❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)
( सम्पादक-कल्याण )
अब व्यक्तोपासक की स्थिति देखिये । गीताका साकारोपासक भक्त अव्यवस्थित चित्त, मूर्ख, अभिमानी, दूसरे का अनिष्ट करनेवाला, धूर्त्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष-शोकादि से अभिभूत, अशुद्ध आचरण करनेवाला, हिंसक स्वभाववाला, लोभी, कर्मफलका इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता। पापके लिये तो उसके अन्दर तनिक भी गुंजायश नहीं रहती । वह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्मा के अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धि में सम, निर्विकार, विषय-विरागी, अनहंवादी, सदाप्रसन्न, सेवा-परायण, धीरज और उत्साह का पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है । भगवान् ने यहाँ साकारोपासना का फल और उपासक की महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेपमें उसके ये लक्षण बताये हैं कि ‘केवल भगवान् के लिये ही सब कर्म करनेवाला, भगवान् को ही परम गति समझकर उन्हीं के परायण रहनेवाला, भगवान् की ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयों में आसक्तिरहित, सब भूत-प्राणियों में वैरभाव से रहित, मन को परमात्मा में एकाग्र करके नित्य भगवान् के भजन-ध्यान में रत, परम श्रद्धा-सम्पन्न, सर्व कर्मों का भगवान् में भली-भाँति उत्सर्ग करनेवाला और अनन्यभाव से तैलधारावत् परमात्माके ध्यानमें रहकर भजन-चिन्तन करनेवाला ( गीता ११ । १५, १२ । २, १२ । ६-७ )। गीतोक्त व्यक्तोपासक की संक्षेप में यही स्थिति है। भगवान् ने इसी अध्याय के अन्तके ८ श्लोकों में व्यक्तोपासक सिद्ध भक्तके लक्षण विस्तार से बतलाये हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)