॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छब्बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)
महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्ति का वर्णन
घ्राणात् वायुरभिद्येतां अक्षिणी चक्षुरेतयोः ।
तस्मात्सूर्यो न्यभिद्येतां कर्णौ श्रोत्रं ततो दिशः ॥ ५५ ॥
निर्बिभेद विराजस्त्वग् रोमश्मश्र्वादयस्ततः ।
तत ओषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे ततः ॥ ५६ ॥
रेतस्तस्मादाप आसन् निरभिद्यत वै गुदम् ।
गुदादपानोऽपानाच्च मृत्युर्लोकभयङ्करः ॥ ५७ ॥
घ्राण के बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानोंके छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत्र और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए ॥ ५५ ॥ इसके बाद उस विराट् पुरुष के त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ-दाढ़ी तथा सिरके बाल प्रकट हुए । और उनके बाद त्वचा की अभिमानी ओषधियाँ (अन्न आदि) उत्पन्न हुर्ईं । इसके पश्चात् लिङ्ग प्रकट हुआ ॥ ५६ ॥ उससे वीर्य और वीर्य के बाद लिङ्ग का अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्न हुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपानके बाद उसका अभिमानी लोकोंको भयभीत करनेवाला मृत्युदेवता उत्पन्न हुआ ॥ ५७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌺🍂🌺ॐश्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण नारायण नारायण