॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
ध्रुवका वन-गमन
पद्भ्यां नखमणिश्रेण्या विलसद्भ्यांय समर्चताम् ।
हृत्पद्मकर्णिकाधिष्ण्यं आक्रम्यात् मन्यवस्थितम् ॥ ५० ॥
स्मयमानं अभिध्यायेत् सानुरागावलोकनम् ।
नियतेनैकभूतेन मनसा वरदर्षभम् ॥ ५१ ॥
एवं भगवतो रूपं सुभद्रं ध्यायतो मनः ।
निर्वृत्या परया तूर्णं सम्पन्नं न निवर्तते ॥ ५२ ॥
जपश्च परमो गुह्यः श्रूयतां मे नृपात्मज ।
यं सप्तरात्रं प्रपठन् पुमान् पश्यति खेचरान् ॥ ५३ ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
मन्त्रेणानेन देवस्य कुर्याद् द्रव्यमयीं बुधः ।
सपर्यां विविधैर्द्रव्यैः देशकालविभागवित् ॥ ५४ ॥
सलिलैः शुचिभिर्माल्यैः वन्यैर्मूलफलादिभिः ।
शस्ताङ्कुरांशुकैश्चार्चेत् तुलस्या प्रियया प्रभुम् ॥ ५५ ॥
लब्ध्वा द्रव्यमयीमर्चां क्षित्यम्ब्वादिषु वार्चयेत् ।
आभृतात्मा मुनिः शान्तो यतवाङ्मितवन्यभुक् ॥ ५६ ॥
स्वेच्छावतारचरितैः अचिन्त्यनिजमायया ।
करिष्यति उत्तमश्लोकः तद् ध्यायेद् हृदयङ्गमम् ॥ ५७ ॥
परिचर्या भगवतो यावत्यः पूर्वसेविताः ।
ता मंत्रहृदयेनैव प्रयुञ्ज्यान् मंत्रमूर्तये ॥ ५८ ॥
(श्रीनारदजी,ध्रुव से कह रहे हैं कि) जो लोग प्रभुका मानस-पूजन करते हैं, उनके अन्त:करणमें वे हृदयकमलकी कर्णिका पर अपने नख-मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दोंको स्थापित करके विराजते हैं ॥ ५० ॥ इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाय, तब उन वरदायक प्रभुका मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वे मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टिसे निहारते हुए मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं ॥ ५१ ॥ भगवान्की मङ्गलमयी मूर्तिका इस प्रकार निरन्तर ध्यान करनेसे मन शीघ्र ही परमानन्दमें डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहाँसे लौटता नहीं ॥ ५२ ॥
राजकुमार ! इस ध्यानके साथ जिस परम गुह्य मन्त्रका जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ—सुन। इसका सात रात जप करनेसे मनुष्य आकाशमें विचरनेवाले सिद्धोंका दर्शन कर सकता है ॥ ५३ ॥ वह मन्त्र है—‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’। किस देश और किस कालमें कौन वस्तु उपयोगी है—इसका विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको इस मन्त्रके द्वारा तरह-तरहकी सामग्रियोंसे भगवान्की द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ प्रभुका पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली मूल और फलादि, पूजामें विहित दूर्वादि अङ्कुर, वनमें ही प्राप्त होनेवाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसीसे करना चाहिये ॥ ५५ ॥ यदि शिला आदिकी मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदिमें ही भगवान्की पूजा करे। सर्वदा संयतचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फल-मूलादिका परिमित आहार करे ॥ ५६ ॥ इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया मायाके द्वारा अपनी ही इच्छासे अवतार लेकर जो-जो मनोहर चरित्र करनेवाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे ॥ ५७ ॥ प्रभुकी पूजाके लिये जिन-जिन उपचारोंका विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरिको द्वादशाक्षर मन्त्रके द्वारा ही अर्पण करे ॥ ५८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💟🥀 जय श्रीहरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
नारायण नारायण नारायण नारायण