॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वन्दीजन द्वारा महाराज पृथुकी स्तुति
दुरासदो दुर्विषह आसन्नोऽपि विदूरवत् ।
नैवाभिभवितुं शक्यो वेनारण्युत्थितोऽनलः ॥ ११ ॥
अन्तर्बहिश्च भूतानां पश्यन् कर्माणि चारणैः ।
उदासीन इवाध्यक्षो वायुरात्मेव देहिनाम् ॥ १२ ॥
नादण्ड्यं दण्डयत्येष सुतमात्मद्विषामपि ।
दण्डयत्यात्मजमपि दण्ड्यं धर्मपथे स्थितः ॥ १३ ॥
अस्याप्रतिहतं चक्रं पृथोरामानसाचलात् ।
वर्तते भगवानर्को यावत्तपति गोगणैः ॥ १४ ॥
रञ्जयिष्यति यल्लोकं अयं आत्मविचेष्टितैः ।
अथ अमुं आहू राजानं मनोरञ्जनकैः प्रजाः ॥ १५ ॥
दृढव्रतः सत्यसन्धो ब्रह्मण्यो वृद्धसेवकः ।
शरण्यः सर्वभूतानां मानदो दीनवत्सलः ॥ १६ ॥
मातृभक्तिः परस्त्रीषु पत्न्या मर्ध इवात्मनः ।
प्रजासु पितृवत् स्निग्धः किङ्करो ब्रह्मवादिनाम् ॥ १७ ॥
देहिनां आत्मवत्प्रेष्ठः सुहृदां नन्दिवर्धनः ।
मुक्तसङ्गप्रसङ्गोऽयं दण्डपाणिः असाधुषु ॥ १८ ॥
‘महाराज पृथु वेनरूप अरणि के मन्थन से प्रकट हुए अग्नि के समान हैं। शत्रुओंके लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और दु:सह होंगे। ये उनके समीप रहनेपर भी, सेनादिसे सुरक्षित रहनेके कारण, बहुत दूर रहनेवाले-से होंगे। शत्रु कभी इन्हें हरा न सकेंगे ॥ ११ ॥ जिस प्रकार प्राणियोंके भीतर रहनेवाला प्राणरूप सूत्रात्मा शरीरके भीतर-बाहरके समस्त व्यापारोंको देखते रहनेपर भी उदासीन रहता है, उसी प्रकार ये गुप्तचरोंके द्वारा प्राणियोंके गुप्त और प्रकट सभी प्रकारके व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और स्तुति आदिके प्रति उदासीनवत् रहेंगे ॥ १२ ॥ ये धर्ममार्गमें स्थित रहकर अपने शत्रुके पुत्रको भी, दण्डनीय न होनेपर, कोई दण्ड न देंगे और दण्डनीय होनेपर तो अपने पुत्रको भी दण्ड देंगे ॥ १३ ॥ भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वततक जितने प्रदेशको अपनी किरणोंसे प्रकाशित करते हैं, उस सम्पूर्ण क्षेत्रमें इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा ॥ १४ ॥ ये अपने कार्योंसे सब लोकोंको सुख पहुँचावेंगे—उनका रञ्जन करेंगे; इससे उन मनोरञ्जनात्मक व्यापारोंके कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी ॥ १५ ॥ ये बड़े दृढ़सङ्कल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मणभक्त, वृद्धोंकी सेवा करनेवाले, शरणागतवत्सल, सब प्राणियोंको मान देनेवाले और दीनोंपर दया करनेवाले होंगे ॥ १६ ॥ ये परस्त्रीमें माताके समान भक्ति रखेंगे, पत्नीको अपने आधे अङ्गके समान मानेंगे, प्रजापर पिताके समान प्रेम रखेंगे और ब्रह्मवादियोंके सेवक होंगे ॥ १७ ॥ दूसरे प्राणी इन्हें उतना ही चाहेंगे जितना अपने शरीरको। ये सुहृदोंके आनन्दको बढ़ायेंगे। ये सर्वदा वैराग्यवान् पुरुषोंसे विशेष प्रेम करेंगे और दुष्टोंको दण्डपाणि यमराजके समान सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहेंगे ॥ १८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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नारायण नारायण नारायण नारायण