❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)
( सम्पादक-कल्याण )
वे व्यक्तोपासक, भगवान् की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। वयक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम है।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान् की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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