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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट 03)
श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका
श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण
सुखेनातः
प्रगन्तव्यं भवतीभिर्यदा स्वतः ।
यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ ३६ ॥
यदि दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासाः केवलं क्षितौ ।
व्रती निरन्नो निर्वारि वर्तते पृथिवीतले ॥ ३७ ॥
तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिंदि सरितां वरे ।
इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ॥ ३८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यो नत्वा तं मुनिपुंगवम् ।
यमुनामेत्य मुन्युक्तं चोक्त्वा तीर्त्वा नदीं नृप ॥ ३९ ॥
श्रीकृष्णपार्श्वमाजग्मुर्विस्मिता मंगलायनाः ॥ ४० ॥
अथ रासे गोपवध्वः सन्देहं मनसोत्थितम् ।
पप्रच्छुः श्रीहरिं वीक्ष्य रहः पूर्णमनोरथाः ॥ ४१ ॥
गोप्य ऊचुः -
दुर्वाससो दर्शनं भोः कृतमस्माभिरग्रतः ।
युवयोर्वाक्यतश्चात्र सन्देहोऽयं प्रजायते ॥ ४२ ॥
यथा गुरुस्तथा शिष्यो मृषावादी न संशयः ।
जारस्त्वमसि गोपीनां रसिको बाल्यतः प्रभो ॥ ४३ ॥
कथं बालयतिस्त्वं वै वद तद्वृजिनार्दन ।
कथं दूर्वारसं पीत्वा दुर्वासा बहुभुङ्मुनिः ।
नो जात एष सन्देहः पश्यन्तीनां व्रजेश्वर ॥ ४४ ॥
श्रीभगवानुवाच -
निर्ममो निरहंकारः समानः सर्वगः परः ।
सदा वैषम्यरहितो निर्गुणोऽहं न संशयः ॥ ४५ ॥
तथापि भक्तान् भजतो भजेऽहं वै यथा तथा ।
तथैव साधुर्ज्ञानी वै वैषम्यरहितः सदा ॥ ४६ ॥
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् ।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन् ॥ ४७ ॥
यस्य सर्वे समारंभाः कामसंकल्पविर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥ ४८ ॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ ४९ ॥
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ५० ॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा ॥ ५१ ॥
तस्मान्मुनिस्तु दुर्वासा बहुभुक् त्वद्धिते रतः ।
न तस्य भोजनेच्छा स्याद्दूर्वारसमिताशनः ॥ ५२ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वा वचो गोप्यः सर्वास्ताश्छिन्नसंशयाः ।
श्रुतिरूपा ज्ञानमय्यो बभूवुर्मैथिलेश्वर ॥ ५३ ॥
मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ।
जब यमुनाजीके किनारे पहुँचो, तब मार्गके लिये इस प्रकार कहना - 'यदि दुर्वासामुनि इस
भूतलपर केवल दुर्वाका रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रतका पालन करते हों
तो सरिताओंकी शिरोमणि यमुनाजी ! हमें मार्ग दे दो।' ऐसी बात कहनेपर यमुनाजी तुम्हें
स्वतः मार्ग दे देंगी ॥ ३६- ३८ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यह सुनकर गोपियाँ उन
मुनिपुंगवको प्रणाण करके यमुनाके तटपर आयीं और मुनि की बतायी
हुई बात कहकर नदी पार हो श्रीकृष्ण के पास आ पहुँचीं। वे मङ्गलधामा
गोपियाँ इस यात्रा के विचित्र अनुभव से
विस्मित थीं। तदनन्तर रास में गोपाङ्गनाओं ने
श्रीकृष्णकी ओर देखकर अपने मनमें उठे हुए संदेहको उनसे पूछा । एकान्तमें श्रीहरि ने उन सबका मनोरथ पूर्ण कर दिया था ।। ३९ –४१ ॥
गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! हमने दुर्वासा मुनि का दर्शन उनके सामने जाकर किया है; किंतु आप दोनों के
वचनों को सुनकर उनकी सत्यता के सम्बन्ध में हमारे मन में संदेह उत्पन्न हो गया है ।।४२॥
जैसे गुरुजी असत्यवादी हैं, उसी तरह चेलाजी भी मिथ्यावादी
हैं— इसमें संशय नहीं है । अघनाशन! आप तो गोपियों के उपपति और
बचपन से ही रसिक हैं, फिर आप बाल ब्रह्मचारी कैसे हुए— यह हमें
स्पष्ट बताइये और हमारे सामने बहुत-सा अन्न (भार-के-भार छप्पन भोग) खा जानेवाले ये
दुर्वासामुनि केवल दुर्वाका रस पीकर रहनेवाले कैसे हैं ? व्रजेश्वर ! हमारे मनमें यह
भारी संदेह उठा है ॥ ४३ – ४४ ॥
श्रीभगवान् ने कहा— गोपियो
! मैं ममता और अहंकारसे रहित, सबके प्रति समान भाव रखने वाला, सर्वव्यापी, सबसे उत्कृष्ट,
सदा विषमताशून्य तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हूँ — इसमें संशय नहीं है। तथापि जो भक्त
मेरा जिस प्रकार भजन करते हैं, उनका उसी प्रकार मैं भी भजन करता हूँ। इसी प्रकार ज्ञानी
साधु-महात्मा भी सदा विषम भावनासे रहित होते हैं ।। ४५ –४६ ॥
योगयुक्त विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह कर्मोंमें
आसक्त हुए अज्ञानीजनों में बुद्धि-भेद न उत्पन्न करें। उनसे सदा
समस्त कर्मों का सेवन ही कराये। जिस पुरुषके सभी समारम्भ (आयोजन)
कामना और संकल्पसे शून्य होते हैं, उनके सारे कर्म ज्ञानरूपी अग्नि में
दग्ध हो जाते हैं (अर्थात् उनके लिये वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते) । ऐसे पुरुषको ज्ञानीजन
पण्डित (तत्त्वज्ञ) कहते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जिसने चित्त और बुद्धि को अपने वश में कर रखा है तथा जो समस्त संग्रह
- परिग्रह छोड़ चुका है, वह केवल शरीर - निर्वाह सम्बन्धी कर्म करता हुआ किल्विष (कर्मजनित
शुभाशुभ फल) को नहीं प्राप्त होता ।। ४७ –४९ ॥
इस संसार में ज्ञानके समान पवित्र
दूसरी कोई वस्तु नहीं है। योगसिद्ध पुरुष समयानुसार स्वयं ही अपने-आपमें उस ज्ञानको
प्राप्त कर लेता है। जो समस्त कर्मोंको ब्रह्मार्पण करके आसक्ति छोड़कर कर्म करता है,
वह पापसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्र जलसे । इसलिये दुर्वासामुनि
तुम सबके हित साधनमें तत्पर होकर बहुत खानेवाले हो गये । स्वतः उन्हें कभी भोजनकी इच्छा
नहीं होती। वे केवल परिमित दुर्वारसका ही आहार करते हैं ।। ५०-५२
।।
श्रीनारदजी कहते हैं— मैथिलेश्वर ! श्रीकृष्णका यह
वचन सुनकर समस्त गोपियोंका संशय नष्ट हो गया। वे श्रुतिरूपा गोपाङ्गनाएँ ज्ञानमयी हो
गयीं ॥ ५३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'श्रुतिरूपा गोपियोंका उपाख्यान' नामक पहला अध्याय
पूरा हुआ ॥ १ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव