बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौदहवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

राजा वेन की कथा

एकदा मुनयस्ते तु सरस्वत् सलिलाप्लुताः ।
हुत्वाग्नीन् सत्कथाश्चक्रुः उपविष्टाः सरित्तटे ॥ ३६ ॥
वीक्ष्योत्थितान् तदोत्पातान् आहुर्लोक भयङ्‌करान् ।
अप्यभद्रमनाथाया दस्युभ्यो न भवेद्‌भुवः ॥ ३७ ॥
एवं मृशन्त ऋषयो धावतां सर्वतोदिशम् ।
पांसुः समुत्थितो भूरिः चोराणामभिलुम्पताम् ॥ ३८ ॥
तदुपद्रवमाज्ञाय लोकस्य वसु लुम्पताम् ।
भर्तर्युपरते तस्मिन् अन्योन्यं च जिघांसताम् ॥ ३९ ॥
चोरप्रायं जनपदं हीनसत्त्वमराजकम् ।
लोकान् आवारयञ्छक्ता अपि तद्दोषदर्शिनः ॥ ४० ॥
ब्राह्मणः समदृक् शान्तो दीनानां समुपेक्षकः ।
स्रवते ब्रह्म तस्यापि भिन्नभाण्डात्पयो यथा ॥ ४१ ॥
नाङ्‌गस्य वंशो राजर्षेः एष संस्थातुमर्हति ।
अमोघवीर्या हि नृपा वंशेऽस्मिन् केशवाश्रयाः ॥ ४२ ॥
विनिश्चित्यैवमृषयो विपन्नस्य महीपतेः ।
ममन्थुरूरुं तरसा तत्रासीद्बा हुको नरः ॥ ४३ ॥
काककृष्णोऽतिह्रस्वाङ्‌गो ह्रस्वबाहुर्महाहनुः ।
ह्रस्वपान् निम्ननासाग्रो रक्ताक्षस्ताम्रमूर्धजः ॥ ४४ ॥
तं तु तेऽवनतं दीनं किं करोमीति वादिनम् ।
निषीदेत्यब्रुवंस्तात स निषादस्ततोऽभवत् ॥ ४५ ॥
तस्य वंश्यास्तु नैषादा गिरिकाननगोचराः ।
येनाहरत् जायमानो वेनकल्मषमुल्बणम् ॥ ४६ ॥

एक दिन वे मुनिगण सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नान कर अग्निहोत्र से निवृत्त हो नदीके तीरपर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे थे ॥ ३६ ॥ उन दिनों लोकोंमें आतंक फैलानेवाले बहुतसे उपद्रव होते देखकर वे आपसमें कहने लगे, ‘आजकल पृथ्वीका कोई रक्षक नहीं है; इसलिये चोर-डाकुओंके कारण उसका कुछ अमङ्गल तो नहीं होनेवाला है ?’ ॥ ३७ ॥ ऋषिलोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओंमें धावा करनेवाले चोरों और डाकुओंके कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी ॥ ३८ ॥ देखते ही वे समझ गये कि राजा वेनके मर जानेके कारण देशमें अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन हो गया है और चोर-डाकू बढ़ गये हैं; यह सारा उपद्रव लोगोंका धन लूटनेवाले तथा एक-दूसरेके खूनके प्यासे लुटेरोंका ही है। अपने तेजसे अथवा तपोबलसे लोगोंको ऐसी कुप्रवृत्तिसे रोकनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा करनेमें हिंसादि दोष देखकर उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया ॥ ३९-४० ॥ फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और शान्तस्वभाव भी हो तो भी दीनोंकी उपेक्षा करनेसे उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे फूटे हुए घड़े में से जल बह जाता है ॥ ४१ ॥ फिर राजर्षि अङ्ग का वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ-शक्ति और भगवत्परायण राजा हो चुके हैं’ ॥ ४२ ॥ ऐसा निश्चय कर उन्होंने मृत राजाकी जाँघ को बड़ेजोरसे मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ ॥ ४३ ॥ वह कौए के समान काला था; उसके सभी अङ्ग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगें छोटी, नाक चपटी, नेत्र लाल और केश ताँबे के-से रंगके थे ॥ ४४ ॥ उसने बड़ी दीनता और नम्रभाव से पूछा कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तो ऋषियोंने कहा—‘निषीद (बैठ जा)।’ इसीसे वह ‘निषाद’ कहलाया ॥ ४५ ॥ उसने जन्म लेते ही राजा वेनके भयङ्कर पापोंको अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नैषाद भी हिंसा, लूटपाट आदि पापकर्मोंमें रत रहते हैं; अत: वे गाँव और नगरमें न टिक कर वन और पर्वतोंमें ही निवास करते हैं ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे पृथुचरिते निषादोत्पत्तिर्नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🪷💐🪷जय श्री हरि: !!🙏
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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