शनिवार, 27 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - बारहवां अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

ब्राह्मण उवाच

अयं जनो नाम चलन्पृथिव्यां यः पार्थिवः पार्थिव कस्य हेतोः
तस्यापि चाङ्घ्र्योरधि गुल्फजङ्घा जानूरुमध्योरशिरोधरांसाः ||५||
अंसेऽधि दार्वी शिबिका च यस्यां सौवीरराजेत्यपदेश आस्ते
यस्मिन्भवान्रूढनिजाभिमानो राजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्धः ||६||
शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्विष्ट्या निगृह्णन्निरनुग्रहोऽसि
जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ||७||
यदा क्षितावेव चराचरस्य विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम्
तन्नामतोऽन्यद्व्यवहारमूलं निरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम् ||८||

जडभरतने कहा—पृथ्वीपते ! यह देह पृथ्वीका विकार है, पाषाणादिसे इसका क्या भेद है ? जब यह किसी कारणसे पृथ्वीपर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमश: टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्ष:स्थल, गर्दन और कंधे आदि अङ्ग हैं ॥ ५ ॥ कंधोंके ऊपर लकड़ीकी पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नामका एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करनेसे तुम ‘मैं सिन्धु देशका राजा हूँ’ इस प्रबल मदसे अंधे हो रहे हो ॥ ६ ॥ किन्तु इसीसे तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तवमें तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुखिया कहारोंको बेगारमें पकडक़र पालकीमें जोत रखा है और फिर महापुरुषोंकी सभामें बढ़-बढक़र बातें बनाते हो कि मैं लोकोंकी रक्षा करनेवाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता ॥ ७ ॥ हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वीसे ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वीमें ही लीन होते हैं; अत: उनके क्रियाभेदके कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं—बताओ तो, उनके सिवा व्यवहारका और क्या मूल है ? ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹🤍🥀गोविंद गोपाल की जय
    श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे
    हे नाथ नारायण वासुदेव: !!
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - तेरहवां अध्याय..(पोस्ट०१)

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