॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश
श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः
करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।
प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः
विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३ ॥
ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं
श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।
सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः
स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४ ॥
भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं
प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं
पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५ ॥
अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं
वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।
युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः
स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६ ॥
उस वैकुण्ठलोकमें लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियोंके द्वारा भगवान्के चरणकमलोंकी अनेकों प्रकारसे सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूलेपर बैठकर अपने प्रियतम भगवान्की लीलाओंका गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभिसे उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजीका गुण-गान करने लगते हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अहर्ण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभुकी सेवा कर रहे हैं ॥ १४ ॥ उनका मुख-कमल प्रसाद-मधुर मुसकानसे युक्त है। आँखोंमें लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्तको अपना सर्वस्व दे देंगे। सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कंधेपर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्ष:स्थलपर एक सुनहरी रेखाके रूपमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ॥ १५ ॥ वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: नित्य- सिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं ॥१६॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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ॐ श्री परमात्मने नमः
नारायण नारायण नारायण नारायण