॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
उद्धव और विदुर की भेंट
द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः
सत्यावलंबस्य वनं गतस्य ।
न याचतोऽदात् समयेन दायं
तमोजुषाणो यदजातशत्रोः ॥ ८ ॥
यदा च पार्थप्रहितः सभायां
जगद्गुहरुर्यानि जगाद कृष्णः ।
न तानि पुंसां अमृतायनानि
राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः ॥ ९ ॥
यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो
मंत्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मंत्रदृशां वरीयान्
यन्मंत्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥ १० ॥
दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु वनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ ८ ॥ महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णने कौरवोंकी सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ॥ ९ ॥ फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मंत्रियों में श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्रके जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ॥ १० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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