॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का जन्म तथा
हिरण्याक्ष की दिग्विजय
स वर्षपूगान् उदधौ महाबलः
चरन् महोर्मीन् श्वसनेरितान्मुहुः ।
मौर्व्याभिजघ्ने गदया विभावरीं
आसेदिवान् तास्तात पुरीं प्रचेतसः ॥ २६ ॥
तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
यादोगणानां ऋषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचवत्
जगाद मे देह्यधिराज संयुगम् ॥ २७ ॥
त्वं लोकपालोऽधिपतिर्बृहच्छ्रवा
वीर्यापहो दुर्मदवीरमानिनाम् ।
विजित्य लोकेऽखिलदैत्यदानवान्
यद् राजसूयेन पुरायजत्प्रभो ॥ २८ ॥
महाबली हिरण्याक्ष अनेक वर्षोंतक समुद्रमें ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार- बार वायुवेगसे उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गोंपर ही अपनी लोहमयी गदाको आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुणकी राजधानी विभावरीपुरी में जा पहुँचा ॥ २६ ॥ वहाँ पाताललोक के स्वामी, जलचरों के अधिपति वरुणजी को देखकर उसने उनकी हँसी उड़ाते हुए नीच मनुष्य की भाँति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे कहा—‘महाराज ! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर राजसूय-यज्ञ भी किया था’ ॥ २८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌸🌿🌷🌺जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण