॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०१)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
सूत
उवाच ।
तत्र
गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत् ।
दण्डहस्तं
च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम् ॥१॥
वृषं
मृणालधवलं मेहन्तमिव बिभ्यतम् ।
वेपमानं
पदैकेन सीदन्तं शूद्रताडितम् ॥२॥
गां
च धर्मदुघां दीनां भृशं शूद्रपदाहताम् ।
विवत्सां
साश्रुवदनां क्षामां यवसमिच्छतीम् ॥३॥
पप्रच्छ
रथामारुढः कार्तस्वरपरिच्छदम् ।
मेघगम्भीरया
वाचा समारोपितकार्मुकः ॥४॥
कस्त्वं
मच्छरणे लोके बलाद्धंस्यबलान् बली ।
नरदेवोऽसि
वेषेण नटवत्कर्मणाद्विजः ॥५॥
यस्त्वं
कृष्णे गते दूरं सह गाण्डीवधन्वना ।
शोच्योऽस्यशोच्यान्
रहसि प्रहरन् वधमर्हसि ॥६॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित् ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ॥ १ ॥ वह कमल-तन्तु के समान श्वेत रंगका बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्रकी ताडऩा से पीडि़त और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था ॥ २ ॥ धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थोंको देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे ॥ ३ ॥ स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित् ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा ॥ ४ ॥ अरे ! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है ॥ ५ ॥ हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अत: वधके योग्य है ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०२)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
त्वं
वा मृणालधवलः पादैर्न्यूनः पदा चरन् ।
वृषरूपेण
किं कश्चिद् देवो नः परिखेदयन् ॥७॥
न
जातु पौरवेन्द्राणां दोर्दण्डपरिरम्भिते ।
भूतलेऽनुपतन्त्यस्मिन्
विना ते प्राणिनां शुचः ॥८॥
मा
सौरभेयानुशुचो व्येतु ते वृषलाद् भयम् ।
मा
रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि ॥९॥
यस्य
राष्ट्रे प्रजाः सर्वास्त्रस्यन्ते साध्व्यसाधुभिः ।
तस्य
मत्तस्य नश्यन्ति कीर्तिरायुर्भगो गतिः ॥१०॥
एष
राज्ञां परो धर्मो ह्यार्तानामार्तिनिग्रहः ।
अत
एनं वधिष्यामि भूतद्रुहमसत्तमम् ॥११॥
कोऽवृश्चत्
तव पादांस्त्रीन् सौरभेय चतुष्पद ।
मा
भूवस्त्वांदृशा राष्ट्रे राज्ञां कृष्णानुवर्तिनाम् ॥१२॥
आख्याहि
वृष भद्रं वः साधूनामकॄतागसाम् ।
आत्मवैरूप्यकर्तारं
पार्थानां कीर्तिदूषणम् ॥१३॥
उन्होंने (राजा परीक्षित् ने) धर्मसे पूछा—कमलनालके समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता हैं ? ॥ ७ ॥ अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे ॥ ८ ॥ धेनुपुत्र ! अब आप शोक न करें। इस शूद्रसे निर्भय हो जायँ। गोमाता ! मैं दुष्टोंको दण्ड देनेवाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो ॥ ९ ॥ देवि ! जिस राजाके राज्यमें दुष्टोंके उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ॥ १० ॥ राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुखियोंका दु:ख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियोंको पीडि़त करनेवाला है। अत: मैं अभी इसे मार डालूँगा ॥ ११ ॥ सुरभिनन्दन ! आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले ? श्रीकृष्णके अनुयायी राजाओंके राज्यमें कभी कोई भी आपकी तरह दुखी न हो ॥ १२ ॥ वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओंका अङ्ग-भङ्ग करके किस दुष्टने पाण्डवोंकी कीर्तिमें कलङ्क लगाया है ? ॥ १३ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०३)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
जनेऽनागस्यघं
युञ्जन् सर्वतोऽस्य च मद्भयम् ।
साधूनां
भद्रमेव स्यादसाधुदमने कृते ॥१४॥
अनागस्स्विह
भूतेषु य आगस्कृन्निरंकुशः ।
आहर्तास्मि
भुजं साक्षादमर्त्यस्यापि सांगदम् ॥१५॥
राज्ञो
हि परमो धर्म स्वधर्मस्थानुपालनम् ।
शासतोऽन्यान्
यथाशास्त्रमनापद्यत्पथानिह ॥१६॥
धर्म
उवाच ।
एतद्
वः पाण्डवेयानां युक्तमार्ताभयं वचः ।
येषा
गुणगणैः कृष्णो दौत्यादौ भगवान् कृतः ॥१७॥
न
वयं क्लेशाबीजानि यतः स्युः पुरुषर्षभ ।
पुरुषं
तं विजानीमो वाक्य भेदविमोहिताः ॥१८॥
केचिद्
विकल्पवसना आहुरात्मानमात्मनः ।
दैवमन्ये
परे कर्म स्वभावमपरे प्रभुम् ॥१९॥
अप्रतर्क्यादनिर्देश्यादिति
केष्वपि निश्चयः ।
अत्रानुरूपं
राजर्षे विमृश स्वमनीषया ॥२०॥
सूत
उवाच ।
एवं
धर्मे प्रवदति स सम्राड् द्विजसत्तम ।
समाहितेन
मनसा विखेदः पर्यचष्ट तम् ॥२१॥
राजोवाच
धर्मं
ब्रवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वृषरूपधृक् ।
यदधर्मकृतः
स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥२२॥
अथवा
देवमायाया नूनं गतिरगोचरा ।
चेतसो
वचसश्चापि भूतानामिति निश्चयः ॥२३॥
(राजा परीक्षित्
कहते हैं) जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे,
चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा।
दुष्टोंका दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है ॥ १४ ॥ जो उद्दण्ड व्यक्ति
निरपराध प्राणियों को दु:ख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता
ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट
डालूँगा ॥ १५ ॥ बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लङ्घन करनेवालों को शास्त्रानुसार
दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है ॥ १६
॥
धर्मने कहा—राजन् ! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥ जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दु:खका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दु:खका कारण मानते हैं ॥ १९ ॥ किन्हीं-किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दु:खका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ॥ २० ॥
धर्मने कहा—राजन् ! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजों के श्रेष्ठ गुणों ने भगवान् श्रीकृष्ण को उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ॥ १८ ॥ जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दु:खका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दु:खका कारण मानते हैं ॥ १९ ॥ किन्हीं-किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दु:खका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिश्रेष्ठ शौनकजी ! धर्मका यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत
प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर
उनसे कहा ॥ २१ ॥
परीक्षित्ने कहा—धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दु:ख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ॥ २२ ॥ अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंके मन और वाणीसे परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ॥ २३ ॥
परीक्षित्ने कहा—धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दु:ख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ॥ २२ ॥ अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंके मन और वाणीसे परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ॥ २३ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
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प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०४)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
तपः
शौचं दया सत्यमिति पादाःकृते कृताः ।
अधर्मांशैस्त्रयो
भग्नाः स्मयसंगमदैस्तव ॥२४॥
इदानीं
धर्म पादस्ते सत्यं निर्वर्तयेद्यतः ।
तं
जिघृक्षत्यधर्मोऽयमनृतेनैधितः कलिः ॥२५॥
इयं
च भूर्भगवता न्यासितोरुभरा सती ।
श्रीमद्भिस्तत्पदन्यासैः
सर्वतः कृतकौतुका ॥२६॥
शोचत्यश्रुकला
साध्वी दुर्भगेवोज्झिताधुना ।
अब्रह्यण्या
नृपव्याजाः शूद्राः भोक्ष्यन्ति मामिति ॥२७॥
इति
धर्म महीं चैव सान्त्वयित्वा महारथः ।
निशातमाददे
खड्गं कलयेऽधर्महेतवे ॥२८॥
तं
जिघांसुमभिप्रेत्य विहाय नृपलाञ्छनम् ।
तत्पादमूलं
शिरसा समगाद् भयविह्वलः ॥२९॥
(राजा परीक्षित्
कहते हैं) धर्मदेव ! सत्ययुग में आपके चार-चरण थे—तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस
समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके
हैं ॥ २४ ॥ अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बलपर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप
कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ २५ ॥ ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं।
भगवान् ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले
चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं ॥ २६ ॥ अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे
साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका
स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ॥ २७ ॥ महारथी परीक्षित् ने इस
प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को
मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ २८ ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार
ही डालना चाहते हैं; अत: झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले
और भयविह्वल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ २९ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०५)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
पतितं
पादयोर्वीरः कृपया दीनवत्सलः ।
शरण्यो
नावधीच्छ्लोक्य आह चेदं हसन्निव ॥३०॥
राजोवाच
न
ते गुडाकेशयशोधराणां
बद्धाञ्जलेर्वै
भयमस्ति किंचित् ।
न
वर्तितव्यं भवता कथंचन
क्षेत्रे
मदीये त्वमधर्मबन्धुः॥३१॥
त्वां
वर्तमानं नरदेवदेहे-
ष्वनु
प्रवृत्तोऽयमधर्मपूगः ।
लोभोऽनृतं
चौर्यमनार्यमंहो
ज्येष्ठा
च माया कलहश्च दम्भः ॥३२॥
न
वर्तितव्यं तदधर्मबन्धो
धर्मेण
सत्येन च वर्तितव्ये ।
ब्रह्मावर्ते
यत्र यजन्ति यज्ञै-
र्यज्ञेश्वरं
यज्ञवितानविज्ञाः ॥३३॥
यस्मिन्
हरिर्भगवानिज्यमान
इज्यामूर्तिर्यजतां
शं तनोति ।
कामानमोघान्
स्थिरजंगमाना-
मन्तर्बाहिर्वायुरिवैष
आत्मा ॥३४॥
सूत
उवाच ।
परिक्षितैवमादिष्टः
स कलिर्जातवेपथु: ।
तमुद्यातासिमाहेदं
दण्डपाणिमिवोद्यतम् ॥३५॥
परीक्षित् बड़े
यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको
अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु
हँसते हुए-से उससे कहा ॥ ३० ॥
परीक्षित् बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित्की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्से वह बोला ॥ ३५ ॥
परीक्षित् बोले—जब तू हाथ जोडक़र शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ ३१ ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ ३२ ॥ अत: अधर्मके साथी ! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान्की आराधना करते रहते हैं ॥ ३३ ॥ इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ॥ ३४ ॥
सूतजी कहते हैं—परीक्षित्की यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्से वह बोला ॥ ३५ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध- सत्रहवाँ
अध्याय..(पोस्ट ०६)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
कलिरुवाच
।
यत्र
क्वचन वत्स्यामि सार्वभौम तवाज्ञया ।
लक्षये
तत्र तत्रापि त्वामात्तेषुशरासनम् ॥३६॥
तन्मे
धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थानं निर्देष्टुमर्हसि ।
यत्रैव
नियतो वत्स्य आतिष्ठंस्तेऽनुशासनम् ॥३७॥
सूत
उवाच ।
अभ्यर्थितस्तदा
तस्मै स्थानादि कलये ददौ ।
द्यूतं
पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः ॥३८॥
पुनश्च
याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः ।
ततोऽनृतं
मदं कामं रजो वैरं च पंचमम् ॥३९॥
अमूनि
पंच स्थानानि ह्यधर्मप्रभवः कलिः ।
औत्तरेयेण
दत्तानि न्यवसत् तन्निदेशकृत् ॥४०॥
अथैतानि
न सेवेत बुभूषुः पुरुषःक्वचित् ।
विशेषतो
धर्मशीलो राजा लोकपतिर्गुरुः ॥४१॥
कलि ने (राजा परीक्षित्से) कहा—सार्वभौम ! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ ३६ ॥ धार्मिक-शिरोमणे ! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ ३७ ॥
सूतजी कहते हैं—कलियुग की प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित् ने उसे चार स्थान दिये—द्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा। इन स्थानों में क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता—ये चार प्रकार के अधर्म निवास करते हैं ॥ ३८ ॥ उसने और भी स्थान माँगे। तब समर्थ परीक्षित् ने उसे रहने के लिये एक और स्थान—‘सुवर्ण’ (धन)—दिया। इस प्रकार कलियुग के पाँच स्थान हो गये—झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ ३९ ॥ परीक्षित् के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्म का मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओं का पालन करता हुआ निवास करने लगा ॥ ४० ॥ इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुष को इन पाँचों स्थानों का सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्ग के लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओं को तो बड़ी सावधानी से इनका त्याग करना चाहिये ॥ ४१ ॥
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श्रीमद्भागवतमहापुराण
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अध्याय..(पोस्ट ०७)
महाराज
परीक्षित्द्वारा कलियुगका दमन
वृषस्य
नष्टांस्त्रीन् पादान् तपः शौचं दयामिति ।
प्रतिसंदध
आश्वास्य महीं च समवर्धयत् ॥४२॥
स
एष एतर्ह्यध्यास्त आसनं पार्थिवोचितम् ।
पितामहेनोपन्यस्तं
राज्ञारण्यं विविक्षता ॥४३॥
आस्तेऽधुना
स राजर्षिः कौरवेन्द्रश्रियोल्लसन् ।
गजाह्वयो
महाभागश्चक्रवर्ती बृहच्छ्रवाः ॥४४॥
इत्थम्भूतानुभावोऽयमभिमन्युसुतो
नृपः ।
यस्य
पालयतः क्षोणीं यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४५॥
राजा परीक्षित् ने
इसके बाद वृषभरूप धर्म के तीनों चरण—तपस्या,
शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ ४२ ॥
वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे
उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान हैं ॥ ४३ ॥ वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि
परीक्षित् इस समय हस्तिनापुरमें कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान हैं ॥ ४४ ॥
अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित् वास्तवमें ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप-लोग इस दीर्घ कालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं [*]
॥ ४५ ॥
...............................................................
[*]
४३से ४५ तकके श्लोकोंमें महाराज परीक्षित्का वर्तमानके समान वर्णन
किया गया है। ‘वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (पा सू३। ३। १३१) इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार वर्तमानके निकटवर्ती भूत और
भविष्यके लिये भी वर्तमानका प्रयोग किया जा सकता है। जगद्गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी
महाराजने अपनी टीकामें लिखा है कि यद्यपि परीक्षित्की मृत्यु हो गयी थी, फिर भी उनकी कीर्ति और प्रभाव वर्तमानके समान ही विद्यमान थे। उनके प्रति
अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिये उनकी दूरी यहाँ मिटा दी गयी है। उन्हें
भगवान्का सायुज्य प्राप्त हो गया था, इसलिये भी सूतजीको वे
अपने सम्मुख ही दीख रहे हैं। न केवल उन्हींको, बल्कि सबको इस
बातकी प्रतीति हो रही है। ‘आत्मा वै जायते पुत्र:’ इस श्रुतिके अनुसार जनमेजय के रूपमें भी वही राजसिंहासनपर बैठे हुए हैं।
इन सब कारणोंसे वर्तमान के रूपमें उनका वर्णन भी कथा के रस को पुष्ट ही करता है।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमंहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे कलिनिग्रहो नाम
सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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