गुरुवार, 18 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - सातवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दक्षयज्ञकी पूर्ति

मैत्रेय उवाच -
क्षमाप्यैवं स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमंत्रितः ।
कर्म सन्तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभिः ॥ १६ ॥
वैष्णवं यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः ।
पुरोडाशं निरवपन् वीरसंसर्गशुद्धये ॥ १७ ॥
अध्वर्युणाऽऽत्त हविषा यजमानो विशाम्पते ।
धिया विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूत् हरिः ॥ १८ ॥
तदा स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।
मुष्णन् तेज उपानीतः तार्क्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥ १९ ॥
श्यामो हिरण्यरशनोऽर्ककिरीटजुष्टो
     नीलालक भ्रमरमण्डितकुण्डलास्यः ।
शङ्‌खाब्जचक्रशरचापगदासिचर्म
     व्यग्रैर्हिरण्मयभुजैः इव कर्णिकारः ॥ २० ॥
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार
     हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् ।
पार्श्वभ्रमद्व्यजन चामरराजहंसः
     श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमानः ॥ २१ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—आशुतोष शङ्कर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्माजीके कहनेपर उपाध्याय, ऋत्विज् आदिकी सहायतासे यज्ञकार्य आरम्भ किया ॥ १६ ॥ तब ब्राह्मणोंने यज्ञ सम्पन्न करनेके उद्देश्यसे रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचोंके संसर्गजनित दोषकी शान्तिके लिये तीन पात्रोंमें विष्णुभगवान्‌ के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नामक चरु का हवन किया ॥ १७ ॥ विदुरजी ! उस हविको हाथमें लेकर खड़े हुए अध्वर्युके साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्तसे श्रीहरिका ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान्‌ वहाँ प्रकट हो गये ॥ १८ ॥ ‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, उन गरुडजीके द्वारा समीप लाये हुए भगवान्‌ ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्ति से सब देवताओं का तेज हर लिया—उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी ॥ १९ ॥ उनका श्याम वर्ण था, कमरमें सुवर्णकी करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिरपर सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरोंके समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलोंसे शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तोंकी रक्षाके लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओंमें वे शङ्ख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधोंके कारण वे फूले हुए कनेर के वृक्षके समान जान पड़ते थे ॥ २० ॥ प्रभुके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्षसे सारे संसारको आनन्द- मग्र कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंसके समान सफेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान्‌के मस्तकपर चन्द्रमाके समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 💐💖🥀💐जय श्री हरि: !!
    ॐ श्रीपरमात्मने नमः
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    हरि शरणम् 🙏🙏

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