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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
छब्बीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीकृष्णका विरजाके
साथ विहार; श्रीराधाके भयसे विरजाका नदीरूप होना, उसके सात पुत्रोंका उसी शापसे सात
समुद्र होना तथा राधाके शापसे श्रीदामाका अंशतः शङ्खचूड होना
अथ कृष्णो नदीभूतां विरजां
विरजांबराम् ।
सविग्रहां चकाराशु स्ववरेण नृपेश्वर ॥ १५ ॥
पुनर्विरजया सार्धं विरजातीरजे वने ।
निकुंजवृंदकारण्ये चक्रे रासं हरिः स्वयम् ॥ १६ ॥
विरजायां सप्त सुता बभूवुः कृष्णतेजसा ।
निकुंजं ते ह्यलंचक्रुः शिशवो बाललीलया ॥ १७ ॥
एकदा तैः कलिरभूल्लघुर्ज्येष्ठश्च ताडितः ।
पलायमानो भयभृन्मातुः क्रोडे जगाम ह ॥ १८ ॥
तल्लालनं समारेभे समाश्वास्य सुतं सती ।
तदा वै भगवान् साक्षात्तत्रैवान्तरधीयत ॥ १९ ॥
रुषा सुतं शशापेयं श्रीकृष्णविरहातुरा ।
त्वं जलं भव दुर्बुद्धे कृष्णविच्छेदकारकः ॥ २० ॥
कदापि त्वं जलं मर्त्या न पिबंतु कदाचन ।
ज्येष्ठान् शशाप व्रजत मेदिनीं कलिकारकाः ॥ २१ ॥
जलरूपा पृथग्याना न समेता भविष्यथ ।
नैमित्तिकं च भवतां मेलनं स्यात्सदा लये ॥ २२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं ते मातृशापेन धरणीं वै समागताः ।
प्रियव्रतरथांगानां परिखासु समास्थिताः ॥ २३ ॥
लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवाः ।
बभूवुः सप्त ते राजन्नक्षोभ्याश्च दुरत्ययाः ॥ २४ ॥
दुर्विगाह्याश्च गंभीरा आयामं लक्षयोजनात् ।
द्विगुणं द्विगुणं जातं द्वीपे द्वीपे पृथक् पृथक ॥ २५ ॥
अथ पुत्रेषु यातेषु पुत्रस्नेहातिविह्वला ।
स्वप्रियां तां विरहिणीमेत्य कृष्णो वरं ददौ ॥ २६ ॥
कदा न ते मे विच्छेदो मयि भीरु भविष्यति ।
स्वतेजसा स्वपुत्राणां सदा रक्षां करिष्यसि ॥ २७ ॥
अथ राधां विरहिणीं ज्ञात्वा कृष्णो हरिः स्वयम् ।
श्रीदाम्ना सह वैदेह तन्निकुंजं समाययौ ॥ २८ ॥
निकुञ्जद्वारि संप्राप्तं ससखं प्राणवल्लभम् ।
वीक्ष्य मानवती भूत्वा राधा प्राह हरिं वचः ॥ २९ ॥
तत्रैव गच्छ यत्राभूत्स्नेहस्ते नूतनो हरे ।
नदीभूता हि विरजा नदो भवितुमर्हसि ॥ ३० ॥
कुरु वासं तन्निकुंजे मया ते किं प्रयोजनम् ।
नृपेश्वर ! तदनन्तर नदीरूपमें
परिणत हुई विरजाको श्रीकृष्णने शीघ्र ही अपने वरके प्रभावसे मूर्तिमती एवं विमल वस्त्राभूषणोंसे
विभूषित दिव्य नारी बना दिया। इसके बाद वे विरजा-तटवर्ती वनमें वृन्दावन के निकुञ्ज में विरजा के
साथ स्वयं रास करने लगे। श्रीकृष्णके तेजसे विरजाके गर्भसे सात पुत्र हुए। वे सातों
शिशु अपनी बालक्रीड़ासे निकुञ्ज की शोभा बढ़ाने लगे ॥ १५-१७ ॥
एक दिन उन बालकोंमें
झगड़ा हुआ। उनमें जो बड़े थे, उन सबने मिलकर छोटेको मारा । छोटा भयभीत होकर भागा और
माताकी गोदमें चला गया। सती विरजा पुत्रको आश्वासन दे उसे दुलारने लगीं। उस समय साक्षात्
भगवान् वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तब श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल हो, रोषसे अपने पुत्रको
शाप देते हुए विरजाने कहा- 'दुर्बुद्धे ! तू श्रीकृष्णसे वियोग करानेवाला है, अतः जल
हो जा; तेरा जल मनुष्य कभी न पीयें। फिर उसने बड़ोंको शाप देते हुए कहा— 'तुम सब-के-सब
झगड़ालू हो; अतः पृथ्वीपर जाओ और वहाँ जल होकर रहो । तुम सबकी पृथक्-पृथक् गति होगी।
एक-दूसरेसे कभी मिल न सकोगे। सदा ही प्रलयकालमें तुम्हारा नैमित्तिक मिलन होगा' ॥।
१८ - २२ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार माताके शापसे वे सब पृथ्वीपर आ गये और राजा प्रियव्रतके रथके पहियोंसे
बनी हुई परिखाओंमें समाविष्ट हो गये। खारा जल, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, क्षीर तथा
शुद्ध जलके वे सात सागर हो गये । राजन् ! वे सातों समुद्र अक्षोभ्य तथा दुर्लङ्घय हैं।
उनके भीतर प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है । वे बहुत ही गहरे तथा लाख योजनसे लेकर क्रमशः
द्विगुण विस्तारवाले होकर पृथक्-पृथक् द्वीपोंमें स्थित हैं ॥२३-२५ ॥
पुत्रों के चले जाने पर विरजा उनके स्नेह से अत्यन्त व्याकुल हो उठी । तब अपनी उस विरहिणी प्रिया के पास आकर श्रीकृष्णने वर दिया- 'भीरु ! तुम्हारा कभी मुझसे वियोग
नहीं होगा। तुम अपने तेजसे सदैव पुत्रों की रक्षा करती रहोगी।'
विदेहराज ! तदनन्तर श्रीराधाको विरह-दुःख से व्यथित जान श्यामसुन्दर
श्रीहरि स्वयं श्रीदामाके साथ उनके निकुञ्ज में आये । निकुञ्जके
द्वारपर सखाके साथ आये हुए प्राणवल्लभकी ओर देखकर राधा मानवती हो उनसे इस प्रकार बोलीं
।। २६ - २९ ॥
श्रीराधाने कहा - हरे
! वहीं चले जाओ, जहाँ तुम्हारा नया नेह जुड़ा है। विरजा तो नदी हो गयी, अब तुम्हें
उसके साथ नद हो जाना चाहिये। जाओ, उसीके कुञ्जमें रहो। मुझसे तुम्हारा क्या मतलब है
? ॥ ३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
Jai shree Krishna Jai shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌹🥀🌷🌹जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव