बुधवार, 2 अक्टूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

छठा अध्याय (पोस्ट 01)

 

अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियोंका राजा विमलके यहाँ पुत्रीरूपसे उत्पन्न होना; उनके विवाहके लिये राजाका मथुरामें श्रीकृष्णको देखनेके निमित्त दूत भेजना; वहाँ पता न लगनेपर भीष्मजीसे अवतार - रहस्य जानकर उनका श्रीकृष्णके पास दूत प्रेषित करना

 

श्रीनारद उवाच -
एवमुक्त्वा गते साक्षाद्याज्ञवल्क्ये महामुनौ ॥
 अतीव हर्षमापन्नौ विमलश्चम्पकापतिः ॥ १ ॥
 अयोध्यापुरवासिन्यः श्रीरामस्य वराच्च याः ॥
 बभूवुस्तस्य भार्यासु ताः सर्वाः कन्यकाः शुभाः ॥ २ ॥
 विवाहयोग्यास्ता दृष्ट्वा चिन्तयन् चम्पकापतिः ॥
 याज्ञवल्क्यवचः स्मृत्वा दूतमाह नृपेश्वरः ॥ ३ ॥


 विमल उवाच -
मथुरां गच्छ दूत त्वं गत्वा शौरिगृहं शुभम् ॥
 दर्शनीयस्त्वया पुत्रो वसुदेवस्य सुन्दरः ॥ ४ ॥
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाली चतुर्भुजः ॥
 यदि स्यात्तर्हि दास्यामि तस्मै सर्वाः सुकन्यकाः ॥ ५ ॥


 श्रीनारद उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा दूतोऽसौ मथुरां गतः ।
 पप्रच्छ सर्वाभिप्रायं माथुरांश्च महाजनान् ॥ ६ ॥
 तद्वाक्यं माथुराः श्रुत्वा कंसभीताः सुबुद्धयः ।
 तं दूतं रहसि प्राहुः कर्णांते मंदवाग्यथा ॥ ७ ॥


 माथुरा ऊचुः
 वसुदेवस्य ये पुत्राः कंसेन बहवो हताः ।
 एकाऽवशिष्टावरजा कन्या साऽपि दिवं गता ॥ ८ ॥
 वसुदेवोऽस्ति चात्रैव ह्यपुत्रो दीनमानसः ।
 इदं न कथनीयं हि त्वया कंसभयं पुरे ॥ ९ ॥
 शौरिसंतानवार्तां यो वक्ति चेन्मथुरापुरे ।
 तं दंडयति कंसोऽसौ शौर्यष्टमशिशो रिपुः ॥ १० ॥


 श्रीनारद उवाच -
जनवाक्यं ततः श्रुत्वा दूतो वै चम्पकापुरीम् ।
 गत्वाऽथ कथयामास राज्ञे कारणमद्‌भुतम् ॥ ११ ॥


 दूत उवाच -
मथुरायामस्ति शौरिरनपत्योऽतिदीनवत् ।
 तत्पुत्रास्तु पुरा जाताः कंसेन निहताः श्रुतम् ॥ १२ ॥
 एकावशिष्टा कन्याऽपि खं गता कंसहस्ततः ।
 एवं शृत्वा यदुपुरान्निर्गतोऽहं शनैः शनैः ॥ १३ ॥
 चरन् वृन्दावने रम्ये कालिन्दीनिकटे शुभे ।
 अकस्माल्लतिकावृन्दे दृष्टः कश्चिच्छिशुर्मया ॥ १४ ॥
 तल्लक्षणसमो राजन् गोगोपगणमध्यतः ।
 श्रीवत्सांको घनश्यामो वनमाल्यतिसुन्दरः ॥ १५ ॥
 द्विभुजो गोपसूनुश्च परं त्वेतद्विलक्षणम् ।
 त्वया चतुर्भुजश्चोक्तो वसुदेवात्मजो हरिः ॥ १६ ॥
 किं कर्तव्यं वद नृप मुनिवाक्यं मृषा न हि ।
 यत्र यत्र यथेच्छा ते तत्र मां प्रेषय प्रभो ॥ १७ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब साक्षात् महामुनि याज्ञवल्क्य चले गये, तब चम्पका नगरीके स्वामी राजा विमलको बड़ा हर्ष हुआ। अयोध्यापुरवासिनी स्त्रियाँ श्रीरामके वरदानसे उनकी रानियोंके गर्भ से पुत्रीरूपमें प्रकट हुईं। वें सभी राजकन्याएँ बड़ी सुन्दरी थीं । उन्हें विवाह के योग्य अवस्थामें देखकर नृपशिरोमणि चम्पकेश्वरको चिन्ता हुई। उन्होंने याज्ञवल्क्यजीकी बातको याद करके दूत से कहा ।। १ - ३ ॥

विमल बोले- दूत ! तुम मथुरा जाओ और वहाँ शूरपुत्र वसुदेवके सुन्दर घरतक पहुँचकर देखो। वसुदेवका कोई बहुत सुन्दर पुत्र होगा। उसके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न होगा, अङ्गकान्ति मेघमालाकी भाँति श्याम होगी तथा वह वनमालाधारी एवं चतुर्भुज होगा। यदि ऐसी बात हो तो मैं उसके हाथमें अपनी समस्त सुन्दरी कन्याएँ दे दूँगा ।। ४-५ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! महाराज विमलकी यह बात सुनकर वह दूत मथुरापुरीमें गया और मथुराके बड़े-बड़े लोगोंसे उसने सारी अभीष्ट बातें पूछीं। उसकी बात सुनकर मथुराके बुद्धिमान् लोग, जो कंससे डरे हुए थे, उस दूतको एकान्तमें ले जाकर उसके कानमें बहुत धीमे स्वरसे बोले ।। ६-७ ।।

मथुरानिवासियों ने कहा – वसुदेव के जो बहुत- से पुत्र हुए, वे कंसके द्वारा मारे गये। एक छोटी-सी कन्या बच गयी थी, किंतु वह भी आकाशमें उड़ गयी। वसुदेव यहीं रहते हैं, किंतु पुत्रोंसे बिछुड़ जानेके कारण उनके मनमें बड़ा दुःख है। इस समय जो बात तुम हम लोगोंसे पूछ रहे हो, उसे और कहीं न कहना क्योंकि इस नगरमें कंसका भय है। मथुरापुरीमें जो वसुदेवकी संतानके सम्बन्धमें कोई बात करता है, उसे उनके आठवें पुत्र का शत्रु कंस भारी दण्ड देता है । ८ - १० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! जनसाधारणकी यह बात सुनकर दूत चम्पकापुरीमें लौट गया। वहाँ जाकर राजासे उसने वह अद्भुत संवाद कह सुनाया ॥ ११ ॥

दूत बोला - महाराज ! मथुरामें शूरपुत्र वसुदेव अवश्य हैं, किंतु संतानहीन होनेके कारण अत्यन्त दीनकी भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सुना है कि पहले उनके अनेक पुत्र हुए थे, जो कंसके हाथसे मारे गये हैं। एक कन्या बची थी, किंतु वह भी कंसके हाथसे छूटकर आकाशमें उड़ गयी। यह वृत्तान्त सुनकर मैं यदुपुरीसे धीरे-धीरे बाहर निकला ॥ १२-१३

वृन्दावनमें कालिन्दी के सुन्दर एवं रमणीय तटपर विचरते हुए मैंने लताओंके समूहमें अकस्मात् एक शिशु देखा । राजन् ! गोपोंके मध्य दूसरा कोई ऐसा बालक नहीं था, जिसके लक्षण उसके समान हों। उस बालकके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न था । उसकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम थी और वह वनमाला धारण किये अत्यन्त सुन्दर दिखायी देता था ॥ १४-१५

परंतु अन्तर इतना ही है कि उस गोप- बालक के दो ही बाँहें थीं और आपने वसुदेवकुमार श्रीहरि को चतुर्भुज बताया था। नरेश्वर ! बताइये, अब क्या करना चाहिये ? क्योंकि मुनिकी बात झूठी नहीं हो सकती । प्रभो ! जहाँ-जहाँ, जिस तरह आपकी इच्छा हो, उसके अनुसार वहाँ-वहाँ मुझे भेजिये ।। १-१७॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्...