शनिवार, 12 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

यथा वातरथो घ्राणं आवृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानं अविकारि यत् ॥ २० ॥
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥ २१ ॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति सः ॥ २२ ॥
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥ २३ ॥

जिस प्रकार वायुके द्वारा उडक़र जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्पसे घ्राणेन्द्रियतक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारोंसे शून्य चित्त परमात्माको प्राप्त कर लेता है ॥ २० ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवोंमें स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्माका अनादर करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ॥ २१ ॥ मैं सब का आत्मा, परमेश्वर सभी भूतोंमें स्थित हूँ; ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजनमें ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें ही हवन करता है ॥ २२ ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष जो दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरों में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २३ ॥ 

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शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥ १५ ॥
मद्धिष्ण्य दर्शनस्पर्श पूजास्तुति अभिवन्दनैः ।
भूतेषु मद्भारवनया सत्त्वेनासङ्गमेन च ॥ १६ ॥
महतां बहुमानेन दीनानां अनुकम्पया ।
मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥ १७ ॥
आध्यात्मिकानुश्रवणात् नामसङ्कीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनार्यसङ्गेन निरहङ्‌क्रियया तथा ॥ १८ ॥
मद् धर्मणो गुणैः एतैः परिसंशुद्ध आशयः ।
पुरुषस्याञ्जसाभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥ १९ ॥

निष्कामभावसे श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्योंका पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोगका अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियोंमें मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्यके अवलम्बन, महापुरुषोंका मान, दीनोंपर दया और समान स्थितिवालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्मशास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के सङ्ग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवतधर्मोंका ) अनुष्ठान करनेवाले भक्त पुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझ में लग जाता है ॥ १५—१९ ॥

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गुरुवार, 10 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

मद्गु णश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिः अविच्छिन्ना यथा गङ्गाम्भसोऽम्बुधौ ॥ ११ ॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥ १२ ॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्य सारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥ १३ ॥
स एव भक्तियोगाख्य आत्यन्तिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्भा वायोपपद्यते ॥ १४ ॥

जिस प्रकार गङ्गाका प्रवाह अखण्डरूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मनकी गति का तैलधारावत् अविच्छिन्नरूप से मुझ सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है ॥ ११-१२ ॥ ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोडक़र सालोक्य१, सार्ष्टि,२ सामीप्य,३ सारूप्य४ और सायुज्य५ मोक्षतक नहीं लेते [*]— ॥ १३ ॥ भगवत्-सेवाके लिये मुक्ति का तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है । इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव को—मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥ १४ ॥
......................................
[*] १. भगवान्‌ के नित्यधाम में निवास, २. भगवान्‌ के समान ऐश्वर्यभोग, ३. भगवान्‌ की नित्य समीपता, ४. भगवान्‌ का-सा रूप और ५. भगवान्‌ के विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप प्राप्त कर लेना।

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बुधवार, 9 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

मैत्रेय उवाच ।
इति मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणार्दितः ॥ ६ ॥

श्रीभगवानुवाच -
भक्तियोगो बहुविधो मार्गैर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥ ७ ॥
अभिसन्धाय यो हिंसां दम्भं मात्सर्यमेव वा ।
संरम्भी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥ ८ ॥
विषयान् अभिसन्धाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादौ अर्चयेद्यो मां पृथग्भावः स राजसः ॥ ९ ॥
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन् वा तदर्पणम् ।
यजेद् यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिलजी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दयासे द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले ॥ ६ ॥
श्रीभगवान्‌ ने कहा—माताजी ! साधकोंके भाव के अनुसार भक्तियोगका अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणोंके भेदसे मनुष्योंके भावमें भी विभिन्नता आ जाती है ॥ ७ ॥ जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदयमें हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्यका भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है ॥ ८ ॥ जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है ॥ ९ ॥ जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और पूजन करना कर्तव्य है—इस बुद्धिसे मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है ॥ १० ॥ 

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मंगलवार, 8 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

देवहूतिरुवाच –

लक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
स्वरूपं लक्ष्यतेऽमीषां येन तत्पारमार्थिकम् ॥ १ ॥
यथा साङ्ख्येषु कथितं यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।
भक्तियोगस्य मे मार्गं ब्रूहि विस्तरशः प्रभो ॥ २ ॥
विरागो येन पुरुषो भगवन् सर्वतो भवेत् ।
आचक्ष्व जीवलोकस्य विविधा मम संसृतीः ॥ ३ ॥
कालस्येश्वररूपस्य परेषां च परस्य ते ।
स्वरूपं बत कुर्वन्ति यद्धेतोः कुशलं जनाः ॥ ४ ॥
लोकस्य मिथ्याभिमतेरचक्षुषः
     चिरं प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।
श्रान्तस्य कर्मस्वनुविद्धया धिया
     त्वमाविरासीः किल योगभास्करः ॥ ५ ॥

देवहूति ने पूछा—प्रभो ! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोगको ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोगका मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १-२ ॥ इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी वर्णन कीजिये; जिनके सुननेसे जीव को सब प्रकारकी वस्तुओंसे वैराग्य होता है ॥ ३ ॥ जिसके भयसे लोग शुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादिका भी शासन करनेवाला है, उस सर्वसमर्थ कालका स्वरूप भी आप मुझसे कहिये ॥ ४ ॥ ज्ञानदृष्टिके लुप्त हो जानेके कारण देहादि मिथ्या वस्तुओंमें जिन्हें आत्माभिमान हो गया है तथा बुद्धिके कर्मासक्त रहनेके कारण अत्यन्त श्रमित होकर जो चिरकालसे अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥

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सोमवार, 7 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

अष्टाङ्गयोग की विधि

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षेतान् अन्यभावेन भूतेष्विव तदात्मताम् ॥ ४२ ॥
स्वयोनिषु यथा ज्योतिः एकं नाना प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात् तथात्मा प्रकृतौ स्थितः ॥ ४३ ॥
तस्माद् इमां स्वां प्रकृतिं दैवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥ ४४ ॥

जिस प्रकार देहदृष्टिसे जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज—चारों प्रकारके प्राणी पञ्चभूतमात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण जीवोंको अनन्यभावसे अनुगत देखे ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक्-पृथक् आश्रयोंमें उनकी विभिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न आकारका दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरोंमें रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयोंके गुण-भेदके कारण भिन्न-भिन्न प्रकारका भासता है ॥ ४३ ॥ अत: भगवान्‌का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारणरूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान्‌ की इस अचिन्त्य शक्तिमयी मायाको भगवान्‌ की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप—ब्रह्मरूप में स्थित होता है ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 6 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथङ्‌मर्त्यः प्रतीयते ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् देहादेः पुरुषस्तथा ॥ ३९ ॥
यथोल्मुकाद् विस्फुलिङ्गाद् धूमाद्वापि स्वसम्भवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद् यथाग्निः पृथगुल्मुकात् ॥ ४० ॥
भूतेन्द्रियान्तःकरणात् प्रधानात् जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्द्रष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥ ४१ ॥

जिस प्रकार अत्यन्त स्नेहके कारण पुत्र और धनादि में भी साधारण जीवोंकी आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करनेसे ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादिसे भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है ॥ ३९ ॥ जिस प्रकार जलती हुई लकड़ीसे, चिनगारी से, स्वयं अग्नि से ही प्रकट हुए धूएँ से तथा अग्निरूप मानी जानेवाली उस जलती हुई लकड़ी से भी अग्नि वास्तव में पृथक् ही है—उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और अन्त:करण से उनका साक्षी आत्मा अलग है, तथा जीव कहलाने वाले उस आत्मा से भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृति से उसके सञ्चालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं ॥ ४०-४१ ॥ 

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शनिवार, 5 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

अष्टाङ्गयोग की विधि

देहं च तं न चरमः स्थितमुत्थितं वा
     सिद्धो विपश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं
     वासो यथा परिकृतं मदिरामदान्धः ॥ ३७ ॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म यावत्
     स्वारम्भकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपञ्चमधिरूढसमाधियोगः
     स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥ ३८ ॥

जिस प्रकार मदिराके मदसे मतवाले पुरुषको अपनी कमरपर लपेटे हुए वस्त्रके रहने या गिरनेकी कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्थाको प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषको भी अपनी देहके बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आनेके विषयमें कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमय स्वरूपमें स्थित है ॥ ३७ ॥ उसका शरीर तो पूर्वजन्मके संस्कारोंके अधीन है; अत: जबतक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है तबतक वह इन्द्रियोंके सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योगकी स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्वको भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र-कलत्रादिके सहित इस शरीरको स्वप्नमें प्रतीत होनेवाले शरीरोंके समान फिर स्वीकार नहीं करता—फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता ॥ ३८ ॥

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शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

अष्टाङ्गयोग की विधि

मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं विरक्तं
     निर्वाणमृच्छति मनः सहसा यथार्चिः ।
आत्मानमत्र पुरुषोऽव्यवधानमेकम्
     अन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवाहः ॥ ३५ ॥
सोऽप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्या
     तस्मिन् महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाह्ये ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्
     स्वात्मन्विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ठः ॥ ३६ ॥

जैसे तेल आदि के चुक जाने पर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्व में लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और राग से रहित होकर मन शान्त— ब्रह्माकार हो जाता है । इस अवस्था के प्राप्त होने पर जीव गुणप्रवाहरूप देहादि उपाधि के  निवृत्त हो जाने के कारण ध्याता, ध्येय  आदि विभाग से रहित एक अखण्ड परमात्मा को ही सर्वत्र अनुगत देखता है  ॥ ३५ ॥ योगाभ्यास  से प्राप्त हुई चित्त की इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्ति से अपनी सुख-दु:ख-रहित ब्रह्मरूप  महिमा में  स्थित होकर  परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार कर लेने पर वह योगी जिस सुख-दु:ख के भोक्तृत्व को पहले अज्ञानवश  अपने  स्वरूप में देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहंकार में ही देखता है     ॥ ३६॥ 

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गुरुवार, 3 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

अष्टाङ्गयोग की विधि

ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ
     भासारुणायिततनुद्विजकुन्दपङ्‌क्ति ।
ध्यायेत्स्वदेहकुहरेऽवसितस्य विष्णोः
     भक्त्यार्द्रयार्पितमना न पृथग्दिदृक्षेत् ॥ ३३ ॥
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो
     भक्त्या द्रवद्‌धृदय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कण्ठ्यबाष्पकलया मुहुरर्द्यमानः
     तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते ॥ ३४ ॥

अत्यन्त प्रेमार्द्रभावसे अपने हृदयमें विराजमान श्रीहरिके खिलखिलाकर हँसनेका ध्यान करे, जो वस्तुत: ध्यानके ही योग्य है तथा जिसमें ऊपर और नीचेके दोनों होठोंकी अत्यधिक अरुण कान्तिके कारण उनके कुन्दकली के समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतों पर लालिमा-सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यान में तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थ को देखने की इच्छा न करे ॥ ३३ ॥
इस प्रकारके ध्यानके अभ्याससे साधकका श्रीहरिमें प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्तिसे द्रवित हो जाता है, शरीरमें आनन्दातिरेकके कारण रोमाञ्च होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रुओंकी धारामें वह बारंबार अपने शरीरको नहलाता है और फिर मछली पकडऩेके काँटेके समान श्रीहरिको अपनी ओर आकर्षित करनेके साधनरूप अपने चित्तको भी धीरे-धीरे ध्येय वस्तुसे हटा लेता है ॥ ३४ ॥ 

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बुधवार, 2 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

अष्टाङ्गयोग की विधि

यच्छ्रीनिकेतमलिभिः परिसेव्यमानं
     भूत्या स्वया कुटिलकुन्तलवृन्दजुष्टम् ।
मीनद्वयाश्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रं
     ध्यायेन् मनोमयमतन्द्रित उल्लसद्भ्रु् ॥ ३० ॥
तस्यावलोकमधिकं कृपयातिघोर
     तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णोः ।
स्निग्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादं
     ध्यायेच्चिरं विपुलभावनया गुहायाम् ॥ ३१ ॥
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र
     शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य
     भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥ ३२ ॥

कालीकाली घुँघराली अलकावलीसे मण्डित भगवान्‌का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरों से सेवित कमलकोशका भी तिरस्कार कर रहा है और उसके कमलसदृश विशाल एवं चञ्चल नेत्र उस कमलकोशपर उछलते हुए मछलियोंके जोड़ेकी शोभाको मात कर रहे हैं। उन्नत भ्रूलताओंसे सुशोभित भगवान्‌के ऐसे मनोहर मुखारविन्दकी मनमें धारणा करके आलस्यरहित हो उसीका ध्यान करे ॥ ३० ॥ हृदयगुहा में चिरकालतक भक्तिभाव से भगवान्‌के नेत्रोंकी चितवनका ध्यान करना चाहिये, जो कृपासे और प्रेमभरी मुसकानसे क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, विपुल प्रसादकी वर्षा करती रहती है और भक्तजनोंके अत्यन्त घोर तीनों तापोंको शान्त करनेके लिये ही प्रकट हुई है ॥ ३१ ॥ श्रीहरि का हास्य प्रणतजनों के तीव्र-से-तीव्र शोक के अश्रुसागर को सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियोंके हितके लिये कामदेवको मोहित करनेके लिये ही अपनी मायासे श्रीहरिने अपने भ्रूमण्डलको बनाया है—उनका ध्यान करना चाहिये ॥ ३२ ॥ 

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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

अष्टाङ्गयोग की विधि

बाहूंश्च मन्दरगिरेः परिवर्तनेन
     निर्णिक्तबाहुवलयान् अधिलोकपालान् ।
सञ्चिन्तयेद् दशशतारमसह्यतेजः
     शङ्खं च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥ २७ ॥
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेत
     दिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टां
     चैत्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कण्ठे ॥ २८ ॥
भृत्यानुकम्पितधियेह गृहीतमूर्तेः
     सञ्चिन्तयेद् भगवतो वदनारविन्दम् ।
यद्विस्फुरन् मकरकुण्डलवल्गितेन ।
     विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥ २९ ॥

समस्त लोकपालोंकी आश्रयभूता भगवान्‌की चारों भुजाओंका ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कङ्कणादि आभूषण समुद्रमन्थनके समय मन्दराचलकी रगड़से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेजको सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारोंवाले सुदर्शनचक्रका तथा उनके कर-कमलमें राजहंसके समान विराजमान शङ्खका चिन्तन करे ॥ २७ ॥ फिर विपक्षी वीरोंके रुधिरसे सनी हुई प्रभुकी प्यारी कौमोद की गदा का, भौंरों के शब्द से गुञ्जायमान वनमाला का और उनके कण्ठ में सुशोभित सम्पूर्ण जीवोंके निर्मलतत्त्वरूप कौस्तुभमणिका ध्यान करे [*] ॥ २८ ॥ भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही यहाँ साकाररूप धारण करनेवाले श्रीहरिके मुखकमलका ध्यान करे, जो सुघड़ नासिकासे सुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृति कुण्डलोंके हिलनेसे अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलोंके कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है ॥ २९ ॥
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[*] ‘आत्मानमस्य जगतो निर्लेपमगुणामलम् । बिभर्ति कौस्तुभमङ्क्षण स्वरूपं भगवान्‌ हरि: ।।’ अर्थात् इस जगत् की  निर्लेप, निर्गुण, निर्मल तथा स्वरूपभूत आत्माको कौस्तुभमणिके रूपमें भगवान्‌ धारण करते हैं।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

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