रविवार, 26 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बीसवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रेयः प्रजापालनमेव राज्ञो
     यत्साम्पराये सुकृतात् षष्ठमंशम् ।
हर्तान्यथा हृतपुण्यः प्रजानां
     अरक्षिता करहारोऽघमत्ति ॥ १४ ॥
एवं द्विजाग्र्यानुमतानुवृत्त
     धर्मप्रधानोऽन्यतमोऽवितास्याः ।
ह्रस्वेन कालेन गृहोपयातान्
     द्रष्टासि सिद्धाननुरक्तलोकः ॥ १५ ॥
वरं च मत् कञ्चन मानवेन्द्र
     वृणीष्व तेऽहं गुणशीलयन्त्रितः ।
नाहं मखैर्वै सुलभस्तपोभिः
     योगेन वा यत्समचित्तवर्ती ॥ १६ ॥

मैत्रेय उवाच -
स इत्थं लोकगुरुणा विष्वक्सेनेन विश्वजित् ।
अनुशासित आदेशं शिरसा जगृहे हरेः ॥ १७ ॥
स्पृशन्तं पादयोः प्रेम्णा व्रीडितं स्वेन कर्मणा ।
शतक्रतुं परिष्वज्य विद्वेषं विससर्ज ह ॥ १८ ॥
भगवानथ विश्वात्मा पृथुनोपहृतार्हणः ।
समुज्जिहानया भक्त्या गृहीतचरणाम्बुजः ॥ १९ ॥
प्रस्थानाभिमुखोऽप्येनं अनुग्रहविलम्बितः ।
पश्यन् पद्मपलाशाक्षो न प्रतस्थे सुहृत्सताम् ॥ २० ॥
स आदिराजो रचिताञ्जलिर्हरिं
     विलोकितुं नाशकदश्रुलोचनः ।
न किञ्चनोवाच स बाष्पविक्लवो
     हृदोपगुह्यामुमधादवस्थितः ॥ २१ ॥
अथावमृज्याश्रुकला विलोकयन्
     अतृप्तदृग्गोचरमाह पूरुषम् ।
पदा स्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नते
     विन्यस्तहस्ताग्रमुरङ्‌गविद्विषः ॥ २२ ॥

राजाका कल्याण प्रजापालनमें ही है। इससे उसे परलोकमें प्रजाके पुण्यका छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजाकी रक्षा तो नहीं करता; ङ्क्षकतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदलेमें उसे प्रजाके पापका भागी होना पड़ता है ॥ १४ ॥ ऐसा विचारकर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सम्मति और पूर्व परम्परासे प्राप्त हुए धर्मको ही मुख्यत: अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वीका न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनोंमें तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धोंके दर्शन होंगे ॥ १५ ॥ राजन् ! तुम्हारे गुणोंने और स्वभावने मुझको वशमें कर लिया है। अत: तुम्हें जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणोंसे रहित यज्ञ, तप अथवा योगके द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्हींके हृदयमें रहता हूँ जिनके चित्तमें समता रहती है ॥ १६ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! सर्वलोकगुरु श्रीहरिके इस प्रकार कहनेपर जगद्विजयी महाराज पृथुने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की ॥ १७ ॥ देवराज इन्द्र अपने कर्मसे लज्जित होकर उनके चरणोंपर गिरना ही चाहते थे कि राजाने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदयसे लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया ॥ १८ ॥ फिर महाराज पृथुने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान्‌का पूजन किया और क्षण-क्षणमें उमड़ते हुए भक्तिभावमें निमग्र होकर प्रभुके चरणकमल पकड़ लिये ॥ १९ ॥ श्रीहरि वहाँसे जाना चाहते थे; किन्तु पृथुके प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदलके समान नेत्रोंसे उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँसे जा न सके ॥ २० ॥ आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रोंमें जल भर आनेके कारण न तो भगवान्‌का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जानेसे कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदयसे आलिङ्गन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये ॥ २१ ॥ प्रभु अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीको स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुडजीके ऊँचे कंधेपर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रोंके आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टिसे उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. जय हो भक्तवत्सल करुणानिधान
    शरणागत वत्सल जगतपति जगन्नाथ श्री हरि: !!
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!!

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