॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
कर्दमजी की तपस्या और भगवान् का वरदान
प्रविश्य तत्तीर्थवरं आदिराजः सहात्मजः ।
ददर्श मुनिमासीनं तस्मिन् हुतहुताशनम् ॥ ४५ ॥
विद्योतमानं वपुषा तपसि उग्रयुजा चिरम् ।
नातिक्षामं भगवतः स्निग्धापाङ्गावलोकनात् ।
तद्व्याहृतामृतकला पीयूषश्रवणेन च ॥ ४६ ॥
प्रांशुं पद्मपलाशाक्षं जटिलं चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य मलिनं यथार्हणं असंस्कृतम् ॥ ४७ ॥
अथोटजमुपायातं नृदेवं प्रणतं पुरः ।
सपर्यया पर्यगृह्णात् प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥ ४८ ॥
आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्रिहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ॥ ४५ ॥ बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनों तक तपस्या करनेपर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे ॥ ४६ ॥ उनका शरीर लंबा था, नेत्र कमलदलके समान विशाल और मनोहर थे, सिरपर जटाएँ सुशोभित थीं और कमरमें चीर-वस्त्र थे। वे निकटसे देखनेपर बिना सानपर चढ़ी हुई महामूल्य मणिके समान मलिन जान पड़ते थे ॥ ४७ ॥ महाराज स्वायम्भुवमनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंनें उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया ॥ ४८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्रीकृष्ण 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
प्रभु प्रेमी संत जन की सदा ही जय हो