॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०३)
स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन
विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥ १६ ॥
मैत्रेय उवाच -
ब्रह्मणा चोदितः सृष्टौ अत्रिर्ब्रह्मविदां वरः ।
सह पत्न्याो ययावृक्षं कुलाद्रिं तपसि स्थितः ॥ १७ ॥
तस्मिन् प्रसूनस्तबक पलाशाशोककानने ।
वार्भिः स्रवद्भिरुद्घुेष्टे निर्विन्ध्यायाः समन्ततः ॥ १८ ॥
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनिः ।
अतिष्ठत् एकपादेन निर्द्वन्द्वोऽनिलभोजनः ॥ १९ ॥
शरणं तं प्रपद्येऽहं य एव जगदीश्वरः ।
प्रजां आत्मसमां मह्यं प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥ २० ॥
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्नः समीक्ष्य प्रभवस्त्रयः ॥ २१ ॥
अप्सरोमुनिगन्धर्व सिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसः तदा आश्रमपदं ययुः ॥ २२ ॥
विदुरजीने पूछा—गुरुजी ! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रिमुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था ? ॥१६॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—जब ब्रह्माजीने ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये ॥ १७ ॥ वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ १८ ॥ उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमें करके सौ वर्षतक केवल वायु पीकर सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े रहे ॥ १९ ॥ उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरणमें हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें’ ॥ २० ॥ तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी र्ईंधनसे प्रज्वलित हुआ अत्रिमुनिका तेज उनके मस्तकसे निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है—ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग—उनका सुयश गा रहे थे ॥ २१-२२ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
🌹💟🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः जय हो त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु महेश
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