समं वंशीधरेण वै ।
काश्चित् मृदंगं वादयन्त्यो गायन्त्यो भगवद्गुणम् ॥ १५ ॥
काश्चिद्वै मधुरं तालं ताडयन्त्यो हरेः पुरः ।
मुरयष्टिं संगृहीत्वा हरिणा माधवीतले ॥ १६ ॥
गायन्त्यः सुस्थिरा भूमौ विस्मृत्य जगतः सुखम् ।
काश्चिल्लतासु श्रीकृष्णं भुजे बाहुं निधाय च ॥ १७ ॥
वृन्दावनस्य पश्यन्त्यो शोभां राजन्नितस्ततः ।
लताजालैः संवलितं गोपीनां हारसंचयम् ॥ १८ ॥
पृथक्चकार गोविंदः स्पृष्ट्वा तासामुरःस्थलम् ।
गोपीनां नासिकामुक्तावलिं तत्कुंतलं स्वयम् ॥ १९ ॥
शनैः शनैः शोभनं तच्चक्रे श्रीनंदनंदनः ।
तांबूलं चर्वितं ह्यर्धं नीत्वा सद्योऽथ गोपिकाः ॥ २० ॥
चर्वयन्त्यः सुगंधाढ्य महो तासां तपो महत् ।
काश्चिच्छामकपोलेषु द्व्यंगुलेन शनैः शनैः ॥ २१ ॥
हसन्त्यस्ताडयन्त्यस्ताः कदंबेषु बलात्पृथक् ।
पुंवेषनायकाः काश्चिन्मौलिकुंडलमंडिताः ॥ २२ ॥
नृत्यन्तः कृष्णपुरतः श्रीकृष्ण इव मैथिल ।
राधावेषधरा गोप्यः शतचंद्राननप्रभाः ॥ २३ ॥
तोषयन्त्यश्च राधां तां तथा राधापतिं जगुः ।
काश्चित्ताः सात्त्विकैर्भावैः संयुक्ता प्रेमविह्वलाः ॥ २४ ॥
योगीव चास्थिता भूमौ परमानंदसंप्लुताः ।
काश्चिल्लतासु वृक्षेषु भूम्यां वै विदिशासु च ॥ २५ ॥
पश्यन्त्यः श्रीपतिं देवं स्वस्मिन् वा मौनमास्थिताः ।
एवं रासे गोपवध्वः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ २६ ॥
बभूवुरेत्य गोविंदं सर्वेशं भक्तवत्सलम् ।
यत्प्रसादस्तु गोपीनां प्राप्तो राजन् महामते ॥ २७ ॥
इस प्रकार परम मनोहर
वृन्दावनाधीश्वर यदुराज भगवान् श्रीहरि केसरका तिलक धारण किये, गोपियों- के साथ वृन्दावनमें
विहार करने लगे। कुछ गोपाङ्गनाएँ वंशीधरको बाँसुरीके साथ वीणा बजाती थीं और कितनी ही
मृदङ्ग बजाती हुई भगवान् के गुण गाती थीं ॥ १४-१५ ॥
कुछ श्रीहरिके सामने
खड़ी हो मधुर स्वरसे खड़ताल बजातीं और बहुत-सी सुन्दरियाँ माधवी
लताके नीचे चंग बजाती
हुई श्रीकृष्णके साथ सुस्थिर- भावसे गीत गाती थीं । वे भूतलपर सांसारिक सुखको सर्वथा
भुलाकर वहाँ रम रही थीं। कुछ गोपियाँ लतामण्डपोंमें श्रीकृष्णके हाथ
को अपने हाथ में लेकर इधर-उधर घूमती हुई वृन्दावन की शोभा निहारती थीं ॥१६-१७॥
किन्हीं गोपियोंके हार
लता - जालसे उलझ जाते, तब गोविन्द उनके वक्षःस्थलका स्पर्श करते हुए उन हारोंको लता
- जालोंसे पृथक् कर देते थे। गोप सुन्दरियोंकी नासिकामें जो नकबेसरें थीं, उनमें मोतीकी
लड़ियाँ पिरोयी गयी थीं । उनको तथा उनकी अलकावलियों को श्यामसुन्दर
स्वयं सँभालते और धीरे-धीरे सुलझाकर सुशोभन बनाते रहते थे। माधव के
चबाये हुए सुगन्धयुक्त ताम्बूलमेंसे आधा लेकर तत्काल गोपसुन्दरियाँ भी चबाने लगती थीं
अहो ! उनका कैसा महान् तप था! कितनी ही गोपियाँ हँसती हुई श्यामसुन्दरके कपोलोंपर अपनी
दो अँगुलियोंसे धीरे-धीरे छूतों और कोई हँसती हुई बलपूर्वक हलका-सा आघात कर बैठती थीं
। कदम्ब वृक्षोंके नीचे पृथक्-पृथक् सभी गोपाङ्गनाओंके साथ उनका क्रीडा-विनोद चल रहा
था । १८ - २१ ॥
मिथिलेश्वर ! कुछ गोपाङ्गनाएँ
पुरुष-वेष धारण- कर, मुकुट और कुण्डलों से मण्डित हो, स्वयं नायक
बन जातीं और श्रीकृष्णके सामने उन्हींकी तरह नृत्य करने लगती थीं। जिनकी मुख- कान्ति
शत-शत चन्द्रमाओं- को तिरस्कृत करती थी, ऐसी गोपसुन्दरियाँ श्रीराधाका वेष धारण करके
श्रीराधा तथा उनके प्राणवल्लभ को आनन्दित करती हुई उनके यश गाती
थीं ।। २२ - २३ ॥
कुछ व्रजाङ्गनाएँ स्तम्भ,
स्वेद आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त, प्रेम - विह्वल एवं परमानन्दमें निमग्न हो, योगिजनोंकी
भाँति समाधिस्थ होकर भूमिपर बैठ जाती थीं। कोई लताओंमें, वृक्षोंमें, भूतलमें, विभिन्न
दिशाओंमें तथा अपने-आपमें भी भगवान् श्रीपतिका दर्शन करती हुई मौनभाव धारण कर लेती
थीं। इस प्रकार रासमण्डलमें सर्वेश्वर, भक्तवत्सल गोविन्दकी शरण ले, वे सब गोप- सुन्दरियाँ
पूर्णमनोरथ हो गयीं। महामते राजन् ! वहाँ गोपियोंको भगवान् का
जो कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ, वह ज्ञानियोंको भी नहीं मिलता, फिर कर्मियोंको तो मिल ही
कैसे सकता है ? ॥ २४-२७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🌺जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
हरि हरये नमः कृष्ण माधवाय नमः गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन:
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री गोपीजन वल्लभ
चितचोर प्रभु श्री राधा रमण