मंगलवार, 12 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

स होवाच
स एष देहात्ममानिनां सत्त्वादिगुणविशेषविकल्पित-कुशलाकुशल-समवहारविनिर्मित-विविधदेहावलिभिर्वियोगसंयोगाद्यनादिसंसारानुभवस्य द्वारभूतेन षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन्दुर्गाध्ववदसुगमेऽध्वन्यापतित ईश्वरस्य भगवतो विष्णोर्वशवर्तिन्या मायया जीवलोकोऽयं यथा वणिक्सार्थोऽर्थपरः स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभवः श्मशानवदशिवतमायां संसाराटव्यां गतो नाद्यापि विफलबहुप्रतियोगेह-स्तत्तापोपशमनीं हरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवीमवरुन्धे ||||
यस्यामु ह वा एते षडिन्द्रियनामानः कर्मणा दस्यव एव ते तद्यथा पुरुषस्य धनं यत्किञ्चिद्धर्मौपयिकं बहुकृच्छ्राधिगतं साक्षात्परम-पुरुषाराधनलक्षणो योऽसौ धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति तद्धर्म्यं धनं दर्शनस्पर्शनश्रवणास्वादनावघ्राणसङ्कल्पव्यवसायगृहग्राम्योपभोगेन कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्य विलुम्पन्ति ||||
अथ च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो नाम्ना कर्मणा वृकसृगाला एवानिच्छतोऽपि कदर्यस्य कुटुम्बिन उरणकवत्संरक्ष्यमाणं मिषतोऽपि हरन्ति ||||
यथा ह्यनुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं क्षेत्रं पुनरेवावपनकाले गुल्मतृणवीरुद्भिर्गह्वरमिव भवत्येवमेव गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं यस्मिन्न हि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एष आवसथः ||||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! देहाभिमानी जीवोंके द्वारा सत्त्वादि गुणोंके भेदसे शुभ, अशुभ और मिश्रतीन प्रकारके कर्म होते रहते हैं। उन कर्मोंके द्वारा ही निर्मित नाना प्रकारके शरीरोंके साथ होनेवाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीवको प्राप्त होता है, उसके अनुभवके छ: द्वार हैंमन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश होकर यह जीवसमूह मार्ग भूलकर भयङ्कर वनमें भटकते हुए धनके लोभी बनिजारोंके समान परमसमर्थ भगवान्‌ विष्णुके आश्रित रहनेवाली मायाकी प्रेरणासे बीहड़ वनके समान दुर्गम मार्गमें पडक़र संसार-वनमें जा पहुँचता है। यह वन श्मशानके समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीरसे किये हुए कर्मोंका फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेकों विघ्रोंके कारण उसे अपने व्यापारमें सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रमको शान्त करनेवाले श्रीहरि एवं गुरुदेवके चरणारविन्द-मकरन्द-मधुके रसिक भक्त-भ्रमरोंके मार्गका अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वनमें मनसहित छ: इन्द्रियाँ ही अपने कर्मोंकी दृष्टिसे डाकुओंके समान हैं ॥ १ ॥ पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्ममें होना चाहिये; वही धर्म यदि साक्षात् भगवान्‌ परमपुरुषकी आराधनाके रूपमें होता है तो उसे परलोकमें नि:श्रेयसका हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्यका बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वशमें नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धनको ये मनसहित छ: इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूँघना, संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करनाइन वृत्तियोंके द्वारा गृहस्थोचित विषयभोगोंमें फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती हैं, जिस प्रकार बेईमान मुखियाका अनुगमन करनेवाले एवं असावधान बनिजारोंके दलका धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं ॥ २ ॥ ये ही नहीं, उस संसार-वनमें रहनेवाले उसके कुटुम्बी भीजो नामसे तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेडिय़ों और गीदड़ोंके समान होते हैंउस अर्थलोलुप कुटुम्बीके धनको उसकी इच्छा न रहनेपर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेडिय़े गड़रियोंसे सुरक्षित भेड़ोंको उठा ले जाते हैं ॥ ३ ॥ जिस प्रकार यदि किसी खेतके बीजोंको अग्रिद्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतनेपर भी खेतीका समय आनेपर वह फिर झाड़- झंखाड़, लता और तृण आदिसे गहन हो जाता हैउसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मोंका सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओंकी पिटारी है ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

तत्र गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः शलभ शकुन्त तस्कर मूषकादिभिरुपरुध्यमानबहिः प्राणः क्वचित्परिवर्तमानोऽस्मिन्नध्वन्यविद्या कामकर्मभिरुपरक्तमनसानुपपन्नार्थं नरलोकं गन्धर्वनगरमुपपन्नमिति मिथ्यादृष्टिरनुपश्यति ||||
तत्र च क्वचिदातपोदकनिभान्विषयानुपधावति पानभोजनव्यवायादिव्यसनलोलुपः||||
क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं पुरीषविशेषं तद्वर्णगुणनिर्मितमतिः
सुवर्णमुपादित्सत्यग्निकामकातर इवोल्मुकपिशाचम् ||||
अथ कदाचिन्निवासपानीयद्रविणाद्यनेकात्मोपजीवनाभिनिवेश एतस्यां संसाराटव्यामितस्ततः परिधावति ||||
क्वचिच्च वात्यौपम्यया प्रमदयारोहमारोपितस्तत्कालरजसा रजनीभूत इवासाधुमर्यादो रजस्वलाक्षोऽपि दिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न विजानाति ||||
क्वचित्सकृदवगतविषयवैतथ्यः स्वयं पराभिध्यानेन विभ्रंशित-स्मृतिस्तयैव मरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति ||१०||
क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटोपं प्रत्यक्षं परोक्षं वा रिपुराजकुलनिर्भर्त्सितेनातिव्यथितकर्णमूलहृदयः ||११||

उस गृहस्थाश्रममें आसक्त हुए व्यक्तिके धनरूप बाहरी प्राणोंको डाँस और मच्छरोंके समान नीच पुरुषोंसे तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदिसे क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्गमें भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कर्मोंसे कलुषित हुए अपने चित्तसे दृष्टिदोषके कारण इस मर्त्यलोक को, जो गन्धर्वनगरके समान असत् है, सत्य समझने लगता है ॥ ५ ॥ फिर खान-पान और स्त्री-प्रसङ्गादि व्यसनोंमें फँसकर मृगतृष्णाके समान मिथ्या विषयोंकी ओर दौडऩे लगता है ॥ ६ ॥ कभी बुद्धिके रजोगुणसे प्रभावित होनेपर सारे अनर्थोंकी जड़ अग्रिके मलरूप सोनेको ही सुखका साधन समझकर उसे पानेके लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वनमें जाड़ेसे ठिठुरता हुआ पुरुष अग्रिके लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाचकी (अगिया- बेतालकी) ओर उसे आग समझकर दौड़े ॥ ७ ॥ कभी इस शरीरको जीवित रखनेवाले घर, अन्न-जल और धन आदिमें अभिनिवेश करके इस संसारारण्यमें इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है ॥ ८ ॥ कभी बवंडरके समान आँखोंमें धूल झोंक देनेवाली स्त्री गोदमें बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषोंकी मर्यादाका भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रोंमें रजोगुणकी धूल भर जानेसे बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मोंके साक्षी दिशाओंके देवताओंको भी भुला देता है ॥ ९ ॥ कभी अपने-आप ही एकाध बार विषयोंका मिथ्यात्व जान लेनेपर भी अनादिकालसे देहमें आत्मबुद्धि रहनेसे विवेक-बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण उन मरुमरीचिकातुल्य विषयोंकी ओर ही फिर दौडऩे लगता है ॥ १० ॥ कभी प्रत्यक्ष शब्द करनेवाले उल्लू के समान शत्रुओं की और परोक्षरूप से बोलनेवाले झींगुरों के समान राजा की अति कठोर एवं दिल को दहला देनेवाली डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बड़ी व्यथा होती है ॥११ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

स यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदा कारस्करकाकतुण्डाद्यपुण्यद्रुमलता-विषोदपानवदुभयार्थशून्यद्रविणान्जीवन्मृतान्स्वयं जीवन्म्रियमाण उपधावति ||१२||
एकदा सत्प्रसङ्गान्निकृतमतिर्व्युदकस्रोतः स्खलनवदुभयतोऽपि दुःखदं
पाखण्डमभियाति ||१३||
यदा तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति तदा हि पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान्वा स खलु भक्षयति ||१४||
क्वचिदासाद्य गृहं दाववत्प्रियार्थविधुरमसुखोदर्कं शोकाग्निना दह्यमानो भृशं निर्वेदमुपगच्छति ||१५||
क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहृतप्रियतमधनासुः प्रमृतक इव विगतजीवलक्षण आस्ते ||१६||
कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यसत्सदिति स्वप्ननिर्वृतिलक्षणमनुभवति ||१७||
क्वचिद्गृहाश्रमकर्मचोदनातिभरगिरिमारुरुक्षमाणो लोकव्यसनकर्षितमनाः कण्टकशर्कराक्षेत्रं प्रविशन्निव सीदति ||१८||
क्वचिच्च दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना गृहीतसारः स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ||१९||
स एव पुनर्निद्राजगरगृहीतोऽन्धे तमसि मग्नः शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किञ्चन वेद शव इवापविद्धः ||२०||

पूर्वपुण्य क्षीण हो जानेपर यह जीवित ही मुर्देके समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलोंवाले पापवृक्षों, इसी प्रकारकी दूषित लताओं और विषैले कुओंके समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनोंके ही काममें नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्देके समान हैंउन कृपण पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥ १२ ॥ कभी असत् पुरुषोंके सङ्गसे बुद्धि बिगड़ जानेके कारण सूखी नदीमें गिरकर दुखी होनेके समान इस लोक और परलोकमें दु:ख देनेवाले पाखण्डमें फँस जाता है ॥ १३ ॥ जब दूसरोंको सतानेसे उसे अन्न भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रोंको अथवा पिता या पुत्र आदिका एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खानेके लिये तैयार हो जाता है ॥ १४ ॥ कभी दावानलके समान प्रिय विषयोंसे शून्य एवं परिणाममें दु:खमय घरमें पहुँचता है, तो वहाँ इष्टजनोंके वियोगादिसे उसके शोककी आग भडक़ उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है ॥ १५ ॥ कभी कालके समान भयङ्कर राजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धन-रूप प्राणोंको हर लेता है, तो यह मरे हुएके समान निर्जीव हो जाता है ॥ १६ ॥ कभी मनोरथके पदार्थोंके समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धोंको सत्य समझकर उनके सहवाससे स्वप्नके समान क्षणिक सुखका अनुभव करता है ॥ १७ ॥ गृहस्थाश्रमके लिये जिस कर्मविधिका महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वतकी कड़ी चढ़ाईके समान ही है। लोगोंको उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखादेखी जब यह भी उसे पूरा करनेका प्रयत्न करता है, तब तरह-तरहकी कठिनाइयोंसे क्लेशित होकर काँटे और कंकड़ोंसे भरी भूमिमें पहुँचे हुए व्यक्तिके समान दुखी हो जाता है ॥ १८ ॥ कभी पेटकी असह्य ज्वालासे अधीर होकर अपने कुटुम्बपर ही बिगडऩे लगता है ॥ १९ ॥ फिर जब निद्रारूप अजगरके चंगुलमें फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकारमें डूबकर सूने वनमें फेंके हुए मुर्देके समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बातकी सुधि नहीं रहती ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

कदाचिद्भग्नमानदंष्ट्रो दुर्जनदन्दशूकैरलब्धनिद्रा क्षणो व्यथित
हृदयेनानुक्षीयमाणविज्ञानोऽन्धकूपेऽन्धवत्पतति ||२१||
कर्हि स्म चित्काममधुलवान्विचिन्वन्यदा परदारपरद्रव्याण्यवरुन्धानो राज्ञा स्वामिभिर्वा निहतः पतत्यपारे निरये ||२२||
अथ च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मिन्नात्मनः संसारावपनमुदाहरन्ति ||२३||
मुक्तस्ततो यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थितिः ||२४||
क्वचिच्च शीतवाताद्यनेकाधिदैविकभौतिकात्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो दुरन्तचिन्तया विषण्ण आस्ते ||२५||
क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किञ्चिद्धनमन्येभ्यो वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन्यत्किञ्चिद्वा विद्वेषमेति वित्तशाठ्यात् ||२६||

कभी दुर्जनरूप काटनेवाले जीव इतना काटतेतिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरोंको काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्तिके कारण नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदनाके कारण क्षण-क्षणमें विवेक-शक्ति क्षीण होते रहनेसे अन्तमें अंधेकी भाँति यह नरकरूप अँधे कुएँमें जा गिरता है ॥ २१ ॥ कभी विषयसुखरूप मधुकणोंको ढू़ँढते-ढू़ँढते जब यह लुक- छिपकर परस्त्री या परधनको उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजाके हाथसे मारा जाकर ऐसे नरकमें जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है ॥ २२ ॥ इसीसे ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्गमें रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकारके कर्म जीवको संसारकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ २३ ॥ यदि किसी प्रकार राजा आदिके बन्धनसे छूट भी गया, तो अन्यायसे अपहरण किये हुए उन स्त्री और धनको देवदत्त नामका कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नामका कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुषसे दूसरे पुरुषके पास जाते रहते हैं, एक स्थानपर नहीं ठहरते ॥ २४ ॥ कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:खकी स्थितियोंके निवारण करनेमें समर्थ न होनेसे यह अपार चिन्ताओंके कारण उदास हो जाता है ॥ २५ ॥ कभी परस्पर लेन-देनका व्यवहार करते समय किसी दूसरेका थोड़ा-सादमड़ीभर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बेईमानीके कारण उससे वैर ठन जाता है ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

अध्वन्यमुष्मिन्निम उपसर्गास्तथा सुखदुःखरागद्वेषभयाभिमानप्रमादोन्माद शोक मोह लोभ मात्सर्येर्ष्यावमान क्षुत्पिपासाधिव्याधिजन्मजरामरणादयः ||२७||
क्वापि देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढः प्रस्कन्नविवेकविज्ञानो यद्विहारगृहारम्भाकुलहृदयस्तदाश्रयावसक्त सुतदुहितृकलत्रभाषितावलोकविचेष्टितापहृतहृदय आत्मानमजितात्मापारेऽन्धे तमसि प्रहिणोति ||२८||

(शुकदेव जी कह रहे हैं) राजन् ! इस मार्गमें पूर्वोक्त विघ्नों के अतिरिक्त सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न हैं ॥ २७ ॥ (इस विघ्नबहुल मार्ग में इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्रीके बाहुपाशमें पडक़र विवेकहीन हो जाता है। तब उसीके लिये विहारभवन आदि बनवानेकी चिन्तामें ग्रस्त रहता है तथा उसीके आश्रित रहनेवाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियोंके मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओंमें आसक्त होकर, उन्हींमें चित्त फँस जानेसे वह इन्द्रियोंका दास अपार अन्धकारमय नरकोंमें गिरता है ॥ २८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

कदाचिदीश्वरस्य भगवतो विष्णोश्चक्रात्परमाण्वादि द्विपरार्धापवर्ग-
कालोपलक्षणात्परिवर्तितेन वयसा रंहसा हरत आब्रह्मतृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो मिषतां वित्रस्तहृदयस्तमेवेश्वरं कालचक्रनिजायुधं साक्षाद्भगवन्तं यज्ञपुरुषमनादृत्य पाखण्डदेवताः कङ्कगृध्रबकवटप्राया आर्यसमयपरिहृताः साङ्केत्येनाभिधत्ते ||२९||
यदा पाखण्डिभिरात्मवञ्चितैस्तैरुरु वञ्चितो ब्रह्मकुलं समावसंस्तेषां
शीलमुपनयनादिश्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानेन भगवतो यज्ञपुरुषस्याराधनमेव तदरोचयन्शूद्र कुलं भजते निगमाचारेऽशुद्धितो यस्य मिथनीभावः कुटुम्बभरणं यथा वानरजातेः ||३०||
तत्रापि निरवरोधः स्वैरेण विहरन्नतिकृपणबुद्धिरन्योन्यमुखनिरीक्षणादिना ग्राम्यकर्मणैव विस्मृतकालावधिः ||३१||

कालचक्र साक्षात् भगवान्‌ विष्णुका आयुध है। वह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी आदि अवयवोंसे युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलनेवाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतोंका निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गतिमें बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना छोडक़र यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियोंके चक्करमें पडक़र उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेरके समान आर्यशास्त्र-बहिष्कृत देवताओंका आश्रय लेता हैजिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमोंने ही उल्लेख किया है ॥ २९ ॥ ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखेमें हैं; जब यह भी उनकी ठगाईमें आकर दुखी होता है, तब ब्राह्मणोंकी शरण लेता है। किन्तु उपनयन-संस्कारके अनन्तर श्रौत-स्मार्तकर्मोंसे भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी आराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता; इसलिये वेदोक्त आचारके अनुकूल अपनेमें शुद्धि न होनेके कारण यह कर्म-शून्य शूद्रकुलमें प्रवेश करता है, जिसका स्वभाव वानरोंके समान केवल कुटुम्बपोषण और स्त्रीसेवन करना ही है ॥ ३० ॥ वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहार करनेसे इसकी बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरेका मुख देखना आदि विषय-भोगोंमें फँसकर इसे अपने मृत्युकालका भी स्मरण नहीं होता ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थेषु गृहेषु रंस्यन्यथा वानरः सुतदारवत्सलो व्यवायक्षणः ||३२||
एवमध्वन्यवरुन्धानो मृत्युगजभयात्तमसि गिरिकन्दरप्राये ||३३||
क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिकात्मीयानां दुःखानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो दुरन्तविषयविषण्ण आस्ते ||३४||
क्वचिन्मिथो व्यवहरन्यत्किञ्चिद्धनमुपयाति वित्तशाठ्येन ||३५||
क्वचित्क्षीणधनः शय्यासनाशनाद्युपभोगविहीनो यावदप्रतिलब्ध-मनोरथोपगतादानेऽवसितमतिस्ततस्ततोऽवमानादीनि जनादभिलभते ||३६||
एवं वित्तव्यतिषङ्गविवृद्धवैरानुबन्धोऽपि पूर्ववासनया मिथ उद्वहत्यथापवहति ||३७||

वृक्षोंके समान जिनका लौकिक सुख ही फल हैउन घरोंमें ही सुख मानकर वानरोंकी भाँति स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगोंमें ही बिता देता है ॥ ३२ ॥ इस प्रकार प्रवृत्तिमार्गमें पडक़र सुख-दु:ख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरि-गुहामें फँसकर उसमें रहनेवाले मृत्युरूप हाथीसे डरता रहता है ॥ ३३ ॥ कभी-कभी शीत, वायु आदि अनेक प्रकारके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:खोंकी निवृत्ति करनेमें जब असफल हो जाता है, तब उस समय अपार विषयोंकी चिन्तासे यह खिन्न हो उठता है ॥ ३४ ॥ कभी आपसमें क्रय-विक्रय आदि व्यापार करनेपर बहुत कंजूसी करनेसे इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है ॥ ३५ ॥ कभी धन नष्ट हो जानेसे जब इसके पास सोने, बैठने और खाने आदिकी भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिलनेसे यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायोंसे पानेका निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरोंके हाथसे बहुत अपमानित होना पड़ता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार धनकी आसक्तिसे परस्पर वैरभाव बढ़ जानेपर भी यह अपनी पूर्ववासनाओंसे विवश होकर आपसमें विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

भवाटवीका स्पष्टीकरण

एतस्मिन्संसाराध्वनि नानाक्लेशोपसर्गबाधित आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह वावेतरस्तत्र विसृज्य जातं जातमुपादाय शोचन्मुह्यन्बिभ्यद् विवदन्क्रन्दन्संहृष्यन्गायन्नह्यमानः साधुवर्जितो नैवावर्ततेऽद्यापि यत आरब्ध एष नरलोकसार्थो यमध्वनः पारमुपदिशन्ति ||३८||

इस संसारमार्गमें चलनेवाला यह जीव अनेक प्रकारके क्लेश और विघ्न-बाधाओंसे बाधित होनेपर भी मार्गमें जिसपर जहाँ आपत्ति आती है, अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ देता है; तथा नये जन्मे हुओंको साथ लगाता है, कभी किसीके लिये शोक करता है, किसीका दु:ख देखकर मूर्च्छित हो जाता है, किसीके वियोग होनेकी आशङ्कासे भयभीत हो उठता है, किसीसे झगडऩे लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने-चिल्लाने लगता है, कहीं कोई मनके अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नताके मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी उन्हींके लिये बँधनेमें भी नहीं हिचकता। साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधुसङ्ग से सदा वञ्चित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है। जहाँसे इसकी यात्रा आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्गकी अन्तिम अवधि कहते हैं, उस परमात्माके पास यह अभीतक नहीं लौटा है ॥ ३८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

यदिदं योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला उपरतात्मानः समवगच्छन्ति ||३९||
यदपि दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षयः किं तु परं मृधे शयीरन्नस्यामेव ममेयमिति कृतवैरानुबन्धायां विसृज्य स्वयमुपसंहृताः ||४०||
कर्मवल्लीमवलम्ब्य तत आपदः कथञ्चिन्नरकाद्विमुक्तः पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानो नरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरि गतोऽपि ||४१||

परमात्मा तक तो योगशास्त्र की भी गति नहीं है; जिन्होंने सब प्रकारके दण्ड (शासन)का त्याग कर दिया है, वे निवृत्तिपरायण संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ॥ ३९ ॥ जो दिग्गजोंको जीतनेवाले और बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले राजर्षि हैं उनकी भी वहाँतक गति नहीं है। वे संग्रामभूमिमें शत्रुओंका सामना करके केवल प्राणपरित्याग ही करते हैं तथा जिसमें यह मेरी हैऐसा अभिमान करके वैर ठाना थाउस पृथ्वीमें ही अपना शरीर छोडक़र स्वयं परलोकको चले जाते हैं। इस संसारसे वे भी पार नहीं होते ॥ ४० ॥ अपने पुण्यकर्मरूप लताका आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियोंसे अथवा नरकसे छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्गमें भटकता हुआ इस जनसमुदायमें मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों में जानेवालोंकी भी है ॥ ४१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भवाटवीका स्पष्टीकरण

तस्येदमुपगायन्ति--
आर्षभस्येह राजर्षेर्मनसापि महात्मनः
नानुवर्त्मार्हति नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ||४२||
यो दुस्त्यजान्दारसुतान्सुहृद्राज्यं हृदिस्पृशः
जहौ युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालसः ||४३||
यो दुस्त्यजान्क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्
प्रार्थ्यां श्रियं सुरवरैः सदयावलोकाम्
नैच्छन्नृपस्तदुचितं महतां मधुद्विट्
सेवानुरक्तमनसामभवोऽपि फल्गुः ||४४||
यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाय
योगाय साङ्ख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय
नारायणाय हरये नम इत्युदारं
हास्यन्मृगत्वमपि यः समुदाजहार ||४५||
य इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं धन्यं यशस्यं स्वर्ग्यापवर्ग्यं वानुशृणोत्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष आत्मन आशास्ते न काञ्चन परत इति ||४६||

राजन् ! राजर्षि भरतके विषयमें पण्डितजन ऐसा कहते हैं—‘जैसे गरुडजी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा भरतके मार्गका कोई अन्य राजा मनसे भी अनुसरण नहीं कर सकता ॥ ४२ ॥ उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर अति मनोरम स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादिको युवावस्थामें ही विष्ठाके समान त्याग दिया था; दूसरोंके लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है ॥ ४३ ॥ उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और स्त्रीकी तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टिके लिये उनपर दृष्टिपात करती रहती थीउस लक्ष्मीकी भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था; क्योंकि जिन महानुभावोंका चित्त भगवान्‌ मधुसूदनकी सेवामें अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टिमें मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ॥ ४४ ॥ उन्होंने मृगशरीर छोडऩेकी इच्छा होनेपर उच्चस्वरसे कहा था कि धर्मकी रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठानमें निपुण, योगगम्य, सांख्यके प्रतिपाद्य, प्रकृतिके अधीश्वर, यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरिको नमस्कार है।॥ ४५ ॥
राजन् ! राजर्षि भरतके पवित्र गुण और कर्मोंकी भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धनकी वृद्धि करनेवाला, लोकमें सुयश बढ़ानेवाला और अन्तमें स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है। जो पुरुष इसे सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उसकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं; दूसरों से उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतोपाख्याने पारोक्ष्यविवरणं नाम चतुर्दशोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश

ब्राह्मण उवाच
दुरत्ययेऽध्वन्यजया निवेशितो रजस्तमःसत्त्वविभक्तकर्मदृक्
स एष सार्थोऽर्थपरः परिभ्रमन्भवाटवीं याति न शर्म विन्दति ||१||
यस्यामिमे षण्नरदेव दस्यवः सार्थं विलुम्पन्ति कुनायकं बलात्
गोमायवो यत्र हरन्ति सार्थिकं प्रमत्तमाविश्य यथोरणं वृकाः ||२||
प्रभूतवीरुत्तृणगुल्मगह्वरे कठोरदंशैर्मशकैरुपद्रुतः
क्वचित्तु गन्धर्वपुरं प्रपश्यति क्वचित्क्वचिच्चाशुरयोल्मुकग्रहम् ||३||
निवासतोयद्रविणात्मबुद्धिस्ततस्ततो धावति भो अटव्याम्
क्वचिच्च वात्योत्थितपांसुधूम्रा दिशो न जानाति रजस्वलाक्षः ||४||
अदृश्यझिल्लीस्वनकर्णशूल उलूकवाग्भिर्व्यथितान्तरात्मा
अपुण्यवृक्षान्श्रयते क्षुधार्दितो मरीचितोयान्यभिधावति क्वचित् ||५||
क्वचिद्वितोयाः सरितोऽभियाति परस्परं चालषते निरन्धः
आसाद्य दावं क्वचिदग्नितप्तो निर्विद्यते क्व च यक्षैर्हृतासुः ||६||

जडभरतने कहाराजन् ! यह जीवसमूह सुखरूप धनमें आसक्त देश-देशान्तरमें घूम-फिरकर व्यापार करनेवाले व्यापारियोंके दलके समान है। इसे मायाने दुस्तर प्रवृत्तिमार्गमें लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तामस भेदसे नाना प्रकारके कर्मोंपर ही जाती है। उन कर्मोंमें भटकता-भटकता यह संसाररूप जंगलमें पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती ॥ १ ॥ महाराज ! उस जंगलमें छ: डाकू हैं। इस वणिक्-समाजका नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्वमें जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं। तथा भेडिय़े जिस प्रकार भेड़ोंके झुंडमें घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहनेवाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धनको इधर-उधर खींचने लगते हैं ॥ २ ॥ वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाडक़े कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डाँस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्वनगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चञ्चल अगिया-बेताल आँखोंके सामने आ जाता है ॥ ३ ॥ यह वणिक्-समुदाय इस वनमें निवासस्थान, जल और धनादिमें आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है। कभी बवंडरसे उठी हुई धूलके द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित-सी हो जाती हैं और इसकी आँखोंमें भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओंका ज्ञान भी नहीं रहता ॥ ४ ॥ कभी इसे दिखायी न देनेवाले झींगुरोंका कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओंकी बोलीसे इसका चित्त व्यथित हो जाता है। कभी इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षोंका ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्याससे व्याकुल होकर मृगतृष्णाकी ओर दौड़ लगाता है ॥ ५ ॥ कभी जलहीन नदियोंकी ओर जाता है, कभी अन्न न मिलनेपर आपसमें एक-दूसरेसे भोजनप्राप्तिकी इच्छा करता है, कभी दावानलमें घुसकर अग्रिसे झुलस जाता है और कभी यक्षलोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है ॥ ६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश

शूरैर्हृतस्वः क्व च निर्विण्णचेताः शोचन्विमुह्यन्नुपयाति कश्मलम्
क्वचिच्च गन्धर्वपुरं प्रविष्टः प्रमोदते निर्वृतवन्मुहूर्तम् ||७||
चलन्क्वचित्कण्टकशर्कराङ्घ्रिर्नगारुरुक्षुर्विमना इवास्ते
पदे पदेऽभ्यन्तरवह्निनार्दितः कौटुम्बिकः क्रुध्यति वै जनाय ||८||
क्वचिन्निगीर्णोऽजगराहिना जनो नावैति किञ्चिद्विपिनेऽपविद्धः
दष्टः स्म शेते क्व च दन्दशूकैरन्धोऽन्धकूपे पतितस्तमिस्रे ||९||
कर्हि स्म चित्क्षुद्र रसान्विचिन्वंस्तन्मक्षिकाभिर्व्यथितो विमानः
तत्रातिकृच्छ्रात्प्रतिलब्धमानो बलाद्विलुम्पन्त्यथ तं ततोऽन्ये ||१०||
क्वचिच्च शीतातपवातवर्ष प्रतिक्रियां कर्तुमनीश आस्ते
क्वचिन्मिथो विपणन्यच्च किञ्चिद्विद्वेषमृच्छत्युत वित्तशाठ्यात् ||११||
क्वचित्क्वचित्क्षीणधनस्तु तस्मिन्शय्यासनस्थानविहारहीनः
याचन्परादप्रतिलब्धकामः पारक्यदृष्टिर्लभतेऽवमानम् ||१२||
अन्योन्यवित्तव्यतिषङ्गवृद्ध वैरानुबन्धो विवहन्मिथश्च
अध्वन्यमुष्मिन्नुरुकृच्छ्रवित्त बाधोपसर्गैर्विहरन्विपन्नः ||१३||

कभी अपनेसे अधिक बलवान लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुखी होकर शोक और मोहसे अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्वनगरमें पहुँचकर घड़ीभरके लिये सब दु:ख भूलकर खुशी मनाने लगता है ॥ ७ ॥ कभी पर्वतोंपर चढऩा चाहता है तो काँटे और कंकड़ोंद्वारा पैर चलनी हो जानेसे उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदरपूर्तिका साधन नहीं होता तो भूखकी ज्वालासे सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु-बान्धवोंपर खीझने लगता है ॥ ८ ॥ कभी अजगर सर्पका ग्रास बनकर वनमें फेंके हुए मुर्देके समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विषके प्रभावसे अंधा होकर किसी अँधे कुएँमें गिर पड़ता है और घोर दु:खमय अन्धकारमें बेहोश पड़ा रहता है ॥ ९ ॥ कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाकमें दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयोंका सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं ॥ १० ॥ कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षासे अपनी रक्षा करनेमें असमर्थ हो जाता है। कभी आपसमें थोड़ा-बहुत व्यापार करता है, तो धनके लोभसे दूसरोंको धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है ॥ ११ ॥ कभी-कभी उस संसारवनमें इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहनेके लिये स्थान और सैर-सपाटेके लिये सवारी आदि भी नहीं रहते। तब दूसरोंसे याचना करता है; माँगनेपर भी दूसरेसे जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओंपर अनुचित दृष्टि रखनेके कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना पड़ता है ॥ १२ ॥ इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्धके कारण एक-दूसरेसे द्वेषभाव बढ़ जानेपर भी वह वणिक्समूह आपसमें विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्गमें तरह-तरहके कष्ट और धनक्षय आदि संकटोंको भोगते-भोगते मृतकवत् हो जाता है ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश

तांस्तान्विपन्नान्स हि तत्र तत्र विहाय जातं परिगृह्य सार्थः
आवर्ततेऽद्यापि न कश्चिदत्र वीराध्वनः पारमुपैति योगम् ||१४||
मनस्विनो निर्जितदिग्गजेन्द्रा ममेति सर्वे भुवि बद्धवैराः
मृधे शयीरन्न तु तद्व्रजन्ति यन्न्यस्तदण्डो गतवैरोऽभियाति ||१५
प्रसज्जति क्वापि लताभुजाश्रयस्तदाश्रयाव्यक्तपदद्विजस्पृहः
क्वचित्कदाचिद्धरिचक्रतस्त्रसन्सख्यं विधत्ते बककङ्कगृध्रैः ||१६||
तैर्वञ्चितो हंसकुलं समाविशन्नरोचयन्शीलमुपैति वानरान्
तज्जातिरासेन सुनिर्वृतेन्द्रियः परस्परोद्वीक्षणविस्मृतावधिः ||१७||
द्रुमेषु रंस्यन्सुतदारवत्सलो व्यवायदीनो विवशः स्वबन्धने
क्वचित्प्रमादाद्गिरिकन्दरे पतन्वल्लीं गृहीत्वा गजभीत आस्थितः ||१८||
अतः कथञ्चित्स विमुक्त आपदः पुनश्च सार्थं प्रविशत्यरिन्दम
अध्वन्यमुष्मिन्नजया निवेशितो भ्रमञ्जनोऽद्यापि न वेद कश्चन ||१९||
रहूगण त्वमपि ह्यध्वनोऽस्य सन्न्यस्तदण्डः कृतभूतमैत्रः
असज्जितात्मा हरिसेवया शितं ज्ञानासिमादाय तरातिपारम् ||२०||

साथियोंमें से जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का-तहाँ छोडक़र नवीन उत्पन्न हुओं को साथ लिये वह बनिजारों का समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है। वीरवर ! उनमेंसे कोई भी प्राणी न तो आजतक वापस लौटा है और न किसीने इस संकटपूर्ण मार्गको पार करके परमानन्दमय योगकी ही शरण ली है ॥ १४ ॥ जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालोंको जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वीमें यह मेरी हैऐसा अभिमान करके आपसमें वैर ठानकर संग्रामभूमिमें जूझ जाते हैं। तो भी उन्हें भगवान्‌ विष्णुका वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसोंको प्राप्त होता है ॥ १५ ॥ इस भवाटवीमें भटकनेवाला यह बनिजारोंका दल कभी किसी लताकी डालियोंका आश्रय लेता है और उसपर रहनेवाले मधुरभाषी पक्षियोंके मोहमें फँस जाता है। कभी सिंहोंके समूहसे भय मानकर बगुला, कंक और गिद्धोंसे प्रीति करता है ॥ १६ ॥ जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसोंकी पंक्तिमें प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरोंमें मिलकर उनके जातिस्वभावके अनुसार दाम्पत्य सुखमें रत रहकर विषयभोगोंसे इन्द्रियोंको तृप्त करता रहता है और एक-दूसरेका मुख देखते-देखते अपनी आयुकी अवधिको भूल जाता है ॥ १७ ॥ वहाँ वृक्षोंमें क्रीडा करता हुआ पुत्र और स्त्रीके स्नेहपाशमें बँध जाता है। इसमें मैथुनकी वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरहके दुव्र्यवहारोंसे दीन होनेपर भी यह विवश होकर अपने बन्धनको तोडऩेका साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानीसे पर्वतकी गुफामें गिरने लगता है तो उसमें रहनेवाले हाथीसे डरकर किसी लताके सहारे लटका रहता है ॥ १८ ॥ शत्रुदमन ! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्तिसे छुटकारा मिल जाता है, तो यह फिर अपने गोलमें मिल जाता है। जो मनुष्य मायाकी प्रेरणासे एक बार इस मार्गमें पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्ततक अपने परम पुरुषार्थका पता नहीं लगता ॥ १९ ॥ रहूगण ! तुम भी इसी मार्गमें भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजाको दण्ड देनेका कार्य छोडक़र समस्त प्राणियोंके सुहृद् हो जाओ और विषयोंमें अनासक्त होकर भगवत्-सेवासे तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्गको पार कर लो ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश

राजोवाच
अहो नृजन्माखिलजन्मशोभनं किं जन्मभिस्त्वपरैरप्यमुष्मिन्
न यद्धृषीकेशयशःकृतात्मनां महात्मनां वः प्रचुरः समागमः ||२१||
न ह्यद्भुतं त्वच्चरणाब्जरेणुभिर्हतांहसो भक्तिरधोक्षजेऽमला
मौहूर्तिकाद्यस्य समागमाच्च मे दुस्तर्कमूलोऽपहतोऽविवेकः ||२२||
नमो महद्भ्योऽस्तु नमः शिशुभ्यो नमो युवभ्यो नम आवटुभ्यः
ये ब्राह्मणा गामवधूतलिङ्गाश्चरन्ति तेभ्यः शिवमस्तु राज्ञाम् ||२३||

श्रीशुक उवाच
इत्येवमुत्तरामातः स वै ब्रह्मर्षिसुतः सिन्धुपतय आत्मसतत्त्वं विगणयतः परानुभावः परमकारुणिकतयोपदिश्य रहूगणेन सकरुणमभिवन्दितचरण आपूर्णार्णव इव निभृतकरणोर्म्याशयो धरणिमिमां विचचार ||२४||
सौवीरपतिरपि सुजनसमवगतपरमात्मसतत्त्व आत्मन्यविद्याध्यारोपितां च देहात्ममतिं विससर्ज एवं हि नृप भगवदाश्रिताश्रितानुभावः ||२५||

राजोवाच
यो ह वा इह बहुविदा महाभागवत त्वयाभिहितः परोक्षेण वचसा जीवलोकभवाध्वा स ह्यार्यमनीषया कल्पितविषयो नाञ्जसाव्युत्पन्नलोकसमधिगमः अथ तदेवैतद्दुरवगमं समवेतानुकल्पेन निर्दिश्यतामिति ||२६||

राजा रहूगणने कहाअहो ! समस्त योनियों में यह मनुष्य-जन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों में प्राप्त होनेवाले देवादि उत्कृष्ट जन्मों से भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान्‌ हृषीकेशके पवित्र यश से शुद्ध अन्त:करणवाले आप-जैसे महात्माओंका अधिकाधिक समागम नहीं मिलता ॥ २१ ॥ आपके चरणकमलोंकी रजका सेवन करनेसे जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावोंको भगवान्‌की विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ीके सत्सङ्गसे ही सारा कुतर्कमूलक अज्ञान नष्ट हो गया है ॥ २२ ॥ ब्रह्मज्ञानियों में जो वयोवृद्ध हों, उन्हें नमस्कार है; जो शिशु हों, उन्हें नमस्कार है; जो युवा हों, उन्हें नमस्कार है। और जो क्रीडारत बालक हों, उन्हें भी नमस्कार है। जो ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण अवधूतवेषसे पृथ्वीपर विचरते हैं, उनसे हम-जैसे ऐश्वर्योन्मत्त राजाओंका कल्याण हो ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंउत्तरानन्दन ! इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रहमर्षिपुत्रने अपना अपमान करनेवाले सिन्धुनरेश रहूगणको भी अत्यन्त करुणावश आत्मतत्त्वका उपदेश दिया। तब राजा रहूगणने दीनभावसे उनके चरणोंकी वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्रके समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिय होकर पृथ्वीपर विचरने लगे ॥ २४ ॥ उनके सत्सङ्गसे परमात्मतत्त्वका ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगणने भी अन्त:करणमें अविद्यावश आरोपित देहात्मबुद्धिको त्याग दिया। राजन् ! जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तोंकी शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता हैउनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती ॥ २५ ॥
राजा परीक्षित्‌ने कहामहाभागवत मुनिश्रेष्ठ ! आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादिके द्वारा अप्रत्यक्षरूपसे जीवोंके जिस संसाररूप मार्गका वर्णन किया है, उस विषयकी कल्पना विवेकी पुरुषोंकी बुद्धिने की है; वह अल्पबुद्धिवाले पुरुषोंकी समझमें सुगमतासे नहीं आ सकता। अत: मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषयको रूपकका स्पष्टीकरण करनेवाले शब्दोंसे खोलकर समझाइये ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे त्रयोदशोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

रहूगण उवाच
नमो नमः कारणविग्रहाय स्वरूपतुच्छीकृतविग्रहाय
नमोऽवधूत द्विजबन्धुलिङ्ग निगूढनित्यानुभवाय तुभ्यम् ||१||
ज्वरामयार्तस्य यथागदं सत्निदाघदग्धस्य यथा हिमाम्भः
कुदेहमानाहिविदष्टदृष्टेः ब्रह्मन्वचस्तेऽमृतमौषधं मे ||२||
तस्माद्भवन्तं मम संशयार्थं प्रक्ष्यामि पश्चादधुना सुबोधम्
अध्यात्मयोगग्रथितं तवोक्तमाख्याहि कौतूहलचेतसो मे ||३||
यदाह योगेश्वर दृश्यमानं क्रियाफलं सद्व्यवहारमूलम्
न ह्यञ्जसा तत्त्वविमर्शनाय भवानमुष्मिन्भ्रमते मनो मे ||४||

राजा रहूगणने कहाभगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करनेके लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर ! अपने परमानन्दमय स्वरूपका अनुभव करके आप इस स्थूलशरीरसे उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मणके वेषसे अपने नित्यज्ञानमय स्वरूपको जनसाधारणकी दृष्टिसे ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार ज्वरसे पीडि़त रोगीके लिये मीठी ओषधि और धूपसे तपे हुए पुरुषके लिये शीतल जल अमृततुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेकबुद्धिको देहाभिमानरूप विषैले सर्पने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधिके समान हैं ॥ २ ॥ देव ! मैं आपसे अपने संशयोंकी निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसीको सरल करके समझाइये, उसे समझनेकी मुझे बड़ी उत्कण्ठा है ॥ ३ ॥ योगेश्वर ! आपने जो यह कहा कि भार उठानेकी क्रिया तथा उससे जो श्रमरूप फल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होनेपर भी केवल व्यवहारमूलक ही हैं, वास्तवमें सत्य नहीं हैंवे तत्त्वविचारके सामने कुछ भी नहीं ठहरतेसो इस विषयमें मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथनका मर्म मेरी समझमें नहीं आ रहा है ॥ ४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

ब्राह्मण उवाच

अयं जनो नाम चलन्पृथिव्यां यः पार्थिवः पार्थिव कस्य हेतोः
तस्यापि चाङ्घ्र्योरधि गुल्फजङ्घा जानूरुमध्योरशिरोधरांसाः ||५||
अंसेऽधि दार्वी शिबिका च यस्यां सौवीरराजेत्यपदेश आस्ते
यस्मिन्भवान्रूढनिजाभिमानो राजास्मि सिन्धुष्विति दुर्मदान्धः ||६||
शोच्यानिमांस्त्वमधिकष्टदीनान्विष्ट्या निगृह्णन्निरनुग्रहोऽसि
जनस्य गोप्तास्मि विकत्थमानो न शोभसे वृद्धसभासु धृष्टः ||७||
यदा क्षितावेव चराचरस्य विदाम निष्ठां प्रभवं च नित्यम्
तन्नामतोऽन्यद्व्यवहारमूलं निरूप्यतां सत्क्रिययानुमेयम् ||८||

जडभरतने कहापृथ्वीपते ! यह देह पृथ्वीका विकार है, पाषाणादिसे इसका क्या भेद है ? जब यह किसी कारणसे पृथ्वीपर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमश: टखने, ङ्क्षपडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्ष:स्थल, गर्दन और कंधे आदि अङ्ग हैं ॥ ५ ॥ कंधोंके ऊपर लकड़ीकी पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नामका एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करनेसे तुम मैं सिन्धु देशका राजा हूँइस प्रबल मदसे अंधे हो रहे हो ॥ ६ ॥ किन्तु इसीसे तुम्हारी कोई श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तवमें तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुखिया कहारोंको बेगारमें पकडक़र पालकीमें जोत रखा है और फिर महापुरुषोंकी सभामें बढ़-बढक़र बातें बनाते हो कि मैं लोकोंकी रक्षा करनेवाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता ॥ ७ ॥ हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वीसे ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वीमें ही लीन होते हैं; अत: उनके क्रियाभेदके कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैंबताओ तो, उनके सिवा व्यवहारका और क्या मूल है ? ॥ ८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

एवं निरुक्तं क्षितिशब्दवृत्तमसन्निधानात्परमाणवो ये
अविद्यया मनसा कल्पितास्ते येषां समूहेन कृतो विशेषः ||९||
एवं कृशं स्थूलमणुर्बृहद्यदसच्च सज्जीवमजीवमन्यत्
द्रव्यस्वभावाशयकालकर्म नाम्नाजयावेहि कृतं द्वितीयम् ||१०||
ज्ञानं विशुद्धं परमार्थमेकमनन्तरं त्वबहिर्ब्रह्म सत्यम्
प्रत्यक्प्रशान्तं भगवच्छब्दसंज्ञं यद्वासुदेवं कवयो वदन्ति ||११||
रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद्गृहाद्वा
न च्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ||१२||
यत्रोत्तमश्लोकगुणानुवादः प्रस्तूयते ग्राम्यकथाविघातः
निषेव्यमाणोऽनुदिनं मुमुक्षोर्मतिं सतीं यच्छति वासुदेवे ||१३||

इस प्रकार पृथ्वीशब्दका व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादानकारण सूक्ष्म परमाणुओंमें लीन हो जाती है। और जिनके मिलनेसे पृथ्वीरूप कार्यकी सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मनसे ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तवमें उनकी भी सत्ता नहीं है ॥ ९ ॥ इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणोंसे युक्त द्वैत-प्रपञ्च हैउसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामोंवाली भगवान्‌की मायाका ही कार्य समझो ॥ १० ॥ विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहरके भेदसे रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसीका नाम भगवान्‌है और उसीको पण्डितजन वासुदेवकहते हैं ॥ ११ ॥ रहूगण ! महापुरुषोंके चरणोंकी धूलिसे अपनेको नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादिके दान, अतिथिसेवा, दीनसेवा आदि गृहस्थोचित धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्रि या सूर्यकी उपासना आदि किसी भी साधनसे यह परमात्म-ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता ॥ १२ ॥ इसका कारण यह है कि महापुरुषोंके समाजमें सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणोंकी चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती। और जब भगवत्कथाका नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकाङ्क्षी पुरुषकी शुद्ध बुद्धिको भगवान्‌ वासुदेवमें लगा देती है ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान

अहं पुरा भरतो नाम राजा विमुक्तदृष्टश्रुतसङ्गबन्धः
आराधनं भगवत ईहमानो मृगोऽभवं मृगसङ्गाद्धतार्थः १४
सा मां स्मृतिर्मृगदेहेऽपि वीर कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति
अथो अहं जनसङ्गादसङ्गो विशङ्कमानोऽविवृतश्चरामि १५
तस्मान्नरोऽसङ्गसुसङ्गजात ज्ञानासिनेहैव विवृक्णमोहः
हरिं तदीहाकथनश्रुताभ्यां लब्धस्मृतिर्यात्यतिपारमध्वनः १६

(जड़भरत कह रहे हैं) पूर्वजन्म में मैं भरत नामका राजा था। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकारके विषयोंसे विरक्त होकर भगवान्‌की आराधनामें ही लगा रहता था; तो भी एक मृगमें आसक्ति हो जानेसे मुझे परमार्थसे भ्रष्ट होकर अगले जन्ममें मृग बनना पड़ा ॥ १४ ॥ किन्तु भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आराधनाके प्रभावसे उस मृगयोनिमें भी मेरी पूर्वजन्मकी स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसीसे अब मैं जनसंसर्गसे डरकर सर्वदा असङ्गभावसे गुप्तरूपसे ही विचरता रहता हूँ ॥ १५ ॥ सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषोंके सत्सङ्गसे प्राप्त ज्ञानरूप खड्गके द्वारा मनुष्यको इस लोकमें ही अपने मोह- बन्धनको काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरिकी लीलाओंके कथन और श्रवणसे भगवत्स्मृति बनी रहनेके कारण वह सुगमतासे ही संसारमार्गको पार करके भगवान्‌को प्राप्त कर सकता है ॥ १६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे ब्राह्मणरहूगणसंवादे द्वादशोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...