रविवार, 9 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - चौबीसवां अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

एतद् रूपमनुध्येयं आत्मशुद्धिमभीप्सताम् ।
यद्भ क्तियोगोऽभयदः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥ ५३ ॥
भवान् भक्तिमता लभ्यो दुर्लभः सर्वदेहिनाम् ।
स्वाराज्यस्याप्यभिमत एकान्तेनात्मविद्गातिः ॥ ५४ ॥
तं दुराराध्यमाराध्य सतामपि दुरापया ।
एकान्तभक्त्या को वाञ्छेत् पादमूलं विना बहिः ॥ ५५ ॥
यत्र निर्विष्टमरणं कृतान्तो नाभिमन्यते ।
विश्वं विध्वंसयन् वीर्य शौर्यविस्फूर्जितभ्रुवा ॥ ५६ ॥
क्षणार्धेनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ५७ ॥
अथानघाङ्‌घ्रेस्तव कीर्तितीर्थयोः
     अन्तर्बहिःस्नानविधूतपाप्मनाम् ।
भूतेष्वनुक्रोशसुसत्त्वशीलिनां
     स्यात्सङ्‌गमोऽनुग्रह एष नस्तव ॥ ५८ ॥
न यस्य चित्तं बहिरर्थविभ्रमं
     तमोगुहायां च विशुद्धमाविशत् ।
यद्भ क्तियोगानुगृहीतमञ्जसा
     मुनिर्विचष्टे ननु तत्र ते गतिम् ॥ ५९ ॥
यत्रेदं व्यज्यते विश्वं विश्वस्मिन् अवभाति यत् ।
तत्त्वं ब्रह्म परं ज्योतिः आकाशमिव विस्तृतम् । ॥ ६० ॥

(भगवान रूद्र स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! चित्तशुद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको आपके इस रूपका निरन्तर ध्यान करना चाहिये; इसकी भक्ति ही स्वधर्मका पालन करनेवाले पुरुषको अभय करनेवाली है ॥ ५३ ॥ स्वर्गका शासन करनेवाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियोंकी गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं; केवल भक्तिमान् पुरुष ही आपको पा सकते हैं ॥ ५४ ॥ सत्पुरुषोंके लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्तिसे भगवान्‌ को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधनासे दु:साध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतलके अतिरिक्त और कुछ चाहेगा ॥ ५५ ॥ जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रमसे फडक़ती हुए भौंहके इशारेसे सारे संसारका संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणोंकी शरणमें गये हुए प्राणीपर अपना अधिकार नहीं मानता ॥ ५६ ॥ ऐसे भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंका यदि आधे क्षणके लिये भी समागम हो जाय तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्षको कुछ नहीं समझता; फिर मृत्युलोक के तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ ५७ ॥ प्रभो ! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशिको हर लेनेवाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगोंने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गङ्गाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकारके पापोंको धो डाला है तथा जो जीवोंके प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणोंसे युक्त हैं, उन आपके भक्तजनोंका सङ्ग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हमपर आपकी बड़ी कृपा होगी ॥ ५८ ॥ जिस साधकका चित्त भक्तियोगसे अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयोंमें भटकता है और न अज्ञान-गुहारूप प्रकृतिमें ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूपका दर्शन पा जाता है ॥ ५९ ॥ जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाशके समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं ॥ ६० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀 परब्रह्म परमेश्वर तुम सबके स्वामी 🙏 हे अनंत कोटि ब्रह्मांड के स्वामी आपका हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: चरण वंदन 🙏🙏

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