|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)
सद्गुण-सदाचारकी स्वतन्त्र सत्ता है, पर दुर्गुण-दुराचारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारण कि असत्को तो सत्की जरूरत है, पर सत्को असत्की जरूरत नहीं है । झूठ बोलनेवाला व्यक्ति थोड़े-से पैसोंके लोभमें सत्य बोल सकता है, पर सत्य बोलनेवाला व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता ।
(३) ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते’‒‘तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है ।’ दान, पूजा, पाठादि जितने भी शास्त्र-विहित शुभकर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं, किंतु इन प्रशस्त कर्मोंका भगवान्के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेसे वे ‘सत्’ न कहलाकर केवल शास्त्र-विहित कर्ममात्र रह जाते हैं । यद्यपि दैत्य-दानव भी प्रशंसनीय कर्म तपस्यादि करते हैं, परन्तु असद् भाव‒दुरुपयोग करनेसे इनका परिणाम विपरीत हो जाता है‒
“मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥“
.............(गीता १७ । १९)
‘जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है ।’ वस्तुतः प्रशंसनीय कर्म वे होते हैं, जो स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावसे किये जाते हैं । शास्त्र-विहित सत्कर्म भी यदि अपने लिये किये जायँ तो वे असत्कर्म हो जाते हैं, बाँधनेवाले हो जाते हैं । उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।’ (गीता ८ । १६)
भगवान्के लिये कर्म करनेवाले सदाचारी पुरुषका कभी नाश नहीं होता‒
“पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥“
..................(गीता ६ । ४०)
‘हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी (भगवत्प्राप्तिके लिये) कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ।’
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)
सद्गुण-सदाचारकी स्वतन्त्र सत्ता है, पर दुर्गुण-दुराचारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारण कि असत्को तो सत्की जरूरत है, पर सत्को असत्की जरूरत नहीं है । झूठ बोलनेवाला व्यक्ति थोड़े-से पैसोंके लोभमें सत्य बोल सकता है, पर सत्य बोलनेवाला व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता ।
(३) ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते’‒‘तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है ।’ दान, पूजा, पाठादि जितने भी शास्त्र-विहित शुभकर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं, किंतु इन प्रशस्त कर्मोंका भगवान्के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेसे वे ‘सत्’ न कहलाकर केवल शास्त्र-विहित कर्ममात्र रह जाते हैं । यद्यपि दैत्य-दानव भी प्रशंसनीय कर्म तपस्यादि करते हैं, परन्तु असद् भाव‒दुरुपयोग करनेसे इनका परिणाम विपरीत हो जाता है‒
“मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥“
.............(गीता १७ । १९)
‘जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है ।’ वस्तुतः प्रशंसनीय कर्म वे होते हैं, जो स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावसे किये जाते हैं । शास्त्र-विहित सत्कर्म भी यदि अपने लिये किये जायँ तो वे असत्कर्म हो जाते हैं, बाँधनेवाले हो जाते हैं । उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।’ (गीता ८ । १६)
भगवान्के लिये कर्म करनेवाले सदाचारी पुरुषका कभी नाश नहीं होता‒
“पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥“
..................(गीता ६ । ४०)
‘हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी (भगवत्प्राप्तिके लिये) कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ।’
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से