मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

सूत उवाच ।

तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् ॥१॥
वृषं मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम् ।
वेपमानं पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् ॥२॥
गां च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम् ।
विवत्सां साश्रुवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम् ॥३॥
पप्रच्छ रथामारुढः कार्तस्वरपरिच्छदम् ।
मेघगम्भीरया वाचा समारोपितकार्मुकः ॥४॥
कस्त्वं मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान् बली ।
नरदेवोऽसि वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ॥५॥
यस्त्वं कृष्णे गते दूरं सह गाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान् रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ॥६॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित्‌ ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ॥ १ ॥ वह कमल-तन्तु के समान श्वेत रंगका बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्रकी ताडऩा से पीडि़त और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ॥ २ ॥ धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थोंको देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ॥ ३ ॥ स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित्‌ ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ॥ ४ ॥ अरे ! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है ॥ ५ ॥ हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अत: वधके योग्य है ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                            000000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

त्वं वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन् ।
वृषरूपेण किं कश्चिद् देवो नः परिखेदयन् ॥७॥
न जातु पौरवेन्द्राणां दोर्दण्डपरिरम्भिते ।
भूतलेऽनुपतन्त्यस्मिन् विना ते प्राणिनां शुचः ॥८॥
मा सौरभेयानुशुचो व्येतु ते वृषलाद् भयम् ।    
मा रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि ॥९॥
यस्य राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः ।
तस्य मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः ॥१०॥
एष राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः ।
अत एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् ॥११॥
कोऽवृश्चत् तव पादांस्त्रीन् सौरभेय चतुष्पद ।
मा भूवस्त्वांदृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम् ॥१२॥
आख्याहि वृष भद्रं वः साधूनामकॄतागसाम् ।
आत्मवैरूप्यकर्तारं पार्थानां कीर्तिदूषणम् ॥१३॥

उन्होंने (राजा परीक्षित्‌ ने) धर्मसे पूछाकमलनालके समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता हैं ? ॥ ७ ॥ अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे ॥ ८ ॥ धेनुपुत्र ! अब आप शोक न करें। इस शूद्रसे निर्भय हो जायँ। गोमाता ! मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ॥ ९ ॥ देवि ! जिस राजाके राज्यमें दुष्टोंके उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ॥ १० ॥ राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुखियोंका दु:ख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियोंको पीडि़त करनेवाला है। अत: मैं अभी इसे मार डालूँगा ॥ ११ ॥ सुरभिनन्दन ! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले ? श्रीकृष्णके अनुयायी राजाओंके राज्यमें कभी कोई भी आपकी तरह दुखी न हो ॥ १२ ॥ वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओंका अङ्ग-भङ्ग करके किस दुष्टने पाण्डवोंकी कीर्तिमें कलङ्क लगाया है ? ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                         0000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

जनेऽनागस्यघं युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ॥१४॥
अनागस्स्विह भूतेषु य आगस्कृन्निरंकुशः ।
आहर्तास्मि भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि सांगदम् ॥१५॥
राज्ञो हि परमो धर्म स्वधर्मस्थानुपालनम् ।
शासतोऽन्यान् यथाशास्त्रमनापद्यत्पथानिह ॥१६॥

धर्म उवाच ।
एतद् वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः ।
येषा गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान् कृतः ॥१७॥
न वयं क्लेशाबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ ।
पुरुषं तं विजानीमो वाक्य भेदविमोहिताः ॥१८॥
केचिद् विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः ।
दैवमन्ये परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् ॥१९॥
अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति केष्वपि निश्चयः ।
अत्रानुरूपं राजर्षे विमृश स्वमनीषया ॥२०॥

सूत उवाच ।
एवं धर्मे प्रवदति स सम्राड् द्विजसत्तम ।
समाहितेन मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् ॥२१॥

राजोवाच
धर्मं ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥२२॥
अथवा देवमायाया नूनं गतिरगोचरा ।
चेतसो वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः ॥२३॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे, चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टोंका दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ॥ १४ ॥ जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दु:ख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा ॥ १५ ॥ बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ॥ १६ ॥
धर्मने कहाराजन् ! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान्‌ श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥ जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दु:खका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दु:खका कारण मानते हैं ॥ १९ ॥ किन्हीं-किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दु:खका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैंऋषिश्रेष्ठ शौनकजी ! धर्मका यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित्‌ बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा ॥ २१ ॥
परीक्षित्‌ने कहाधर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दु:ख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ॥ २२ ॥ अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंके मन और वाणीसे परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                         00000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

तपः शौचं दया सत्यमिति पादाःकृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव ॥२४॥
इदानीं धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥२५॥
इयं च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः सर्वतः कृतकौतुका ॥२६॥
शोचत्यश्रुकला साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्यण्या नृपव्याजाः शूद्राः भोक्ष्यन्ति मामिति ॥२७॥
इति धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥२८॥
तं जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं शिरसा समगाद् भयविह्वलः ॥२९॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थेतप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ॥ २४ ॥ अब आपका चौथा चरण केवल सत्यही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥ ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान्‌ ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥ अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥ महारथी परीक्षित्‌ ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                            000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

पतितं पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥३०॥

राजोवाच
न ते गुडाकेशयशोधराणां
बद्धाञ्जलेर्वै भयमस्ति किंचित् ।
न वर्तितव्यं भवता कथंचन
क्षेत्रे मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३१॥
त्वां वर्तमानं नरदेवदेहे-
ष्वनु प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभो‍ऽनृतं चौर्यमनार्यमंहो
ज्येष्ठा च माया कलहश्च दम्भः ॥३२॥
न वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो
धर्मेण सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते यत्र यजन्ति यज्ञै-
र्यज्ञेश्वरं यज्ञवितानविज्ञाः ॥३३॥
यस्मिन् हरिर्भगवानिज्यमान
इज्यामूर्तिर्यजतां शं तनोति ।
कामानमोघान् स्थिरजंगमाना-
मन्तर्बाहिर्वायुरिवैष आत्मा ॥३४॥

सूत उवाच ।
परिक्षितैवमादिष्टः स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यातासिमाहेदं दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥३५॥

परीक्षित्‌ बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ॥ ३० ॥
परीक्षित्‌ बोलेजब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्‌की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान्‌ श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान्‌ वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैंपरीक्षित्‌की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्‌से वह बोला ॥ ३५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                             000000000




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

कलिरुवाच ।
यत्र क्वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया ।
लक्षये तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ॥३६॥
तन्मे धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥३७॥

सूत उवाच ।
अभ्यर्थितस्तदा तस्मै स्थानादि कलये ददौ ।
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥३८॥
पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं मदं कामं रजो वैरं च पंचमम् ॥३९॥
अमूनि पंच स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण दत्तानि न्यवसत् तन्निदेशकृत् ॥४०॥
अथैतानि न सेवेत बुभूषुः पुरुषःक्वचित् ।
विशेषतो धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः ॥४१॥

कलि ने (राजा परीक्षित्‌से) कहासार्वभौम ! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ ३६ ॥ धार्मिक-शिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ ३७ ॥
सूतजी कहते हैंकलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित्‌ ने उसे चार स्थान दियेद्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयताये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ॥ ३८ ॥ उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित्‌ ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गयेझूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ॥ ४० ॥ इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                            00000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध- सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

महाराज परीक्षित्‌द्वारा कलियुगका दमन

वृषस्य नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥४२॥
स एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं राज्ञारण्यं विविक्षता ॥४३॥
आस्तेऽधुना स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वयो महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥४४॥
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो नृपः ।
यस्य पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४५॥

राजा परीक्षित्‌ ने इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरणतपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ ४२ ॥ वे ही महाराजा परीक्षित्‌ इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥ वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित्‌ इस समय हस्तिनापुरमें कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥ अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित्‌ वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं [*] ॥ ४५ ॥
...............................................................
[*] ४३से ४५ तकके श्लोकोंमें महाराज परीक्षित्‌का वर्तमानके समान वर्णन किया गया है। वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार वर्तमानके निकटवर्ती भूत और भविष्यके लिये भी वर्तमानका प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी महाराजने अपनी टीकामें लिखा है कि यद्यपि परीक्षित्‌की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमानके समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें भगवान्‌का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजीको वे अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हींको, बल्कि सबको इस बातकी प्रतीति हो रही है। आत्मा वै जायते पुत्र:इस श्रुतिके अनुसार जनमेजय के रूपमें भी वही राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं। इन सब कारणोंसे वर्तमान के रूपमें उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमंहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

सूत उवाच ।
ततः परीक्षिद् द्विजवर्यशिक्षया
महीं महाभागवतः शशास ह ।
यथा हि सूत्यामभिजातकोविदाः
समादिशन् विप्र महद्गुणस्तथा ॥१॥
स उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत् सुतान् ॥२॥
आजहाराश्वमेधांस्त्रीन् गंगायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः ॥३॥
निजग्राहौजसा वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित् ।
नृपलिंगधरं शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा ॥४॥

शौनक उवाच ।
कस्य हेतोर्निजग्राह कलिं द्विग्विजये नृपः ।
नृदेवचिन्हधृक् शुद्रकोऽसौ गां यः पदाहनत् ।
तत्कथ्यतां महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् ॥५॥
अथवास्य पदाम्भोजमकरन्दलिहं सताम ।
किमन्यैरसदालापैरायुषो यदसद्व्ययः ॥६॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् भगवान्‌ के परम भक्त राजा परीक्षित्‌ श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे। उनके जन्मके समय ज्योतिषियोंने उनके सम्बन्धमें जो कुछ कहा था, वास्तवमें वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे ॥ १ ॥ उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ तथा कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गा के तटपर तीन अश्वमेध-यज्ञ किये, जिनमें ब्राह्मणों को पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञों में देवताओं ने प्रत्यक्षरूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ ३ ॥ एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकडक़र दण्ड दिया ॥ ४ ॥
शौनकजी ने पूछामहाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित्‌ ने कलियुग को दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दियामार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजाका वेष धारण करनेपर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गाय को लात से मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलासे अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रसका पान करनेवाले रसिक महानुभावोंसे सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्थकी बातोंसे क्या लाभ। उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ॥ ५-६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                     0000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

क्षुद्रायुषां नृणामंग मर्त्यानामृतमिच्छताम् ।
इहोपहूतो भगवान् मृत्युः शामित्रकर्मणि ॥७॥
न कश्चिन्म्रियते तावद् यावदास्त इहान्तकः ।
एतदर्भ हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः ।
अहो नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः ॥८॥
मन्दस्य मन्दप्रज्ञस्य वयो मन्दायुषश्च वै ।
निद्रया ह्रियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः ॥९॥

सूत उवाच ।
यदा परीक्षि्त कुरुजांगलेऽवसत्
कलिं प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते ।
निशम्य वार्तामनतिप्रियां ततः
शरासनं संयुगशौण्डिराददे ॥१०॥
स्वलंकृतं श्यामतुरंगयोजितं
रथं मृगेन्द्रध्वजमाश्रितः पुरात् ।
वृतो रथाश्वद्विपपत्त्तियुक्तया
स्वसेनया दिग्विजयाय निर्गतः ॥११॥
भद्राश्चं केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरुन् ।
किम्पुरुषादीनि वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम् ॥१२॥
तत्र तत्रोपशृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम् ।
प्रगीयमाणं च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम् ॥१३॥
आत्मानं च परित्रातमश्वत्थाम्रोऽस्त्रतेजसः ।
स्नेहं च वृष्णिपार्थांना तेषां भक्तिं च केशवे ॥१४॥
तेभ्यः परमसंतुष्टः प्रीत्युज्जृम्भितलोचनः ।
महाधनानि वासांसि ददौ हारान् महामनाः ॥१५॥

(शौनकजी पूछ रहे हैं) प्यारे सूत जी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के लिये भगवान्‌ यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्म में नियुक्त कर दिया गया है ॥ ७ ॥ जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी की मृत्यु नहीं होगी। मृत्युसे ग्रस्त मनुष्यलोक के जीव भी भगवान्‌ की सुधातुल्य लीला-कथा का पान कर सकें, इसीलिये महर्षियों ने भगवान्‌ यम को यहाँ बुलाया है ॥ ८ ॥ एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के मन्दभाग्य विषयी पुरुषोंकी आयु व्यर्थ ही बीती जा रही हैनींदमें रात और व्यर्थके कामों में दिन ॥ ९ ॥
सूतजीने कहाजिस समय राजा परीक्षित्‌ कुरुजाङ्गल देशमें सम्राट् के रूपमें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित साम्राज्य में कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दु:ख तो अवश्य हुआ; परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित्‌ने धनुष हाथमें ले लिया ॥ १० ॥ वे श्यामवर्णके घोड़ोंसे जुते हुए, सिंहकी ध्वजावाले, सुसज्जित रथपर सवार होकर दिग्विजय करनेके लिये नगरसे बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ ११ ॥ उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओंसे भेंट ली ॥ १२ ॥ उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुननेको मिला। उस यशोगानसे पद-पदपर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी ॥ १३ ॥ इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको मिलता था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवोंकी भगवान्‌ श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी ॥ १४ ॥ जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित्‌ बहुत प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते। वे बड़ी उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते ॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                              00000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

सारथ्यपारषदसेवनसख्यदौत्य-
वीरासनानुगमनस्तवनप्रणामान् ।
स्निग्धेषु पाण्डुषु जगत्प्रणतिं च विष्णो-
र्भक्तिं करोति नृपतिश्चरणारविन्दे ॥१६॥
तस्यैवं वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम् ।
नातिदूरे किलाश्चर्य यदासीत् तन्निबोध मे ॥१७॥
धर्मः पदैकेन चरन् विच्छायामुपलभ्य गाम् ।
पृच्छति स्माश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम् ॥१८॥

धर्म उवाच ।
कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते
विच्छायासि म्लायतेषन्मुखेन ।
आलक्षये भवतीमन्तराधिं
दूरे बन्धुं शोचसि कञ्चनाम्ब ॥१९॥
पादैर्न्यूनं शोचासि मैकपाद-
मात्मानं वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम् ।
आहो सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा उतस्विन्मघवत्यवर्षति ॥२०॥

वे (परीक्षित्‌ जी) सुनते कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने प्रेमपरवश होकर पाण्डवों के सारथि का काम किया, उनके सभासद् बनेयहाँतक कि उनके मनके अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके चरणोंमें उन्होंने सारे जगत् को झुका दिया। तब परीक्षित्‌की भक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें और भी बढ़ जाती ॥ १६ ॥ इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १७ ॥ धर्म बैल का रूप धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गाय के रूपमें पृथ्वी मिली। पुत्रकी मृत्युसे दु:खिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुओंके झरने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ॥ १८ ॥

धर्म ने कहाकल्याणि ! कुशलसे तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दु:ख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? ॥ १९ ॥ कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिये भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल एवं दुर्भिक्षसे पीडि़त हो रही है ॥ २० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                               0000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

अरक्ष्यमाणाः स्त्रिय उर्वि बालान्
शोचस्यथो पुरुषादैरिवार्तान् ।
वाचं देवीं ब्रह्मकुले कुकर्म-
ण्य़ब्रह्मण्ये राजकुले कुलाग्र्यान् ॥२१॥
किं क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान्
राष्ट्राणि वा तैरवरोपितानि ।
इतस्ततो वाशनपानवास:-
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम् ॥२२॥
यद्वाम्ब ते भूरिभरावतार
कृतावतारस्य हरेर्धरित्रि ।
अन्तर्हितस्य स्मरती विसृष्टा
कर्माणि निर्वाणविलम्बितानि ॥२३॥
इदं ममाचक्ष्व तवाधिमूलं
वसुन्धरे येन विकर्शितासि ।
कालेन वा ते बलिना बलियसा
सुरार्चितं किं हृतमम्ब सौभगम् ॥२४॥

(बैलरूपी धर्म गाय के रूपमें पृथ्वी से कहरहे हैं) देवि ! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकों के लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुलमें पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हें दु:ख हो ॥ २१ ॥ आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो ? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुखी हो ? ॥ २२ ॥ मा पृथ्वी ! अब समझमें आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्षका भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला संवरण कर लेनेपर उनके परित्यागसे तुम दुखी हो रही हो ॥ २३ ॥ देवि ! तुम तो धन-रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ। मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानोंको भी हरा देनेवाले काल ने देवताओंके द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्यको छीन लिया है ॥ २४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                            00000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

धरण्युवाच ।
भवान् हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥२५॥
सत्यं शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो दमस्तपः साम्य तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥२६॥
ज्ञानं विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्य कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ॥२७॥
प्रागल्भ्यं प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्य स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः ॥२८॥
एते चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या महत्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥२९॥
तेनाहं गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥३०॥
आत्मानं चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम् ।
देवान् पितृनृषीन् साधुन् सर्वान् वर्णास्तथाऽऽश्रमान् ॥३१॥

पृथ्वीने कहाधर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान्‌के सहारे तुम सारे संसारको सुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहंकारताये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करनेके लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके लिये भी उनसे अलग नहीं होतेउन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ॥ २५३० ॥ अपने लिये, देवताओंमें श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके मनुष्योंके लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                                00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित्‌ की दिग्विजय
तथा धर्म और पृथ्वी का संवाद

ब्रह्मादयो बहुतिथं यदपांगमोक्ष
कामास्तपः समचरन् भगवत्प्रपन्नाः ।
सा श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय
यत्पादसौभगमलं भजतेऽनुरक्ता ॥३२॥
तस्याहमब्जकुलिशांकुशकेतुकेतैः
श्रीमत्पदैर्भगवतः समलंकृतांगी ।
त्रीनत्यरोच उपलभ्य ततो विभूतिं
लोकान् स मां व्यसृजदुत्स्मयंतीं तदन्ते ॥३३॥
यो वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञा-
मक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः ।
त्वां दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण
सम्पादयन् यदुषु रम्यमबिभ्रदंगम् ॥३४॥
का वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य
प्रमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः ।
स्थैर्यं समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो मम यदंघ्रिविटंकितायाः ॥३५॥
पयोरेवं कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा ।
परिक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम् ‍ ॥३६॥

 (पृथ्वी धर्म से कहरही है) जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्‌ के शरणागत होकर बहुत दिनों तक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मी जी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान्‌के कमल, वज्र, अङ्कुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्‌ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥
तुम अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गों से पूर्ण एवं स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंश में प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की सैंकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित्‌ पूर्ववाहिनी सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे पृथ्वीधर्मसंवादो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
                                              000000000000




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...