॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
जय-विजय को सनकादि का शाप
तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान् ।
वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ ।
तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः ।
स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् ।
कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥
मुनय ऊचुः ।
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः ।
तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां ।
को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥
वे चारों कुमार (सनकादि मुनि) पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्माकी सृष्टि में आयु में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों-से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्तिसे (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार नि:सङ्कोचरूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालोंने भगवान्के शील-स्वभावके विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे ॥ ३० ॥ जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्र पडऩे के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे ॥ ३१ ॥
मुनियोंने कहा—अरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान् की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान् के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हींमें से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है ? भगवान् तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसीसे विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिसपर शङ्का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरोंपर शङ्का करते हो ॥ ३२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀 जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!