गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा रहूगणको भरतजी का उपदेश

तावानयं व्यवहारः सदाविः क्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति स्थूलसूक्ष्मः
तस्मान्मनो लिङ्गमदो वदन्ति गुणागुणत्वस्य परावरस्य ||७||
गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात्
यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्शिखाः सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम्
पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं वृत्तीर्मनः श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम् ||८||
एकादशासन्मनसो हि वृत्तय आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः
मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ||९||
गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः
एकादशं स्वीकरणं ममेति शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ||१०||
द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालैरेकादशामी मनसो विकाराः
सहस्रशः शतशः कोटिशश्च क्षेत्रज्ञतो न मिथो न स्वतः स्युः ||११||
क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूतीर्जीवस्य मायारचितस्य नित्याः
आविर्हिताः क्वापि तिरोहिताश्च शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तुः ||१२||

जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मनको ही त्रिगुणमय अधम संसारका और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्षपदका कारण बताते हैं ॥ ७ ॥ विषयासक्त मन जीवको संसार-संकटमें डाल देता है, विषयहीन होनेपर वही उसे शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घीसे भीगी हुई बत्तीको खानेवाले दीपकसे तो धुएँवाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नितत्त्व में लीन हो जाता है—उसी प्रकार विषय और कर्मों में आसक्त हुआ मन तरह-तरहकी वृत्तियोंका आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होनेपर वह अपने तत्त्वमें लीन हो जाता है ॥ ८ ॥ वीरवर ! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार—ये ग्यारह मनकी वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकारके कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर—ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ॥ ९ ॥ गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार—ये पाँच कर्मेन्द्रियोंके विषय हैं तथा शरीरको ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकारका विषय है। कुछ लोग अहंकारको मनकी बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीरको बारहवाँ विषय मानते हैं ॥ १० ॥ ये मनकी ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और कालके द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदोंमें परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्माकी सत्तासे ही है, स्वत: या परस्पर मिलकर नहीं है ॥ ११ ॥ ऐसा होनेपर भी मनसे क्षेत्रज्ञका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीवकी ही मायानिर्मित उपाधि है। यह प्राय: संसारबन्धनमें डालनेवाले अविशुद्ध कर्मोंमें ही प्रवृत्त रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूपसे नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्नके समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्तिमें छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओंमें क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मनकी इन वृत्तियोंको साक्षीरूपसे देखता रहता है ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💖🥀जय श्री हरि: !!🙏
    गोविंद हरे गोपाल हरे
    जय जय प्रभु दिन दयाल हरे
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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