॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश
श्रीशुक उवाच ।
सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।
पश्यतः तस्य तद् रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७ ॥
अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८ ॥
प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान् ।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९ ॥
तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।
शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४० ॥
मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः ।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१ ॥
तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।
देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२ ॥
तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।
प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३ ॥
नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।
ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासाय अमिततेजसे ॥ ४४ ॥
यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।
यथासीत् तदुपाख्यास्ते प्रश्नान् अन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—लोकपितामह ब्रह्माजीको इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान् ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूपको छिपा लिया ॥ ३७ ॥ जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजीने देखा कि भगवान्ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूपको हमारे नेत्रोंके सामनेसे हटा लिया है, तब उन्होंने अञ्जलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्पमें जैसी सृष्टि थी, उसी रूपमें इस विश्वकी रचना की ॥ ३८ ॥ एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजीने सारी जनताका कल्याण हो, अपने इस स्वार्थकी पूर्तिके लिये विधिपूर्वक यम-नियमोंको धारण किया ॥ ३९ ॥ उस समय उनके पुत्रोंमें सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजीने मायापति भगवान्की मायाका तत्त्व जाननेकी इच्छासे बड़े संयम, विनय और सौम्यतासे अनुगत होकर उनकी सेवा की। और उन्होंने सेवासे ब्रह्माजीको बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ॥ ४०-४१ ॥ परीक्षित् ! जब देवर्षि नारदने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्र किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ॥ ४२ ॥ उनके प्रश्न से ब्रह्मा जी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया जिसका स्वयं भगवान् ने उन्हें उपदेश किया था ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वतीके तटपर बैठकर परमात्माके ध्यानमें मग्र थे, उस समय देवर्षि नारदजीने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ ४४ ॥ तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट् पुरुषसे इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई, तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराणके रूपमें देता हूँ ॥ ४५ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌺🌷🌷💐जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः 🙏
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