॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय
तौ आदिदैत्यौ सहसा व्यज्यमान आत्मपौरुषौ ।
ववृधातेऽश्मसारेण कायेन अद्रिपती इव ॥ १६ ॥
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभिः
निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्गदाभुजौ ।
गां कंपयन्तौ चरणैः पदे पदे
कट्या सुकाञ्च्यार्कमतीत्य तस्थतुः ॥ १७ ॥
प्रजापतिर्नाम तयोरकार्षीद्
यः प्राक् स्वदेहाद्यमयोरजायत ।
तं वै हिरण्यकशिपुं विदुः प्रजा
यं तं हिरण्याक्षमसूत साग्रतः ॥ १८ ॥
वे दोनों आदिदैत्य जन्म के अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलाद के समान कठोर शरीरों से बढक़र महान् पर्वतों के सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया ॥ १६ ॥ वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटों का अग्रभाग स्वर्ग को स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरों से सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वीपर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करधनीसे सुशोभित कमर अपने प्रकाशसे सूर्यको भी मात करती थी ॥ १७ ॥ वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजीने उनका नामकरण किया। उनमेंसे जो उनके वीर्यसे दितिके गर्भमें पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दितिके उदरसे पहले निकला, वह हिरण्याक्षके नामसे विख्यात हुआ ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌺🌿🌷🌹जय श्रीकृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!