॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश
मैत्रेय उवाच –
जनेषु प्रगृणत्स्वेवं पृथुं पृथुलविक्रमम् ।
तत्रोपजग्मुर्मुनयः चत्वारः सूर्यवर्चसः ॥ १ ॥
तांस्तु सिद्धेश्वरान् राजा व्योम्नोऽवतरतोऽर्चिषा ।
लोकानपापान् कुर्वत्या सानुगोऽचष्ट लक्षितान् ॥ २ ॥
तद्दर्शनोद्गकतान् प्राणान् प्रत्यादित्सुरिवोत्थितः ।
ससदस्यानुगो वैन्य इन्द्रियेशो गुणानिव ॥ ३ ॥
गौरवाद्यन्त्रितः सभ्यः प्रश्रयानतकन्धरः ।
विधिवत्पूजयां चक्रे गृहीताध्यर्हणासनान् ॥ ४ ॥
तत्पादशौचसलिलैः आर्जितालकबन्धनः ।
तत्र शीलवतां वृत्तं आचरन् मानयन्निव ॥ ५ ॥
हाटकासन आसीनान् स्वधिष्ण्येष्विव पावकान् ।
श्रद्धासंयमसंयुक्तः प्रीतः प्राह भवाग्रजान् ॥ ॥ ६ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथुकी इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्यके समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये ॥ १ ॥ राजा और उनके अनुचरोंने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्तिसे सम्पूर्ण लोकोंको पापनिर्मुक्त करते हुए आकाशसे उतरकर आ रहे हैं ॥ २ ॥ राजाके प्राण सनकादिकोंका दर्शन करते ही, जैसे विषयीजीव विषयोंकी ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े—मानो उन्हें रोकनेके लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियोंके साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये ॥ ३ ॥ जब वे मुनिगण अर्घ्य स्वीकारकर आसनपर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथुने उनके गौरवसे प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की ॥ ४ ॥ फिर उनके चरणोदकको अपने सिरके बालोंपर छिडक़ा। इस प्रकार शिष्टजनोचित आचारका आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषोंको ऐसा व्यवहार करना चाहिये ॥ ५ ॥ सनकादि मुनीश्वर भगवान् शङ्कर के भी अग्रज हैं। सोनेके सिंहासनपर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानोंपर अग्नि देवता। महाराज पृथुने बड़ी श्रद्धा और संयमके साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा ॥ ६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
🌺💖🥀 जय श्री हरि: !!🙏
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