गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) दसवाँ अध्याय


# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(माधुर्यखण्ड)

दसवाँ अध्याय

 

पुलिन्द - कन्यारूपिणी गोपियों के सौभाग्य का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
पुलिंदकानां गोपीनां करिष्ये वर्णनं ह्यतः ।
 सर्वपापहरं पुण्यमद्‌भुतं भक्तिवर्द्धनम् ॥ १ ॥
 पुलिन्दा ऊद्‌भटाः केचिद्‌विंध्याद्रि वनवासिनः ।
 विलुंपंतो राजवसु दीनानां न कदाचन ॥ २ ॥
 कुपितस्तेषु बलवान् विन्ध्यदेशाधिपो बली ।
 अक्षौहिणीभ्यां तान्सर्वान् पुलिंदान्स रुरोध ह ॥ ३ ॥
 युयुधुस्तेऽपि खड्गैश्च कुन्तैः शूलैः परश्वधैः ।
 शक्त्यर्ष्टिभिर्भृशुण्डीभिः शरैः कति दिनानि च ॥ ४ ॥
 पत्रं ते प्रेषयामासुः कंसाय यदुभूभृते ।
 कंसप्रणोदितो दैत्यः प्रलंबो बलवांस्तदा ॥ ५ ॥
 योजनद्वयमुच्चांगं कालमेघसमद्युतिम् ।
 किरीटकुंडलधरं सर्पहारविभूषितम् ॥ ६ ॥
 पादयोः शृङ्खलायुक्तं गदापाणिं कृतांतवत् ।
 ललज्जिह्वं घोररूपं पातयन्तं गिरीन्द्रुमान् ॥ ७ ॥
 कंपयंतं भुवं वेगात्प्रलम्बं युद्धदुर्मदम् ।
 दृष्ट्वा प्रधर्षितो राजा ससैन्यो रणमंडलम् ॥ ८ ॥
 त्यक्त्वा दुद्राव सहसा सिंहं वीक्ष्य गजो यथा ।
 प्रलंबस्तान् समानीय मथुरामाययौ पुनः ॥ ९ ॥
 पुलिन्दास्तेऽपि कंसस्य भृत्यत्वं समुपागताः ।
 सकुटुंबाः कामगिरौ वासं चक्रुर्नृपेश्वर ॥ १० ॥
 तेषां गृहेषु संजाताः श्रीरामस्य वरात्परात् ।
 पुलिंद्यः कन्यका दिव्या रूपिण्यः श्रीरिवार्चिताः ॥ ११ ॥
 तद्दर्शनस्मररुजः पुलिंद्यः प्रेमविह्वलाः ।
 श्रीमत्पादरजो धृत्वा ध्यायंत्यस्तमहर्निशम् ॥ १२ ॥
 ताश्चापि रासे संप्राप्ताः श्रीकृष्णं परमेश्वरम् ।
 परिपूर्णतमं साक्षाद्‌‌गोलोकाधिपतिं प्रभुम् ॥ १३ ॥
 श्रीकृष्णचरणाम्भोजरजो देवैः सुदुर्लभम् ।
 अहो भाग्यं पुलिंदीनां तासां प्राप्तं विशेषतः ॥ १४ ॥
 यः पारमेष्ठ्यमखिलं न महेन्द्रधिष्ण्यं
     नो सार्वभौममनिशं न रसाधिपत्यम् ।
 नो योगसिद्धिमभितो न पुनर्भवं वा
     वाञ्छत्यलं परमपादरजः स भक्तः ॥ १५ ॥
 निष्किंचनाः स्वकृतकर्मफलैर्विरागा
     यत्तत्पदं हरिजना मुनयो महांतः ।
 भक्ता जुषन्ति हरिपादरजःप्रसक्ता
     अन्ये वदन्ति न सुखं किल नैरपेक्ष्यम् ॥ १६ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- अब पुलिन्द (कोल- भील) जातिकी स्त्रियोंका, जो गोपी भावको प्राप्त हुई थीं, मैं वर्णन करता हूँ । यह वर्णन समस्त पापों का अपहरण करनेवाला, पुण्यजनक, अद्भुत और भक्ति- भाव को बढ़ानेवाला है । विन्ध्याचल के वनमें कुछ पुलिन्द (कोल-भील) निवास करते थे। वे उद्घट योद्धा थे और केवल राजाका धन लूटते थे। गरीबोंकी कोई चीज कभी नहीं छूते थे ॥ १-२

विन्ध्यदेशके बलवान् राजाने कुपित हो दो अक्षौहिणी सेनाओंके द्वारा उन सभी पुलिन्दोंपर घेरा डाल दिया। वे पुलिन्द भी तलवारों, भालों, शूलों, फरसों, शक्तियों, ऋष्टियों, भुशुण्डियों और तीर- कमानोंसे कई दिनोंतक राजकीय सैनिकोंके साथ युद्ध करते रहे। (विजयकी आशा न देखकर) उन्होंने सहायता के लिये यादवोंके राजा कंसके पास पत्र भेजा। तब कंसकी आज्ञासे बलवान् दैत्य प्रलम्ब वहाँ आया ॥३-५ 

उसका शरीर दो योजन ऊँचा था । देह का रंग मेघोंकी काली घटा के समान काला था । माथेपर मुकुट तथा कानों में कुण्डल धारण किये वह दैत्य सर्पोंकी मालासे विभूषित था । उसके पैरोंमें सोनेकी साँकल थी और हाथ में गदा लेकर वह दैत्य काल के समान जान पड़ता था। उसकी जीभ लपलपा रही थी और रूप बड़ा भयंकर था। वह शत्रुओं पर पर्वत की चट्टानें तथा बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर फेंकता था। पैरोंकी धमकसे धरतीको कँपाते हुए रणदुर्मद दैत्य प्रलम्ब को देखते ही भयभीत तथा पराजित हो विन्ध्य- नरेश सेनासहित समराङ्गण छोड़कर सहसा भाग चले, मानो सिंह को देखकर हाथी भाग जाता हो । तब प्रलम्ब उन सब पुलिन्दों को साथ ले पुनः मथुरापुरी को लौट आया ॥६-९॥

वे सभी पुलिन्द कंसके सेवक हो गये। नृपेश्वर ! उन सबने अपने कुटुम्बके साथ कामगिरिपर निवास किया। उन्होंके घरोंमें भगवान् श्रीरामके उत्कृष्ट वरदानसे वे पुलिन्द - स्त्रियाँ दिव्य कन्याओं के रूप में प्रकट हुईं, जो मूर्तिमती लक्ष्मी की भाँति पूजित एवं प्रशंसित होती थीं। श्रीकृष्ण के दर्शन से उनके हृदय में प्रेमकी पीड़ा जाग उठी। वे पुलिन्द - कन्याएँ प्रेमसे विह्वल हो भगवान्‌ की श्रीसम्पन्न चरणरजको सिरपर धारण करके दिन-रात उन्हींके ध्यान एवं चिन्तनमें डूबी रहती थीं। वे भी भगवान्‌ की कृपासे रासमें आ पहुँचीं और साक्षात् गोलोकके अधिपति, सर्वसमर्थ, परिपूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्णको उन्होंने सदाके लिये प्राप्त कर लिया ॥१०-१३                                                                                                                   अहो ! इन पुलिन्द कन्याओंका कैसा महान् सौभाग्य है कि देवताओंके लिये भी परम दुर्लभ श्रीकृष्ण चरणारविन्दोंकी रज उन्हें विशेषरूपसे प्राप्त हो गयी। जिसकी भगवान्‌के परम उत्कृष्ट पाद-पद्म-पराग में सुदृढ़ भक्ति है, वह न तो ब्रह्माजीका पद, न महेन्द्रका स्थान, न निरन्तर- स्थायी सार्वभौम सम्राट्का पद, न पाताललोकका आधिपत्य, न योगसिद्धि और न अपुनर्भव (मोक्ष) को ही चाहता है। जो अकिंचन हैं, अपने किये हुए कर्मों के फलसे विरक्त हैं, वे हरि-चरण-रज में आसक्त भगवान्‌ के स्वजन महात्मा भक्त मुनि जिस पदका सेवन करते हैं, वही निरपेक्ष सुख है; दूसरे लोग जिसे सुख कहते हैं, वह वास्तव में निरपेक्ष नहीं है ॥। १ - १६ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'पुलिन्दी-उपाख्यान' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से




2 टिप्‍पणियां:

  1. 🇪🇬🚣🚶राधे राधे ...सादर वंदन... सादर प्रणाम ... भारत की कोई भी प्रथा, परंपरा अनसाइंटिफिक नहीं है🌹🙏🌹

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  2. 💐🌺🌾💐जय श्रीकृष्ण🙏🙏
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

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