॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
सूत
उवाच ।
ततः
परीक्षिद् द्विजवर्यशिक्षया
महीं
महाभागवतः शशास ह ।
यथा
हि सूत्यामभिजातकोविदाः
समादिशन्
विप्र महद्गुणस्तथा ॥१॥
स
उत्तरस्य तनयामुपयेम इरावतीम् ।
जनमेजयादींश्चतुरस्तस्यामुत्पादयत्
सुतान् ॥२॥
आजहाराश्वमेधांस्त्रीन्
गंगायां भूरिदक्षिणान् ।
शारद्वतं
गुरुं कृत्वा देवा यत्राक्षिगोचराः ॥३॥
निजग्राहौजसा
वीरः कलिं दिग्विजये क्वचित् ।
नृपलिंगधरं
शूद्रं घ्नन्तं गोमिथुनं पदा ॥४॥
शौनक
उवाच ।
कस्य
हेतोर्निजग्राह कलिं द्विग्विजये नृपः ।
नृदेवचिन्हधृक्
शुद्रकोऽसौ गां यः पदाहनत् ।
तत्कथ्यतां
महाभाग यदि कृष्णकथाश्रयम् ॥५॥
अथवास्य
पदाम्भोजमकरन्दलिहं सताम ।
किमन्यैरसदालापैरायुषो
यदसद्व्ययः ॥६॥
सूतजी
कहते हैं—शौनकजी ! पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् भगवान् के परम भक्त राजा
परीक्षित् श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे। उनके
जन्मके समय ज्योतिषियोंने उनके सम्बन्धमें जो कुछ कहा था, वास्तवमें
वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे ॥ १ ॥ उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से
विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ २ ॥ तथा कृपाचार्य
को आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गा के तटपर तीन अश्वमेध-यज्ञ किये, जिनमें ब्राह्मणों को पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञों में देवताओं ने
प्रत्यक्षरूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ ३ ॥ एक बार दिग्विजय करते
समय उन्होंने देखा कि शूद्र के रूप में कलियुग राजा का वेष धारण करके एक गाय और
बैल के जोड़े को ठोकरों से मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक पकडक़र दण्ड दिया
॥ ४ ॥
शौनकजी
ने पूछा—महाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजय के समय महाराज परीक्षित् ने कलियुग को
दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नहीं डाला ? क्योंकि राजाका वेष धारण करनेपर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गाय को लात से मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग
भगवान् श्रीकृष्णकी लीलासे अथवा उनके चरणकमलों के मकरन्द-रसका पान करनेवाले रसिक
महानुभावोंसे सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्थकी बातोंसे क्या लाभ।
उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ॥ ५-६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
क्षुद्रायुषां
नृणामंग मर्त्यानामृतमिच्छताम् ।
इहोपहूतो
भगवान् मृत्युः शामित्रकर्मणि ॥७॥
न
कश्चिन्म्रियते तावद् यावदास्त इहान्तकः ।
एतदर्भ
हि भगवानाहूतः परमर्षिभिः ।
अहो
नृलोके पीयेत हरिलीलामृतं वचः ॥८॥
मन्दस्य
मन्दप्रज्ञस्य वयो मन्दायुषश्च वै ।
निद्रया
ह्रियते नक्तं दिवा च व्यर्थकर्मभिः ॥९॥
सूत
उवाच ।
यदा
परीक्षि्त कुरुजांगलेऽवसत्
कलिं
प्रविष्टं निजचक्रवर्तिते ।
निशम्य
वार्तामनतिप्रियां ततः
शरासनं
संयुगशौण्डिराददे ॥१०॥
स्वलंकृतं
श्यामतुरंगयोजितं
रथं
मृगेन्द्रध्वजमाश्रितः पुरात् ।
वृतो
रथाश्वद्विपपत्त्तियुक्तया
स्वसेनया
दिग्विजयाय निर्गतः ॥११॥
भद्राश्चं
केतुमालं च भारतं चोत्तरान् कुरुन् ।
किम्पुरुषादीनि
वर्षाणि विजित्य जगृहे बलिम् ॥१२॥
तत्र
तत्रोपशृण्वानः स्वपूर्वेषां महात्मनाम् ।
प्रगीयमाणं
च यशः कृष्णमाहात्म्यसूचकम् ॥१३॥
आत्मानं
च परित्रातमश्वत्थाम्रोऽस्त्रतेजसः ।
स्नेहं
च वृष्णिपार्थांना तेषां भक्तिं च केशवे ॥१४॥
तेभ्यः
परमसंतुष्टः प्रीत्युज्जृम्भितलोचनः ।
महाधनानि
वासांसि ददौ हारान् महामनाः ॥१५॥
(शौनकजी
पूछ रहे हैं) प्यारे सूत जी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होने के
कारण मृत्यु से ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याण के
लिये भगवान् यम का आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्म में नियुक्त कर दिया गया है
॥ ७ ॥ जब तक यमराज यहाँ इस कर्म में नियुक्त हैं, तब तक किसी
की मृत्यु नहीं होगी। मृत्युसे ग्रस्त मनुष्यलोक के जीव भी भगवान् की सुधातुल्य
लीला-कथा का पान कर सकें, इसीलिये महर्षियों ने भगवान् यम को
यहाँ बुलाया है ॥ ८ ॥ एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्था में संसार के
मन्दभाग्य विषयी पुरुषोंकी आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींदमें
रात और व्यर्थके कामों में दिन ॥ ९ ॥
सूतजीने
कहा—जिस समय राजा परीक्षित् कुरुजाङ्गल देशमें सम्राट् के रूपमें निवास कर
रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेना द्वारा सुरक्षित
साम्राज्य में कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दु:ख तो अवश्य हुआ;
परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित्ने धनुष हाथमें ले
लिया ॥ १० ॥ वे श्यामवर्णके घोड़ोंसे जुते हुए, सिंहकी
ध्वजावाले, सुसज्जित रथपर सवार होकर दिग्विजय करनेके लिये
नगरसे बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ ११ ॥ उन्होंने भद्राश्व,
केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु
और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओंसे भेंट ली ॥ १२ ॥ उन्हें उन
देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुननेको मिला। उस यशोगानसे पद-पदपर
भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी ॥ १३ ॥ इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको
मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की ज्वाला से किस
प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर
कितना प्रेम था तथा पाण्डवोंकी भगवान् श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी ॥ १४ ॥ जो लोग
उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत
प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते। वे बड़ी
उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
सारथ्यपारषदसेवनसख्यदौत्य-
वीरासनानुगमनस्तवनप्रणामान्
।
स्निग्धेषु
पाण्डुषु जगत्प्रणतिं च विष्णो-
र्भक्तिं
करोति नृपतिश्चरणारविन्दे ॥१६॥
तस्यैवं
वर्तमानस्य पूर्वेषां वृत्तिमन्वहम् ।
नातिदूरे
किलाश्चर्य यदासीत् तन्निबोध मे ॥१७॥
धर्मः
पदैकेन चरन् विच्छायामुपलभ्य गाम् ।
पृच्छति
स्माश्रुवदनां विवत्सामिव मातरम् ॥१८॥
धर्म
उवाच ।
कच्चिद्भद्रेऽनामयमात्मनस्ते
विच्छायासि
म्लायतेषन्मुखेन ।
आलक्षये
भवतीमन्तराधिं
दूरे
बन्धुं शोचसि कञ्चनाम्ब ॥१९॥
पादैर्न्यूनं
शोचासि मैकपाद-
मात्मानं
वा वृषलैर्भोक्ष्यमाणम् ।
आहो
सुरादीन् हृतयज्ञभागान्
प्रजा
उतस्विन्मघवत्यवर्षति ॥२०॥
वे
(परीक्षित् जी) सुनते कि भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रेमपरवश होकर पाण्डवों के सारथि का
काम किया,
उनके सभासद् बने—यहाँतक कि उनके मनके अनुसार
काम करके उनकी सेवा भी की। उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने।
वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते;
इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके
चरणोंमें उन्होंने सारे जगत् को झुका दिया। तब परीक्षित्की भक्ति भगवान्
श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें और भी बढ़ जाती ॥ १६ ॥ इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवोंके
आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही
दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ १७ ॥ धर्म बैल का रूप
धारण करके एक पैर से घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गाय के रूपमें पृथ्वी मिली।
पुत्रकी मृत्युसे दु:खिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुओंके झरने झर रहे थे।
उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ॥ १८ ॥
धर्म
ने कहा—कल्याणि ! कुशलसे तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ
मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है
तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दु:ख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें
चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? ॥ १९ ॥ कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट
गये, एक ही पैर रह गया है ? सम्भव है,
तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शूद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे।
तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब
यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिये भी,
जो वर्षा न होनेके कारण अकाल एवं दुर्भिक्षसे पीडि़त हो रही है ॥ २०
॥
शेष
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प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
अरक्ष्यमाणाः
स्त्रिय उर्वि बालान्
शोचस्यथो
पुरुषादैरिवार्तान् ।
वाचं
देवीं ब्रह्मकुले कुकर्म-
ण्य़ब्रह्मण्ये
राजकुले कुलाग्र्यान् ॥२१॥
किं
क्षत्रबन्धून् कलिनोपसृष्टान्
राष्ट्राणि
वा तैरवरोपितानि ।
इतस्ततो
वाशनपानवास:-
स्नानव्यवायोन्मुखजीवलोकम्
॥२२॥
यद्वाम्ब
ते भूरिभरावतार
कृतावतारस्य
हरेर्धरित्रि ।
अन्तर्हितस्य
स्मरती विसृष्टा
कर्माणि
निर्वाणविलम्बितानि ॥२३॥
इदं
ममाचक्ष्व तवाधिमूलं
वसुन्धरे
येन विकर्शितासि ।
कालेन
वा ते बलिना बलियसा
सुरार्चितं
किं हृतमम्ब सौभगम् ॥२४॥
(बैलरूपी
धर्म गाय के रूपमें पृथ्वी से कहरहे हैं) देवि ! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के
द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकों के लिये शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुलमें
पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओं की सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हें दु:ख हो ॥ २१ ॥ आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने
कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशों को भी उजाड़
डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो ? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान
और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है;
क्या इसके लिये तुम दुखी हो ? ॥ २२ ॥ मा
पृथ्वी ! अब समझमें आया, हो-न-हो तुम्हें भगवान्
श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार
उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो
मोक्षका भी अवलम्बन हैं। अब उनके लीला संवरण कर लेनेपर उनके परित्यागसे तुम दुखी
हो रही हो ॥ २३ ॥ देवि ! तुम तो धन-रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण,
जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ।
मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानोंको भी हरा देनेवाले काल ने
देवताओंके द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्यको छीन लिया है ॥ २४ ॥
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की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
धरण्युवाच
।
भवान्
हि वेद तत्सर्वं यन्मां धर्मानुपृच्छसि ।
चतुर्भिर्वर्तसे
येन पादैर्लोकसुखावहैः ॥२५॥
सत्यं
शौचं दया क्षान्तिस्त्यागः सन्तोष आर्जवम् ।
शमो
दमस्तपः साम्य तितिक्षोपरतिः श्रुतम् ॥२६॥
ज्ञानं
विरक्तिरैश्वर्यं शौर्यं तेजो बलं स्मृतिः ।
स्वातन्त्र्य
कौशलं कान्तिधैर्यं मार्दवमेव च ॥२७॥
प्रागल्भ्यं
प्रश्रयः शीलं सह ओजो बलं भगः ।
गाम्भीर्य
स्थैर्यमास्तिक्यं कीर्तिर्मानोऽनहंकृतिः ॥२८॥
एते
चान्ये च भगवन्नित्या यत्र महागुणाः ।
प्रार्थ्या
महत्वमिच्छद्भिर्न वियन्ति स्म कर्हिचित् ॥२९॥
तेनाहं
गुणपात्रेण श्रीनिवासेन साम्प्रतम् ।
शोचामि
रहितं लोकं पाप्मना कलिनेक्षितम् ॥३०॥
आत्मानं
चानुशोचामि भवन्तं चामरोत्तमम् ।
देवान्
पितृनृषीन् साधुन् सर्वान् वर्णास्तथाऽऽश्रमान् ॥३१॥
पृथ्वीने
कहा—धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं
जानते हो। जिन भगवान्के सहारे तुम सारे संसारको सुख पहुँचानेवाले अपने चारों
चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता,
दया, क्षमा, त्याग,
सन्तोष, सरलता, शम,
दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार,
ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य,
वीरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल,
कान्ति, धैर्य, कोमलता,
निर्भीकता, विनय, शील,
साहस, उत्साह, बल,
सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता,
आस्तिकता, कीर्ति, गौरव
और निरहंकारता—ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी
पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागत- वत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी
सेवा करनेके लिये नित्य-निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके
लिये भी उनसे अलग नहीं होते—उन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय,
सौन्दर्यधाम भगवान् श्रीकृष्णने इस समय इस लोकसे अपनी लीला संवरण
कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही देखकर मुझे बड़ा
शोक हो रहा है ॥ २५—३० ॥ अपने लिये, देवताओंमें
श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर,
ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके
मनुष्योंके लिये मैं शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ ३१ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध-सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
परीक्षित्
की दिग्विजय
तथा
धर्म और पृथ्वी का संवाद
ब्रह्मादयो
बहुतिथं यदपांगमोक्ष
कामास्तपः
समचरन् भगवत्प्रपन्नाः ।
सा
श्रीः स्ववासमरविन्दवनं विहाय
यत्पादसौभगमलं
भजतेऽनुरक्ता ॥३२॥
तस्याहमब्जकुलिशांकुशकेतुकेतैः
श्रीमत्पदैर्भगवतः
समलंकृतांगी ।
त्रीनत्यरोच
उपलभ्य ततो विभूतिं
लोकान्
स मां व्यसृजदुत्स्मयंतीं तदन्ते ॥३३॥
यो
वै ममातिभरमासुरवंशराज्ञा-
मक्षौहिणीशतमपानुददात्मतन्त्रः
।
त्वां
दुःस्थमूनपदमात्मनि पौरुषेण
सम्पादयन्
यदुषु रम्यमबिभ्रदंगम् ॥३४॥
का
वा सहेत विरहं पुरुषोत्तमस्य
प्रमावलोकरुचिरस्मितवल्गुजल्पैः
।
स्थैर्यं
समानमहरन्मधुमानिनीनां
रोमोत्सवो
मम यदंघ्रिविटंकितायाः ॥३५॥
पयोरेवं
कथयतोः पृथिवीधर्मयोस्तदा ।
परिक्षिन्नाम
राजर्षिः प्राप्तः प्राचीं सरस्वतीम् ॥३६॥
(पृथ्वी धर्म से कहरही है) जिनका कृपाकटाक्ष
प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान् के शरणागत होकर बहुत दिनों तक
तपस्या करते रहे,
वही लक्ष्मी जी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे
जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं
भगवान्के कमल, वज्र, अङ्कुश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान्
वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढक़र शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्ने मुझ अभागिनीको छोड़
दिया। मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये
उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ॥ ३२-३३ ॥
तुम
अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अत: अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुन: सब अङ्गों से पूर्ण एवं
स्वस्थ कर देने के लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंश में प्रकट
हुए और मेरे बड़े भारी भार को, जो असुरवंशी राजाओं की
सैंकड़ों अक्षौहिणियों के रूप में था, नष्ट कर डाला। क्योंकि
वे परम स्वतन्त्र थे ॥ ३४ ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर
मुसकान और मीठी-मीठी बातों से सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियों के मान के साथ धीरज को
भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी,
उन पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ ३५ ॥
धर्म
और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित्
पूर्ववाहिनी सरस्वतीके तटपर आ पहुँचे ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां प्रथमस्कन्धे पृथ्वीधर्मसंवादो नाम
षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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