#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गिरिराज खण्ड)
आठवाँ अध्याय
विभिन्न तीर्थों में गिरिराज के विभिन्न अङ्गों की स्थिति का
वर्णन
श्रीबहुलाश्व उवाच -
केषु केषु तदङ्गेषु किं किं तीर्थं समाश्रितम्॥
वद देव महादेव त्वं परावरवित्तमः॥१॥
श्रीनारद उवाच -
यत्र यस्य प्रसिद्धिः स्यात्तदंगं परमं विदुः॥
क्रमतो नास्त्यंगचयो गिरिराजस्य मैथिल॥२॥
यथा सर्वगतं ब्रह्म सर्वांगानि च तस्य वै॥
विभूतेर्भावतः शश्वत्तथा वक्ष्यामि मानद॥३॥
शृङ्गारमण्डलस्याधो मुखं गोवर्धनस्य च॥
यत्रान्नकूटं कृतवान् भगवान् व्रजवासिभिः॥४॥
नेत्रे वै मानसी गंगा नासा चन्द्रसरोवरः॥
गोविन्दकुण्डो ह्यधरश्चिबुकं कृष्णकुण्डकः॥५॥
राधाकुण्डं तस्य जिह्वा कपोलौ ललितासरः॥
गोपालकुण्डः कर्णश्च कर्णान्तः कुसुमाकरः॥६॥
मौलिचिह्ना शीला तस्य ललाटं विद्धि मैथिल॥
शिरश्चित्रशिला तस्य ग्रीवा वै वादनी शिला॥७॥
कांदुकं पार्श्वदेशञ्च औष्णिषं कटिरुच्यते॥
द्रोणतीर्थं पृष्ठदेशे लौकिकं चोदरे स्मृतम्॥८॥
कदम्बखण्डमुरसि जीवः शृङ्गारमण्डलम्॥
श्रीकृष्णपादचिह्नं तु मनस्तस्य महात्मनः॥९॥
हस्तचिह्नं तथा बुद्धिरैरावतपदं पदम्॥
सुरभेः पादचिह्नेषु पक्षौ तस्य महात्मनः॥१०॥
पुच्छकुण्डे तथा पुच्छं वत्सकुंडे बलं स्मृतम्॥
रुद्रकुण्डे तथा क्रोधं कामं शक्रसरोवरे॥११॥
कुबेरतीर्थे चोद्योगं ब्रह्मतीर्थे प्रसन्नताम्॥
यमतीर्थे ह्यहंकारं वदन्तीत्थं पुराविदः॥१२॥
एवमंगानि सर्वत्र गिरिराजस्य मैथिल॥
कथितानि मया तुभ्यं सर्वपापहराणि च॥१३॥
गिरिराजविभूतिं च यः शृणोति नरोत्तमः॥
स गच्छेद्धाम परमं गोलोकं योगिदुर्लभम्॥१४॥
समुत्थितोऽसौ हरिवक्षसो गिरि-
र्गोवर्धनो नाम गिरीन्द्रराजराट्॥
समागतो ह्यत्र पुलस्त्यतेजसा
यद्दर्शनाज्जन्म पुनर्न विद्यते॥१५॥
बहुलाश्वने पूछा- महाभाग ! देव !! आप पर, अपर भूत और
भविष्यके ज्ञाताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। अतः बताइये, गिरिराजके किन-किन अङ्गोंमें कौन-
कौन-से तीर्थ विद्यमान हैं ? ॥ १ ॥
श्रीनारदजी बोले – राजन् ! जहाँ, जिस अङ्ग- की प्रसिद्धि
है, वही गिरिराजका उत्तम अङ्ग माना गया है। क्रमशः गणना करनेपर कोई भी ऐसा स्थान नहीं
है, जो गिरिराजका अङ्ग न हो। मानद ! जैसे ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है और सारे अङ्ग
उसीके हैं, उसी प्रकार विभूति और भावकी दृष्टिसे गोवर्धनके जो शाश्वत अङ्ग माने जाते
हैं, उनका मैं वर्णन करूँगा ।। २-३ ॥
शृङ्गारमण्डलके अधोभागमें श्रीगोवर्धनका मुख हैं, जहाँ
भगवान् ने व्रजवासियोंके साथ अन्नकूट का
उत्सव किया था । 'मानसी गङ्गा' गोवर्धनके दोनों नेत्र हैं, 'चन्द्रसरोवर' नासिका,
'गोविन्दकुण्ड' अधर और 'श्रीकृष्णकुण्ड' चिबुक है। 'राधाकुण्ड' गोवर्धनकी जिह्वा और
'ललितासरोवर' कपोल है। 'गोपालकुण्ड' कान और 'कुसुमसरोवर' कर्णान्तभाग है ।। ४-६ ॥
मिथिलेश्वर
! जिस शिलापर मुकुटका चिह्न है, उसे गिरिराजका ललाट समझो । 'चित्रशिला' उनका मस्तक
और 'वादिनी शिला' उनकी ग्रीवा है। 'कन्दुकतीर्थ' उनका पार्श्वभाग है और 'उष्णीषतीर्थ
को उनका कटिप्रदेश बतलाया जाता है । 'द्रोणतीर्थ' पृष्ठदेशमें और 'लौकिकतीर्थ' पेट में है ।। ७-८ ॥
'कदम्बखण्ड' हृदयस्थलमें है । 'शृङ्गारमण्डलतीर्थ'
उनका जीवात्मा है। 'श्रीकृष्ण-चरण-चिह्न' महात्मा गोवर्धन का
मन है । 'हस्तचिह्नतीर्थ' बुद्धि तथा 'ऐरावत - चरणचिह्न' उनका चरण है। सुरभिके चरण
चिह्नों में महात्मा गोवर्धनके पंख हैं ।। ९-१०
॥
'पुच्छकुण्ड' में पूँछकी भावना की जाती है। 'वत्सकुण्ड'
में उनका बल, 'रुद्रकुण्ड' में क्रोध तथा 'इन्द्रसरोवर' में कामकी स्थिति है। 'कुबेरतीर्थ'
उनका उद्योगस्थल और 'ब्रह्मतीर्थ' प्रसन्नताका प्रतीक है । पुराणवेत्ता पुरुष 'यमतीर्थ
में गोवर्धनके अहंकारकी स्थिति बताते हैं ।। ११-१२ ॥
मैथिल ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सर्वत्र गिरिराज के अङ्ग बताये हैं, जो समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं। जो नरश्रेष्ठ
गिरिराजकी इस विभूतिको सुनता है, वह योगिजनदुर्लभ 'गोलोक' नामक परमधाममें जाता है।
गिरिराजोंका भी राजा गोवर्धन पर्वत श्रीहरिके वक्षःस्थलसे प्रकट हुआ है और पुलस्त्यमुनिके
तेजसे इस व्रजमण्डलमें उसका शुभागमन हुआ है। उसके दर्शनसे मनुष्यका इस लोकमें पुनर्जन्म
नहीं होता ।। १३-१५ ।।
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीगिरिराजखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'गिरिराजकी विभूतियोंका वर्णन नामक आठवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🥀🌺💖🌹जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
जय श्री गिरिराज धरण गोविंद
जय हो गोवर्धन गिरधारी महाराज
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
जय श्री राधे गोविंद