बुधवार, 3 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रियव्रत-चरित्र

अथ ह भगवानादिदेव एतस्य गुणविसर्गस्य परिबृंहणानुध्यानव्यवसितसकलजगद् अभिप्राय आत्मयोनिरखिलनिगमनिजगणपरिवेष्टितः स्वभवनादवततार ||७||
स तत्र तत्र गगनतल उडुपतिरिव विमानावलिभिरनुपथममर परिवृढैरभिपूज्यमानः पथि पथि च वरूथशः सिद्धगन्धर्वसाध्य-चारणमुनि गणैरुपगीयमानो गन्धमादनद्रोणीमवभासयन्नुपससर्प ||८||
तत्र ह वा एनं देवर्षिर्हंसयानेन पितरं भगवन्तं हिरण्यगर्भमुपलभमानः सहसैवोत्थायार्हणेन सह पितापुत्राभ्यामवहिताञ्जलिरुपतस्थे ||९||
भगवानपि भारत तदुपनीतार्हणः सूक्तवाकेनातितरामुदितगुणगणावतारसुजयः प्रियव्रतमादिपुरुषस्तं सदयहासावलोक इति होवाच ||१०||

श्रीभगवानुवाच
निबोध तातेदमृतं ब्रवीमि मासूयितुं देवमर्हस्यप्रमेयम्
वयं भवस्ते तत एष महर्षिर्वहाम सर्वे विवशा यस्य दिष्टम् ||११||
न तस्य कश्चित्तपसा विद्यया वा न योगवीर्येण मनीषया वा
नैवार्थधर्मैः परतः स्वतो वा कृतं विहन्तुं तनुभृद्विभूयात् ||१२||
भवाय नाशाय च कर्म कर्तुं शोकाय मोहाय सदा भयाय
सुखाय दुःखाय च देहयोगमव्यक्तदिष्टं जनताङ्ग धत्ते ||१३||
यद्वाचि तन्त्यां गुणकर्मदामभिः सुदुस्तरैर्वत्स वयं सुयोजिताः
सर्वे वहामो बलिमीश्वराय प्रोता नसीव द्विपदे चतुष्पदः ||१४||
ईशाभिसृष्टं ह्यवरुन्ध्महेऽङ्ग दुःखं सुखं वा गुणकर्मसङ्गात्
आस्थाय तत्तद्यदयुङ्क्त नाथश्चक्षुष्मतान्धा इव नीयमानाः ||१५||

आदिदेव स्वयम्भू भगवान्‌ ब्रह्माजीको निरन्तर इस गुणमय प्रपञ्चकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे संसारके जीवोंका अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रतकी ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदोंको साथ लिये अपने लोकसे उतरे ॥ ७ ॥ आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओंने उनका पूजन किया तथा मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमाके समान गन्धमादन की घाटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास पहुँचे ॥ ८ ॥ प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश देनेके लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजी के वहाँ पहुँचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान्‌ ब्रह्मा जी पधारे हैं; अत: वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सब ने उनको हाथ जोडक़र प्रणाम किया ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! नारदजीने उनकी अनेक प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनोंमें उनके गुण और अवतारकी उत्कृष्टताका वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान्‌ ब्रह्माजीने प्रियव्रतकी ओर मन्द मुसकानयुक्त दयादृष्टिसे देखते हुए इस प्रकार कहा ॥ १० ॥
श्रीब्रह्माजीने कहा—बेटा ! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्तकी बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारकी दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या—हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं ॥ ११ ॥ उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मकी शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है ॥ १२ ॥ प्रियवर ! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दु:खका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं ॥ १३ ॥ वत्स ! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सात्त्विक आदि गुण, सात्त्विकआदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं ॥ १४ ॥ हमारे गुण और कर्मोंके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसीके अनुसार हम सुख या दु:ख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छाका उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधेको आँखवाले पुरुषका ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀ॐश्रीपरमात्मने नमः🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!

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