शनिवार, 1 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश

भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्चित्तं ज्ञानभ्रंशः स्मृतिक्षये ।
तद्रोधं कवयः प्राहुः आत्मापह्नवमात्मनः ॥ ३१ ॥
नातः परतरो लोके पुंसः स्वार्थव्यतिक्रमः ।
यदध्यन्यस्य प्रेयस्त्वं आत्मनः स्वव्यतिक्रमात् ॥ ३२ ॥
अर्थेन्द्रियार्थाभिध्यानं सर्वार्थापह्नवो नृणाम् ।
भ्रंशितो ज्ञानविज्ञानाद् येनाविशति मुख्यताम् ॥ ३३ ॥
न कुर्यात्कर्हिचित्सङ्‌गं तमस्तीव्रं तितीरिषुः ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां यदत्यन्तविघातकम् ॥ ३४ ॥
तत्रापि मोक्ष एवार्थ आत्यन्तिकतयेष्यते ।
त्रैवर्ग्योऽर्थो यतो नित्यं कृतान्तभयसंयुतः ॥ ३५ ॥
परेऽवरे च ये भावा गुणव्यतिकरादनु ।
न तेषां विद्यते क्षेमं ईशविध्वंसिताशिषाम् ॥ ३ ॥ ६ ॥
तत्त्वं नरेन्द्र जगतामथ तस्थूषां च
     देहेन्द्रियासुधिषणात्मभिरावृतानाम् ।
यः क्षेत्रवित्तपतया हृदि विश्वगाविः
     प्रत्यक् चकास्ति भगवान् तमवेहि सोऽस्मि ॥ ३७ ॥

विचारशक्तिके नष्ट हो जानेपर पूर्वापरकी स्मृति जाती रहती है और स्मृतिका नाश हो जानेपर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञानके नाशको ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं ॥ ३१ ॥ जिसके उद्देश्यसे अन्य सब पदार्थोंमें प्रियताका बोध होता है—उस आत्माका अपनेद्वारा ही नाश होनेसे जो स्वार्थहानि होती है, उससे बढक़र लोकमें जीवकी और कोई हानि नहीं है ॥ ३२ ॥
धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्यके सभी पुरुषार्थोंका नाश करनेवाला है; क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियोंमें जन्म पाता है ॥ ३३ ॥ इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होनेकी इच्छा हो, उस पुरुषको विषयोंमें आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिमें बड़ी बाधक है ॥ ३४ ॥ इन चार पुरुषार्थोंमें भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थोंमें सर्वदा कालका भय लगा रहता है ॥ ३५ ॥ प्रकृतिमें गुणक्षोभ होनेके बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव—पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशलसे रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। कालभगवान्‌ उन सभीके कुशलोंको कुचलते रहते हैं ॥ ३६ ॥
अत: राजन् ! जो श्रीभगवान्‌ देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहंकारसे आवृत सभी स्थावर-जङ्गम प्राणियोंके हृदयोंमें जीवके नियामक अन्तर्यामी आत्मारूपसे सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं—उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ’ ऐसा जानो ॥ ३७ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश

यदा रतिर्ब्रह्मणि नैष्ठिकी पुमान्
     आचार्यवान् ज्ञानविरागरंहसा ।
दहत्यवीर्यं हृदयं जीवकोशं
     पञ्चात्मकं योनिमिवोत्थितोऽग्निः ॥ २६ ॥
दग्धाशयो मुक्तसमस्ततद्गुिणो
     नैवात्मनो बहिरन्तर्विचष्टे ।
परात्मनोर्यद् व्यवधानं पुरस्तात्
     स्वप्ने यथा पुरुषस्तद्विनाशे ॥ २७ ॥
आत्मानमिन्द्रियार्थं च परं यदुभयोरपि ।
सत्याशय उपाधौ वै पुमान् पश्यति नान्यदा ॥ २८ ॥
निमित्ते सति सर्वत्र जलादौ अपि पूरुषः ।
आत्मनश्च परस्यापि भिदां पश्यति नान्यदा ॥ २९ ॥
इन्द्रियैर्विषयाकृष्टैः आक्षिप्तं ध्यायतां मनः ।
चेतनां हरते बुद्धेः स्तम्बस्तोयमिव ह्रदात् ॥ ३० ॥

परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जानेपर पुरुष सद्गुरुकी शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकारके क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिङ्ग-शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ीसे प्रकट होकर फिर उसीको जला डालती है ॥ २६ ॥ इस प्रकार लिङ्ग देहका नाश हो जानेपर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणोंसे मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्थामें तरह-तरहके पदार्थ देखनेपर भी उससे जग पडऩेपर उनमेंसे कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीरके बाहर दिखायी देनेवाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होनेवाले सुख-दु:खादिको भी नहीं देखता। इस स्थितिके प्राप्त होनेसे पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्माके बीचमें रहकर उनका भेद कर रहे थे ॥ २७ ॥
जबतक अन्त:करणरूप उपाधि रहती है, तभीतक पुरुषको जीवात्मा, इन्द्रियोंके विषय और इन दोनोंका सम्बन्ध करानेवाले अहंकारका अनुभव होता है; इसके बाद नहीं ॥ २८ ॥ बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तोंके रहनेपर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्बका भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं ॥ २९ ॥ जो लोग विषयचिन्तनमें लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयोंमें फँस जाती हैं तथा मनको भी उन्हींकी ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशयके तीरपर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ोंसे उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धिकी विचारशक्तिको क्रमश: हर लेता है ॥ ३० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्च...