॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
जय-विजय को सनकादि का शाप
यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टैः ।
वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः ।
येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः ।
कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २० ॥
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं ।
लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि ।
सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्नः ॥ २१ ॥
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु ।
प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्रम् ।
उच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२ ॥
(श्रीब्रह्माजी कहरहे हैं ) वह लोक (वैकुण्ठलोक) वैदूर्य, मरकत-मणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पादपद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चित्तों में बड़े-बड़े नितम्बोंवाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुसकान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं ॥ २० ॥ परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करनेके लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवनमें चञ्चलतारूप दोषको त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरण-कमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन की स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पडऩेसे ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों ॥ २१ ॥ प्यारे देवताओ ! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान् का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिकासे सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान्का चुम्बन किया हुआ है’ यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं ॥ २२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण