रविवार, 26 अक्टूबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बीसवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

पृथुरुवाच –

वरान् विभो त्वद्वरदेश्वराद्बुलधः
     कथं वृणीते गुणविक्रियात्मनाम् ।
ये नारकाणामपि सन्ति देहिनां
     तानीश कैवल्यपते वृणे न च ॥ २३ ॥
न कामये नाथ तदप्यहं क्वचित्
     न यत्र युष्मत् चरणाम्बुजासवः ।
महत्तमान्तर्हृदयान्मुखच्युतो
     विधत्स्व कर्णायुतमेष मे वरः ॥ २४ ॥
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो
     भवत्पदाम्भोजसुधा कणानिलः ।
स्मृतिं पुनर्विस्मृततत्त्ववर्त्मनां
     कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ॥ २५ ॥
यशः शिवं सुश्रव आर्यसङ्‌गमे
     यदृच्छया चोपशृणोति ते सकृत् ।
कथं गुणज्ञो विरमेद्विना पशुं
     श्रीर्यत्प्रवव्रे गुणसङ्‌ग्रहेच्छया ॥ २६ ॥
अथाभजे त्वाखिलपूरुषोत्तमं
     गुणालयं पद्मकरेव लालसः ।
अप्यावयोरेकपतिस्पृधोः कलिः
     न स्यात्कृतत्वच्चरणैकतानयोः ॥ २७ ॥
जगज्जनन्यां जगदीश वैशसं
     स्यादेव यत्कर्मणि नः समीहितम् ।
करोषि फल्ग्वप्युरु दीनवत्सलः
     स्व एव धिष्ण्येऽभिरतस्य किं तया ॥ २८ ॥
भजन्त्यथ त्वामत एव साधवो
     व्युदस्तमायागुणविभ्रमोदयम् ।
भवत्पदानुस्मरणादृते सतां
     निमित्तमन्यद्भागवन्न विद्महे ॥ २९ ॥
मन्ये गिरं ते जगतां विमोहिनीं वरं
     वृणीष्वेति भजन्तमात्थ यत् ।
वाचा नु तन्त्या यदि ते जनोऽसितः
     कथं पुनः कर्म करोति मोहितः ॥ ३० ॥
त्वन्माययाद्धा जन ईश खण्डितो
     यदन्यदाशास्त ऋतात्मनोऽबुधः ।
यथा चरेद्बा्लहितं पिता स्वयं
     तथा त्वमेवार्हसि नः समीहितुम् ॥ ३१ ॥

महाराज पृथु बोले—मोक्षपति प्रभो ! आप वर देनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको भी वर देनेमें समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियोंके भोगने योग्य विषयोंको कैसे माँग सकता है ? वे तो नारकी जीवोंको भी मिलते ही हैं। अत: मैं इन तुच्छ विषयोंको आपसे नहीं माँगता ॥ २३ ॥ मुझे तो उस मोक्षपदकी भी इच्छा नहीं है जिसमें महापुरुषोंके हृदयसे उनके मुखद्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलोंका मकरन्द नहीं है—जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुननेका सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलागुणोंको सुनता ही रहूँ ॥ २४ ॥ पुण्यकीर्ति प्रभो ! आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणोंको लेकर महापुरुषोंके मुखसे जो वायु निकलती है, उसीमें इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्वको भूले हुए हम कुयोगियोंको पुन: तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरोंकी कोई आवश्यकता नहीं है ॥ २५ ॥ उत्तम कीर्तिवाले प्रभो ! सत्सङ्गमें आपके मङ्गलमय सुयशको दैववश एक बार भी सुन लेनेपर कोई पशुबुद्धि पुरुष भले ही तृप्त हो जाय; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता है ? सब प्रकारके पुरुषार्थोंकी सिद्धिके लिये स्वयं लक्ष्मीजी भी आपके सुयशको सुनना चाहती हैं ॥ २६ ॥ अब लक्ष्मीजीके समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकतासे आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तमकी सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पतिकी सेवा प्राप्त करनेकी होड़ होनेके कारण आपके चरणोंमें ही मनको एकाग्र करनेवाले हम दोनोंमें कलह छिड़ जाय ॥ २७ ॥ जगदीश्वर ! जगज्जननी लक्ष्मीजीके हृदयमें मेरे प्रति विरोधभाव होनेकी संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्यमें उनका अनुराग है, उसीके लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनोंपर दया करते हैं, उनके तुच्छ कर्मोंको भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे झगड़ेमें भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मीजीसे भी क्या लेना है ॥ २८ ॥ इसीसे निष्काम महात्मा ज्ञान हो जानेके बाद भी आपका भजन करते हैं। आपमें मायाके कार्य अहंकारादिका सर्वथा अभाव है। भगवन् ! मुझे तो आपके चरणकमलोंका निरन्तर चिन्तन करनेके सिवा सत्पुरुषोंका कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता ॥ २९ ॥ मैं भी बिना किसी इच्छाके आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस वाणीको तो मैं संसारको मोहमें डालनेवाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणीने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सीसे लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते ? ॥ ३० ॥ प्रभो ! आपकी मायासे ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादिकी इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्रकी प्रार्थनाकी अपेक्षा न रखकर अपने आप ही पुत्रका कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छाकी अपेक्षा न करके हमारे हितके लिये स्वयं ही प्रयत्न करें ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀 जय श्री हरि: !!🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    हरि हरये नमः कृष्ण माधवाय नमः
    गोपाल गोविंद राम श्री मधुसूदन:
    नारायण नारायण हरि: !! हरि: !!

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