बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुक उवाच ।
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ।
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृह ऋद्धिमत् ॥ १ ॥
यद्वा अयं मंत्रकृद्वो भगवान् अखिलेश्वरः ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥ २ ॥

राजोवाच ।
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः ।
कदा वा सहसंवाद एतद् वर्णय नः प्रभो ॥ ३ ॥
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्य अमलात्मनः ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ॥ ४ ॥

सूत उवाच ।
स एवं ऋषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित् प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
    पुष्णन् न धर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
    प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६ ॥
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
    केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम् ।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
    स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोडक़र वनमें गये हुए विदुरजीने भगवान्‌ मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोडक़र, उसी विदुरजी के घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥
राजा परीक्षित्‌ ने पूछा—प्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान्‌ मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्र नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥
सूतजी कहते हैं—सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌ के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा—सुनो ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगे—परीक्षित्‌ ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय- पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दु:शासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्ष:स्थलपर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ ७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌺🍂🥀🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव
    जय हो द्वारकावासी गोविंद !!
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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