॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०५)
उद्धव और विदुर की भेंट
स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो
गजाह्वयात् तीर्थपदः पदानि ।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां
स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः ॥ १७ ॥
पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्जे
ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु ।
अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु
चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः ॥ १८ ॥
गां पर्यटन् मेध्यविविक्तवृत्तिः
सदाप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः ।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो
व्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥ १९ ॥
कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान् के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान् हैं ॥ १७ ॥ जहाँ-जहाँ भगवान् की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे ॥ १८ ॥ वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीय-जन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान् को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे ॥१९॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्रीकृष्ण🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव !!
प्रभु प्रेमी भक्त महात्मा
विदुर जी महाराज को
सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश:
वंदन 💐🙏🙏💐