मंगलवार, 11 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पच्चीसवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

आसीत्पुरञ्जनो नाम राजा राजन् बृहच्छ्रवाः ।
तस्याविज्ञातनामाऽऽसीत् सखाविज्ञातचेष्टितः ॥ १० ॥
सोऽन्वेषमाणः शरणं बभ्राम पृथिवीं प्रभुः ।
नानुरूपं यदाविन्दद् अभूत्स विमना इव ॥ ११ ॥
न साधु मेने ताः सर्वा भूतले यावतीः पुरः ।
कामान् कामयमानोऽसौ तस्य तस्योपपत्तये ॥ १२ ॥
स एकदा हिमवतो दक्षिणेष्वथ सानुषु ।
ददर्श नवभिर्द्वार्भिः पुरं लक्षितलक्षणाम् ॥ १३ ॥
प्राकारोपवनाट्टाल परिखैरक्षतोरणैः ।
स्वर्णरौप्यायसैः शृङ्‌गैः सङ्‌कुलां सर्वतो गृहैः ॥ १४ ॥
नीलस्फटिकवैदूर्य मुक्तामरकतारुणैः ।
कॢप्तहर्म्यस्थलीं दीप्तां श्रिया भोगवतीमिव ॥ १५ ॥
सभाचत्वर रथ्याभिः आक्रीडायतनापणैः ।
चैत्यध्वजपताकाभिः युक्तां विद्रुमवेदिभिः ॥ १६ ॥
पुर्यास्तु बाह्योपवने दिव्यद्रुमलताकुले ।
नदद् विहङ्‌गालिकुल कोलाहलजलाशये ॥ १७ ॥
हिमनिर्झरविप्रुष्मत् कुसुमाकरवायुना ।
चलत्प्रवालविटप नलिनीतटसम्पदि ॥ १८ ॥
नानारण्यमृगव्रातैः अनाबाधे मुनिव्रतैः ।
आहूतं मन्यते पान्थो यत्र कोकिलकूजितैः ॥ १९ ॥

(श्रीनारद जी राजा प्राचीनबर्हि से कहते हैं)  राजन् ! पूर्वकालमें पुरञ्जन नामका एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओंको समझ नहीं सकता था ॥ १० ॥ राजा पुरञ्जन अपने रहनेयोग्य स्थानकी खोजमें सारी पृथ्वीमें घूमा; फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास-सा हो गया ॥ ११ ॥ उसे तरह-तरहके भोगोंकी लालसा थी; उन्हें भोगनेके लिये उसनेसंसारमें जितने नगर देखे, उनमेंसे कोई भी उसे ठीक न जँचा ॥ १२ ॥ एक दिन उसने हिमालयके दक्षिण तटवर्ती शिखरोंपर कर्मभूमि भारतखण्डमें एक नौ द्वारोंका नगर देखा। वह सब प्रकारके सुलक्षणोंसे सम्पन्न था ॥ १३ ॥ सब ओरसे परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारोंसे सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहेके शिखरोंवाले विशाल भवनोंसे खचाखच भरा था ॥ १४ ॥ उसके महलोंकी फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालोंकी बनी हुई थीं। अपनी कान्तिके कारण वह नागोंकी राजधानी भोगवतीपुरीके समान जान पड़ता था ॥ १५ ॥ उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा भवन, चौराहे, सडक़ें, क्रीडाभवन, बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ और मूँगेके चबूतरे सुशोभित थे ॥ १६ ॥ उस नगरके बाहर दिव्य वृक्ष और लताओंसे पूर्ण एक सुन्दर बाग था; उसके बीचमें एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे ॥ १७ ॥ सरोवरके तटपर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनोंके जलकणोंसे मिली हुई वासन्ती वायुके झकोरोंसे हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमिकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १८ ॥ वहाँके वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतोंका पालन करनेवाले थे, इसलिये उनसे किसीको कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिलकी कुहू-ध्वनि होती थी, उससे मार्गमें चलनेवाले बटोहियोंको ऐसा भ्रम होता था मानो वह बगीचा विश्राम करनेके लिये उन्हें बुला रहा है ॥ १९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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