बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


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श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

कौरव सेना से पीड़ित रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों का प्राकट्य

 

श्रीनारद उवाच -
जालंधरीणां गोपीनां जन्मानि शृणु मैथिल ।
 कर्माणि च महाराज पापघ्नानि नृणां सदा ॥ १ ॥
 रजन् सप्तनदीतीरे रंगपत्तनमुत्तमम् ।
 सर्वसंपद्युतं दीर्घं योजनद्वयवर्तुलम् ॥ २ ॥
 रंगोजिस्तत्र गोपालः पुराधीशो महाबलः ।
 पुत्रपौत्रसमायुक्तो धनधान्यसमृद्धिमान् ॥ ३ ॥
 हस्तिनापुरनाथाय धृतराष्ट्राय भूभृते ।
 हैमानामर्बुदशतं वार्षिकं स ददौ सदा ॥ ४ ॥
 एकदा तत्र वर्षांते व्यतीते किल मैथिल ।
 वार्षिकं तु करं राज्ञे न ददौ स मदोत्कटः ॥ ५ ॥
 मिलनार्थं न चायते रंगोजौ गोपनायके ।
 वीरा दश सहस्राणि धृतराष्ट्रप्रणोदिताः ॥ ६ ॥
 बद्ध्वा तं दामभिर्गोपमाजग्मुस्ते गजह्वयम् ।
 कति वर्षाणि रंगोजिः कारागारे स्थितोऽभवत् ॥ ७ ॥
 सन्निरुद्धस्ताडितोऽपि लोभी भीरुर्न चाभवत् ।
 न ददौ स धनं किंचिद्धृतराष्ट्राय भूभृते ॥ ८ ॥
 कारागारान्महाभीमात्कदाचित्स पलायितः ।
 रात्रौ रंगपुरं प्रागाद् रंगोजिर्गोपनायकः ॥ ९ ॥
 पुनस्तं हि समाहर्तुं धृतराष्ट्रप्रणोदितम् ।
 अक्षौहिणीत्रयं राजन् समर्थबलवाहनम् ॥ १० ॥
 तेन सार्द्धं स बाणौघैस्तीक्ष्णधारैः स्फुरत्प्रभैः ।
 युयुधे दंशितो युद्धे धनुष्टंकारयन्मुहुः ॥ ११ ॥
 शत्रुभिश्छिन्नकवचः छिन्नधन्वा हतस्वकः ।
 पुरमेत्य मृधं चक्रे रंगोजिः कतिभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
 अनाथः शरणं चेच्छन् कंसाय यदूभूभृते ।
 दूतं स्वं प्रेषयामास रंगोजिर्भयपीडितः ॥ १३ ॥
 दूतस्तु मथुरामेत्य सभां गत्वा नताननः ।
 कृताञ्जलिश्चौग्रसेनिं नत्वा प्राह गिराऽऽर्द्रया ॥ १४ ॥
 रंगोजिनामा नृप रंगपत्तने
     गोपोऽस्ति नीतिज्ञवरः पुराधिपः ।
 स्वशत्रुसंरुद्धपुरो महाधिभृद्
     अलब्धनाथः शरणं गतस्तव ॥ १५ ॥
 त्वं दीनदुःखार्तिहरो महीतले
     भौमदिसंगीतगुणो महाबलः ।
 सुरासुरानुद्भटभूमिपालकान्
     विजित्य युद्धे सुरराडिव स्थितः ॥ १६ ॥
 चन्द्रं चकोरश्च रविं कुशेशयो
     यथा शरच्छीकरमेव चातकः ।
 क्षुधातुरोऽन्नं च जलं तृषातुरः
     स्मरत्यसौ शत्रुभये तथा त्वाम् ॥ १७ ॥

नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब जालंधर के अन्तःपुर की स्त्रियों के गोपीरूप में जन्म लेने का वर्णन सुनो। महाराज ! साथ ही उनके कर्मों को भी सुनो, जो सदा ही मनुष्यों के पापों का नाश करने वाले हैं ॥ १ ॥

राजन् ! सप्तनदीके किनारे 'रङ्गपत्तन' नामसे प्रसिद्ध एक उत्तम नगर था, जो सब प्रकार की सम्पदाओंसे सम्पन्न तथा विशाल था । वह दो योजन विस्तृत गोलाकार नगर था। उस नगर का मालिक या पुराधीश रंगोजि नामक एक गोप था, जो महान् बलवान् था । वह पुत्र-पौत्र आदि से संयुक्त तथा धन-धान्य से समृद्धिशाली था ॥ २-३

हस्तिनापुरके स्वामी राजा धृतराष्ट्रको वह सदा एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ वार्षिक करके रूपमें दिया करता था । मिथिलेश्वर ! एक समय वर्ष बीत जानेपर भी धनके मदसे उन्मत्त गोपने राजाको वार्षिक कर नहीं दिया। इतना ही नहीं, वह गोपनायक रंगोजि मिलनेतक नहीं गया। तब धृतराष्ट्रके भेजे हुए दस हजार वीर जाकर उस गोपको बाँधकर हस्तिनापुरमें ले आये। कई वर्षोंतक तो रंगोजि कारागारमें बँधा पड़ा रहा। बाँधे और पीटे जानेपर भी वह लोभी गोप डरा नहीं। उसने राजा धृतराष्ट्रको थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया ॥ ४-८ ॥

किसी समय गोपनायक रंगोजि उस महाभयंकर कारागार से भाग निकला तथा रातों-रात रङ्गपुर में आ गया । तब पुनः उसे पकड़ लाने के लिये धृतराष्ट्रकी भेजी हुई शक्तिशाली बल-वाहनसे सम्पन्न तीन अक्षौहिणी सेना गयी। वह गोप भी कवच धारण करके युद्धभूमिमें बारंबार धनुषकी टंकार फैलाता हुआ तीखी धारवाले चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करके धृतराष्ट्रकी उस सेनाका सामना करने लगा ॥ ९-११

शत्रुओंने उसके कवच और धनुष काट दिये तथा उसके स्वजनोंका भी वध कर डाला; तब वह अपने पुर (दुर्ग) में आकर कुछ दिनोंतक युद्ध चलाता रहा । अन्तमें अनाथ एवं भयसे पीड़ित रंगोजि किसी शरणदाता या रक्षककी इच्छा करने लगा। उसने यादवराज कंसके पास अपना दूत भेजा । दूत मथुरा पहुँचकर राज दरबारमें गया और उसने मस्तक झुकाकर दोनों हाथोंकी अञ्जलि बाँधे उग्रसेनकुमार कंसको प्रणाम करके करुणासे आर्द्र वाणीमें कहा ।। १२-१४ ।।

'महाराज ! रङ्गपत्तन में रंगोजि नाम से प्रसिद्ध एक गोप हैं, जो उस नगरके स्वामी तथा नीतिवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओंने उनके नगर को चारों ओरसे घेर लिया है। वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं और अनाथ होकर आपकी शरणमें आये हैं। इस भूतलपर केवल आप ही दीनों और दुःखियोंकी पीड़ा हरनेवाले हैं। भौमासुरादि वीर आपके गुण गाया करते हैं। आप महाबली हैं और देवता, असुर तथा उद्भट भूमिपालोंको युद्धमें जीतकर देवराज इन्द्रके समान अपनी राजधानीमें विराजमान हैं ॥ १५-१६

जैसे चकोर चन्द्रमाको, कमलोंका समुदाय सूर्यको, चातक शरद् ऋतुके बादलोंद्वारा बरसाये गये जलकणोंको, भूखसे व्याकुल मनुष्य अन्नको तथा प्याससे पीड़ित प्राणी पानी को ही याद करता है, उसी प्रकार रंगोजि गोप शत्रुके भयसे आक्रान्त हो केवल आपका स्मरण कर रहे हैं' ।। १७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




2 टिप्‍पणियां:

  1. 🌷🩷🌹🥀जय श्री कृष्ण 🌷
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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  2. ऊं नमो भगवते वासुदेवाय

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