श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बारहवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
दिव्यादिव्य,
त्रिगुणवृत्तिमयी भूतल-गोपियोंका वर्णन तथा श्रीराधासहित गोपियोंकी श्रीकृष्णके साथ
होली
श्रीनारद
उवाच -
अथ मानवती राधा मानं त्यक्त्वा समुत्थिता ।
सखीसंघैः परिवृता प्रकर्तुं होलिकोत्सवम् ॥ १३ ॥
श्रीखण्डागुरुकस्तूरीहरिद्राकुंकुमद्रवैः ।
पूरिताभिर्दृतीभिश्च संयुक्तास्ता व्रजांगनाः ॥ १४ ॥
रक्तहस्ताः पीतवस्त्राः कूजन् नूपुरमेखलाः ।
गायंत्यो होलिकागीतीः गालीभिर्हास्यसंधिभिः ॥ १५ ॥
आबीरारुणचूर्णानां मुष्टिभिस्ता इतस्ततः ।
कुर्वंत्यश्चारुणं भूमिं दिगन्तं चांबरं तथा ॥ १६ ॥
कोटिशः कोटिशस्तत्र स्फुरंत्याबीरमुष्टयः ।
सुगंधारुणचूर्णानां कोटिशः कोटिशस्तथा ॥ १७ ॥
सर्वतो जगृहुः कृष्णं कराभ्यां व्रजगोपिकाः ।
यथा मेघं च दामिन्यः संध्यायां श्रावणस्य च ॥ १८ ॥
तन्मुखं च विलिम्पन्त्योऽथाबीरारुणमुष्टिभिः ।
कुंकुमाक्तदृतीभिस्तं आर्द्रीचक्रुर्विधानतः ॥ १९ ॥
भगवनपि तत्रैव यावतीर्व्रजयोषितः ।
धृत्वा रूपाणि तावंति विजहार नृपेश्वर ॥ २० ॥
राधया शुशुभे तत्र होलिकाया महोत्सवे ।
वर्षासंध्याक्षणे कृष्णः सौदामिन्या घनो यथा ॥ २१ ॥
कृष्णोऽपि तद्धस्तकृताक्तनेत्रो
दत्वा स्वकीयं नवमुत्तरीयम् ।
ताभ्यो ययौ नन्दगृहं परेशो
देवेषु वर्षत्सु च पुष्पवर्षम् ॥ २२
॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तब मानवती राधा मान छोड़कर
उठीं और सखियोंके समूहसे घिरकर होलीका उत्सव मनानेके लिये निकलीं । चन्दन, अगर, कस्तूरी,
हल्दी तथा केसरके घोलसे भरी हुई डोलचियाँ लिये वे बहुसंख्यक व्रजाङ्गनाएँ एक साथ होकर
चलीं ॥ १३-१४ ॥
रँगे हुए लाल-लाल हाथ, वासन्ती रंगके पीले वस्त्र,
बजते हुए नूपुरोंसे युक्त पैर तथा झनकारती हुई करधनीसे सुशोभित कटिप्रदेश बड़ी मनोहर
शोभा थी उन गोपाङ्गनाओंकी । वे हास्ययुक्त गालियोंसे सुशोभित होलीके गीत गा रही थीं।
अबीर, गुलालके चूर्ण मुट्ठियोंमें ले-लेकर इधर-उधर फेंकती हुई वे व्रजाङ्गनाएँ भूमि,
आकाश और वस्त्रको लाल किये देती थीं। वहाँ अबीरकी करोड़ों मुट्ठियाँ एक साथ उड़ती थीं।
सुगन्धित गुलालके चूर्ण भी कोटि-कोटि हांथोंसे बिखेरे जाते थे । १५
- १७ ॥
इसी समय व्रजगोपियोंने श्रीकृष्णको चारों ओरसे घेर
लिया, मानो सावनकी साँझमें विद्युन्मालाओंने मेघको सब ओरसे अवरुद्ध कर लिया हो। पहले
तो उनके मुँहपर खूब अबीर और गुलाल पोत दिया, फिर सारे अङ्गोंपर अबीर-गुलाल बरसाये तथा
केसरयुक्त रंग से भरी डोलचियों द्वारा उन्हें
विधिपूर्वक भिगोया । नृपेश्वर ! वहाँ जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण करके भगवान्
भी उनके साथ विहार करते रहे। वहाँ होलिका महोत्सव में श्रीकृष्ण
श्रीराधाके साथ वैसी ही शोभा पाते थे, जैसे वर्षाकालकी संध्या-वेलामें विद्युन्माला के साथ मेघ सुशोभित होता है। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के नेत्रों में काजल लगा दिया। श्रीकृष्णने भी
अपना नया उत्तरीय (दुपट्टा) गोपियोंको उपहार में दे दिया । फिर
वे परमेश्वर श्रीनन्दभवन को लौट गये। उस समय समस्त देवता उनके
ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १८-२२ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें होलिकोत्सवके प्रसङ्गमें 'दिव्यादिव्य- त्रिगुणवृत्तिमयी
भूतल-गोपियोंका उपाख्यान' नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🌺जय श्रीकृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
बृजजन प्रियतम कृष्णगोविंदम्
राधा रमणम् हरे हरे 🙏🌼🌷
जय श्री राधे गोविंद 🙏🙏
Jai shree Krishna
जवाब देंहटाएं