बुधवार, 30 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुक उवाच ।
एवमेतत्पुरा पृष्टो मैत्रेयो भगवान् किल ।
क्षत्त्रा वनं प्रविष्टेन त्यक्त्वा स्वगृह ऋद्धिमत् ॥ १ ॥
यद्वा अयं मंत्रकृद्वो भगवान् अखिलेश्वरः ।
पौरवेन्द्रगृहं हित्वा प्रविवेशात्मसात्कृतम् ॥ २ ॥

राजोवाच ।
कुत्र क्षत्तुर्भगवता मैत्रेयेणास सङ्गमः ।
कदा वा सहसंवाद एतद् वर्णय नः प्रभो ॥ ३ ॥
न ह्यल्पार्थोदयस्तस्य विदुरस्य अमलात्मनः ।
तस्मिन् वरीयसि प्रश्नः साधुवादोपबृंहितः ॥ ४ ॥

सूत उवाच ।
स एवं ऋषिवर्योऽयं पृष्टो राज्ञा परीक्षिता ।
प्रत्याह तं सुबहुवित् प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ५ ॥

श्रीशुक उवाच ।
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून्
    पुष्णन् न धर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून्
    प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ ६ ॥
यदा सभायां कुरुदेवदेव्याः
    केशाभिमर्शं सुतकर्म गर्ह्यम् ।
न वारयामास नृपः स्नुषायाः
    स्वास्रैर्हरन्त्याः कुचकुङ्कुमानि ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोडक़र वनमें गये हुए विदुरजीने भगवान्‌ मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ १ ॥ जब सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोडक़र, उसी विदुरजी के घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ २ ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाप्रभो ! यह तो बतलाइये कि भगवान्‌ मैत्रेय के साथ विदुरजी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? ॥ ३ ॥ पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेयजी से कोई साधारण प्रश्र नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेयजी-जैसे साधुशिरोमणिने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ ४ ॥
सूतजी कहते हैंसर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्‌के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहासुनो ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहने लगेपरीक्षित्‌ ! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्याय- पूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी ॥ ६ ॥ जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दु:शासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्ष:स्थलपर लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धव और विदुर की भेंट

द्यूते त्वधर्मेण जितस्य साधोः
    सत्यावलंबस्य वनं गतस्य ।
न याचतोऽदात् समयेन दायं
    तमोजुषाणो यदजातशत्रोः ॥ ८ ॥
यदा च पार्थप्रहितः सभायां
    जगद्‍गुरुर्यानि जगाद कृष्णः ।
न तानि पुंसां अमृतायनानि
    राजोरु मेने क्षतपुण्यलेशः ॥ ९ ॥
यदोपहूतो भवनं प्रविष्टो
    मंत्राय पृष्टः किल पूर्वजेन ।
अथाह तन्मंत्रदृशां वरीयान्
    यन्मंत्रिणो वैदुरिकं वदन्ति ॥ १० ॥

दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु वनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ ८ ॥ महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णने कौरवोंकी सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ॥ ९ ॥ फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मंत्रियों में श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछनेपर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्रके जाननेवाले पुरुष विदुरनीति कहते हैं ॥ १० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धव और विदुर की भेंट

अजातशत्रोः प्रतियच्छ दायं
    तितिक्षतो दुर्विषहं तवागः ।
सहानुजो यत्र वृकोदराहिः
    श्वसन् रुषा यत्त्वमलं बिभेषि ॥ ११ ॥
पार्थांस्तु देवो भगवान् मुकुन्दो
    गृहीतवान् स क्षितिदेवदेवः ।
आस्ते स्वपुर्यां यदुदेवदेवो
    विनिर्जिताशेष नृदेवदेवः ॥ १२ ॥
स एष दोषः पुरुषद्विडास्ते
    गृहान् प्रविष्टो यमपत्यमत्या ।
पुष्णासि कृष्णाद्विमुखो गतश्रीः
    त्यजाश्वशैवं कुलकौशलाय ॥ १३ ॥

उन्होंने (विदुरजीने धृतराष्ट्र से) कहा—‘महाराज ! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिरको उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराधको भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नागसे तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयोंके सहित बदला लेनेके लिये बड़े क्रोधसे फुफकारें मार रहा है ॥ ११ ॥ आपको पता नहीं, भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंको अपना लिया है। वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वीके सभी बड़े-बड़े राजाओंको अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हींके पक्षमें हैं ॥ १२ ॥ जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान्‌ श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरंत ही त्याग दीजिये ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धव और विदुर की भेंट

इति ऊचिवान् तत्र सुयोधनेन
    प्रवृद्धकोपस्फुरिताधरेण ।
असत्कृतः सत्स्पृहणीयशीलः
    क्षत्ता सकर्णानुजसौबलेन ॥ १४ ॥
क एनमत्रोपजुहाव जिह्मं
    दास्याः सुतं यद्‍बलिनैव पुष्टः ।
तस्मिन् प्रतीपः परकृत्य आस्ते
    निर्वास्यतामाशु पुराच्छ्वसानः ॥ १५ ॥
स इत्थमत्युल्बणकर्णबाणैः
    भ्रातुः पुरो मर्मसु ताडितोऽपि ।
स्वयं धनुर्द्वारि निधाय मायां
    गतव्यथोऽयादुरु मानयानः ॥ १६ ॥

विदुरजीका ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किन्तु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दु:शासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फडक़ने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा—‘अरे ! इस कुटिल दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़े खा-खाकर जीता है, उन्हींके प्रतिकूल होकर शत्रुका काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर निकाल दो॥ १४-१५ ॥ भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और भगवान्‌की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धव और विदुर की भेंट

स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो
    गजाह्वयात् तीर्थपदः पदानि ।
अन्वाक्रमत्पुण्यचिकीर्षयोर्व्यां
    स्वधिष्ठितो यानि सहस्रमूर्तिः ॥ १७ ॥
पुरेषु पुण्योपवनाद्रिकुञ्जे
    ष्वपङ्कतोयेषु सरित्सरःसु ।
अनन्तलिङ्गैः समलङ्कृतेषु
    चचार तीर्थायतनेष्वनन्यः ॥ १८ ॥
गां पर्यटन् मेध्यविविक्तवृत्तिः
    सदाप्लुतोऽधः शयनोऽवधूतः ।
अलक्षितः स्वैरवधूतवेषो
    व्रतानि चेरे हरितोषणानि ॥ १९ ॥

कौरवों को विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्य से प्राप्त हुए थे। वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करने की इच्छा से भूमण्डल में तीर्थपाद भगवान्‌ के क्षेत्रों में विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियों के रूप में विराजमान् हैं ॥ १७ ॥ जहाँ-जहाँ भगवान्‌ की प्रतिमाओं से सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जल से भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानों में वे अकेले ही विचरते रहे ॥ १८ ॥ वे अवधूत-वेष में स्वच्छन्दतापूर्वक पृथ्वी पर विचरते थे, जिससे आत्मीय-जन उन्हें पहचान न सकें। वे शरीर को सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीन पर सोते और भगवान्‌ को प्रसन्न करने वाले व्रतों का पालन करते रहते थे ॥१९॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

उद्धव और विदुर की भेंट

इत्थं व्रजन् भारतमेव वर्षं
    कालेन यावद्‍गतवान् प्रभासम् ।
तावच्छशास क्षितिमेक चक्रां
    एकातपत्रामजितेन पार्थः ॥ २० ॥
तत्राथ शुश्राव सुहृद्‌विनष्टिं
    वनं यथा वेणुज वह्निसंश्रयम् ।
संस्पर्धया दग्धमथानुशोचन्
    सरस्वतीं प्रत्यगियाय तूष्णीम् ॥ २१ ॥
तस्यां त्रितस्योशनसो मनोश्च
    पृथोरथाग्नेरसितस्य वायोः ।
तीर्थं सुदासस्य गवां गुहस्य
    यत् श्राद्धदेवस्य स आसिषेवे ॥ २२ ॥

इस प्रकार भारतवर्ष में ही विचरते-विचरते जब तक वे (विदुर जी) प्रभासक्षेत्र में पहुँचे, तब तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वी का एकच्छत्र अखण्ड राज्य करने लगे थे ॥ २० ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओं के विनाश का समाचार सुना, जो आपस की कलह के कारण परस्पर लड़-भिडक़र उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़ से उत्पन्न हुई आगसे बाँसोंका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे शोक करते हुए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ॥ २१ ॥ वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्रि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्ध- देवके नामोंसे प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

उद्धव और विदुर की भेंट

अन्यानि चेह द्विजदेवदेवैः
    कृतानि नानायतनानि विष्णोः ।
प्रत्यङ्ग मुख्याङ्‌कितमन्दिराणि
    यद्दर्शनात् कृष्णमनुस्मरन्ति ॥ २३ ॥
ततस्त्वतिव्रज्य सुराष्ट्रमृद्धं
    सौवीरमत्स्यान् कुरुजाङ्गलांश्च ।
कालेन तावद्यमुनामुपेत्य
    तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श ॥ २४ ॥
स वासुदेवानुचरं प्रशान्तं
    बृहस्पतेः प्राक्तनयं प्रतीतम् ।
आलिङ्ग्य गाढं प्रणयेन भद्रं
    स्वानां अपृच्छद् भागवत्प्रजानाम् ॥ २५ ॥

इनके सिवा पृथ्वी में ब्राह्मण और देवताओं के स्थापित किये हुए जो भगवान्‌ विष्णु के और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरों पर भगवान्‌ के प्रधान आयुध चक्र के चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्र से श्रीकृष्णका स्मरण हो आता था, उनका भी (विदुर जी ने) सेवन किया ॥ २३ ॥ वहाँ से चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजाङ्गल आदि देशोंमें होते हुए जब कुछ दिनोंमें यमुना-तटपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजीका दर्शन किया ॥ २४ ॥ वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजीके शिष्य रह चुके थे। विदुरजीने उन्हें देखकर प्रेमसे गाढ़ आलिङ्गन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनोंका कुशल-समाचार पूछा ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चित्पुराणौ पुरुषौ स्वनाभ्य
    पाद्मानुवृत्त्येह किलावतीर्णौ ।
आसात उर्व्याः कुशलं विधाय
    कृतक्षणौ कुशलं शूरगेहे ॥ २६ ॥
कच्चित् कुरूणां परमः सुहृन्नो
    भामः स आस्ते सुखमङ्ग शौरिः ।
यो वै स्वसॄणां पितृवद् ददाति
    वरान् वदान्यो वरतर्पणेन ॥ २७ ॥
कच्चिद् वरूथाधिपतिर्यदूनां
    प्रद्युम्न आस्ते सुखमङ्ग वीरः ।
यं रुक्मिणी भगवतोऽभिलेभे
    आराध्य विप्रान् स्मरमादिसर्गे ॥ २८ ॥
कच्चित्सुखं सात्वतवृष्णिभोज
    दाशार्हकाणामधिपः स आस्ते ।
यमभ्यषिञ्चत् शतपत्रनेत्रो
    नृपासनाशां परिहृत्य दूरात् ॥ २९ ॥

विदुरजी कहने लगेउद्धवजी ! पुराणपुरुष बलराम जी और श्रीकृष्ण ने अपने ही नाभिकमल से उत्पन्न हुए ब्रह्माजी की प्रार्थना से इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वी का भार उतारकर सब को आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजी के घर कुशल से रह रहे हैं न ? ॥ २६ ॥ प्रियवर ! हम कुरुवंशियों के परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिता के समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनों को उनके स्वामियों का सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न ? ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धवजी ! यादवों के सेनापति वीरवर प्रद्युम्न जी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्म में कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजी ने ब्राह्मणों की आराधना करके भगवान्‌ से प्राप्त किया था ॥ २८ ॥ सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशाहर्वंशी यादवोंके अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुखसे हैं न, जिन्होंने राज्य पानेकी आशाका सर्वथा परित्याग कर दिया था किन्तु कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जिन्हें फिर से राज्यसिंहासन पर बैठाया ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चिद् हरेः सौम्य सुतः सदृक्ष
    आस्तेऽग्रणी रथिनां साधु साम्बः ।
असूत यं जाम्बवती व्रताढ्या
    देवं गुहं योऽम्बिकया धृतोऽग्रे ॥ ३० ॥
क्षेमं स कच्चिद् युयुधान आस्ते
    यः फाल्गुनात् लब्धधनूरहस्यः ।
लेभेऽञ्जसाधोक्षजसेवयैव
    गतिं तदीयां यतिभिर्दुरापाम् ॥ ३१ ॥
कच्चिद् बुधः स्वस्त्यनमीव
    आस्ते श्वफल्कपुत्रो भगवत्प्रपन्नः ।
यः कृष्णपादाङ्‌कितमार्गपांसु-
    ष्वचेष्टत प्रेमविभिन्नधैर्यः ॥ ३२ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) सौम्य ! अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं ? ये पहले पार्वती जी के द्वारा गर्भमें धारण किये हुए स्वामिकार्तिक हैं । अनेकों व्रत करके जाम्बवती ने इन्हें जन्म दिया था ॥ ३० ॥ जिन्होंने अर्जुन से रहस्ययुक्त धनुर्विद्या की शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक हैं ? वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण की सेवा से अनायास ही भगवज्जनों की उस महान् स्थिति पर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं न, जो श्रीकृष्णके चरण-चिह्नोंसे अङ्कित व्रजके मार्गकी रजमें प्रेमसे अधीर होकर लोटने लगे थे ? ॥ ३२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

उद्धव और विदुर की भेंट

कच्चिच्छिवं देवकभोजपुत्र्या
    विष्णुप्रजाया इव देवमातुः ।
या वै स्वगर्भेण दधार देवं
    त्रयी यथा यज्ञवितानमर्थम् ॥ ३३ ॥
अपिस्विदास्ते भगवान् सुखं वो
    यः सात्वतां कामदुघोऽनिरुद्धः ।
यमामनन्ति स्म हि शब्दयोनिं
    मनोमयं सत्त्वतुरीयतत्त्वम् ॥ ३४ ॥
अपिस्विदन्ये च निजात्मदैवं
    अनन्यवृत्त्या समनुव्रता ये ।
हृदीकसत्यात्मज चारुदेष्ण
    गदादयः स्वस्ति चरन्ति सौम्य ॥ ३५ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) भोजवंशी देवक की पुत्री देवकी जी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदितिके समान ही साक्षात् विष्णुभगवान्‌ की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थको अपने मन्त्रोंमें धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने गर्भमें धारण किया था ॥ ३३ ॥ आप भक्तजनों की कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान्‌ अनिरुद्ध जी सुखपूर्वक हैं न,जिन्हें शास्त्र वेदों के आदिकारण और अन्त:करणचतुष्टय के चौथे अंश मन के अधिष्ठाता बतलाते हैं [*] ॥ ३४ ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! अपने हृदयेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णका अनन्यभावसे अनुसरण करनेवाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान्‌ के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? ॥ ३५ ॥
................................................................................
[*] चित्त, अहंकार, बुद्धि और मनये अन्त:करणके चार अंश है। इनके अधिष्ठाता क्रमश: वासुदेव,सङ्कर्षण,प्रद्युम्न और अनिरुद्ध हैं।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट११)

उद्धव और विदुर की भेंट

अपि स्वदोर्भ्यां विजयाच्युताभ्यां
    धर्मेण धर्मः परिपाति सेतुम् ।
दुर्योधनोऽतप्यत यत्सभायां
    साम्राज्यलक्ष्म्या विजयानुवृत्त्या ॥ ३६ ॥
किं वा कृताघेष्वघमत्यमर्षी
    भीमोऽहिवद्दीर्घतमं व्यमुञ्चत् ।
यस्याङ्‌घ्रिपातं रणभूर्न सेहे
    मार्गं गदायाश्चरतो विचित्रम् ॥ ३७ ॥
कच्चिद् यशोधा रथयूथपानां
    गाण्डीव धन्वोपरतारिरास्ते ।
अलक्षितो यच्छरकूटगूढो
    मायाकिरातो गिरिशस्तुतोष ॥ ३८ ॥
यमावुतस्वित्तनयौ पृथायाः
    पार्थैर्वृतौ पक्ष्मभिरक्षिणीव ।
रेमात उद्दाय मृधे स्वरिक्थं
    परात्सुपर्णाविव वज्रिवक्त्रात् ॥ ३९ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से पूछ रहे हैं) महाराज युधिष्ठिर अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों भुजाओं की सहायता से धर्ममर्यादा का न्यायपूर्वक पालन करते हैं न ? मय दानव की बनायी हुई सभा में इनके राज्यवैभव और दबदबे को देखकर दुर्योधनको बड़ा डाह हुआ था ॥ ३६ ॥
अपराधियोंके प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेनने सर्पके समान दीर्घकालीन क्रोधको छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्धमें तरह-तरहके पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरोंकी धमकसे धरती डोलने लगती थी ॥ ३७ ॥ जिनके बाणोंके जालसे छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसीकी पहचानमें न आनेवाले भगवान्‌ शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियोंका सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? ॥ ३८ ॥ पलक जिस प्रकार नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्तीने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्रीके यमज पुत्र नकुल-सहदेव कुशलसे तो हैं न ? उन्होंने युद्धमें शत्रुसे अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्रके मुखसे अमृत निकाल लायें ॥ ३९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१२)

उद्धव और विदुर की भेंट

अहो पृथापि ध्रियतेऽर्भकार्थे
    राजर्षिवर्येण विनापि तेन ।
यस्त्वेकवीरोऽधिरथो विजिग्ये
    धनुर्द्वितीयः ककुभश्चतस्रः ॥ ४० ॥
सौम्यानुशोचे तमधःपतन्तं
    भ्रात्रे परेताय विदुद्रुहे यः ।
निर्यापितो येन सुहृत्स्वपुर्या
    अहं स्वपुत्रान् समनुव्रतेन ॥ ४१ ॥
सोऽहं हरेर्मर्त्यविडम्बनेन
    दृशो नृणां चालयतो विधातुः ।
नान्योपलक्ष्यः पदवीं प्रसादात्
    चरामि पश्यन् गतविस्मयोऽत्र ॥ ४२ ॥

(विदुरजी उद्धवजी से कहरहे हैं) अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डु के वियोग में मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकों के लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियों में श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओं को जीत लिया था ॥ ४० ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अध:पतन की ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्र के लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवों के रूप में अपने परलोकवासी भाई पाण्डु से ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रोंकी हाँ-में-हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगरसे निकलवा दिया ॥ ४१ ॥ किंतु भाई ! मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगों की मनोवृत्तियों को भ्रमित कर देते हैं । मैं तो उन्हींकी  कृपा से उनकी महिमा को देखता हुआ दूसरों की दृष्टि से दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१३)

उद्धव और विदुर की भेंट

नूनं नृपाणां त्रिमदोत्पथानां
    महीं मुहुश्चालयतां चमूभिः ।
वधात्प्रपन्नार्तिजिहीर्षयेशोऽपि
    उपैक्षताघं भगवान् कुरूणाम् ॥ ४३ ॥
अजस्य जन्मोत्पथनाशनाय
    कर्माण्यकर्तुर्ग्रहणाय पुंसाम् ।
नन्वन्यथा कोऽर्हति देहयोगं
    परो गुणानामुत कर्मतंत्रम् ॥ ४४ ॥
तस्य प्रपन्नाखिललोकपानां
    अवस्थितानां अनुशासने स्वे ।
अर्थाय जातस्य यदुष्वजस्य
    वार्तां सखे कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ ४५ ॥

(विदुरजी कहरहे हैं) यद्यपि कौरवोंने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्‌ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओं को भी मारकर अपने शरणागतों का दु:ख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वी को कँपा रहे थे ॥ ४३ ॥ उद्धवजी ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण जन्म और कर्म से रहित हैं; फिर भी दुष्टों का नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म-कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्‌की तो बात ही क्यादूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पडऩा चाहेगा ॥ ४४ ॥ अत: मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तोंका प्रिय करनेके लिये यदुकुलमें जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी बातें सुनाओ ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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मुकुंद माधव गोविन्द बोल | केशव माधव हरि हरि बोल || हरि हरि बोल हरि हरि बोल | कृष्ण कृष्ण बोल कृष्ण कृष्ण बोल ||






विवेकीजन सङ्ग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बन्धन मानते हैं; किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ॥

प्रसङ्गमजरं पाशं आत्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारं अपावृतम् ॥

....श्रीमद्भागवत..३|२५|२३




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...