॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
स
होवाच
स
एष देहात्ममानिनां
सत्त्वादिगुणविशेषविकल्पित-कुशलाकुशल-समवहारविनिर्मित-विविधदेहावलिभिर्वियोगसंयोगाद्यनादिसंसारानुभवस्य
द्वारभूतेन षडिन्द्रियवर्गेण तस्मिन्दुर्गाध्ववदसुगमेऽध्वन्यापतित ईश्वरस्य भगवतो
विष्णोर्वशवर्तिन्या मायया जीवलोकोऽयं यथा वणिक्सार्थोऽर्थपरः
स्वदेहनिष्पादितकर्मानुभवः श्मशानवदशिवतमायां संसाराटव्यां गतो नाद्यापि
विफलबहुप्रतियोगेह-स्तत्तापोपशमनीं हरिगुरुचरणारविन्दमधुकरानुपदवीमवरुन्धे ||१||
यस्यामु
ह वा एते षडिन्द्रियनामानः कर्मणा दस्यव एव ते तद्यथा पुरुषस्य धनं
यत्किञ्चिद्धर्मौपयिकं बहुकृच्छ्राधिगतं साक्षात्परम-पुरुषाराधनलक्षणो योऽसौ
धर्मस्तं तु साम्पराय उदाहरन्ति तद्धर्म्यं धनं
दर्शनस्पर्शनश्रवणास्वादनावघ्राणसङ्कल्पव्यवसायगृहग्राम्योपभोगेन
कुनाथस्याजितात्मनो यथा सार्थस्य विलुम्पन्ति ||२||
अथ
च यत्र कौटुम्बिका दारापत्यादयो नाम्ना कर्मणा वृकसृगाला एवानिच्छतोऽपि कदर्यस्य
कुटुम्बिन उरणकवत्संरक्ष्यमाणं मिषतोऽपि हरन्ति ||३||
यथा
ह्यनुवत्सरं कृष्यमाणमप्यदग्धबीजं क्षेत्रं पुनरेवावपनकाले
गुल्मतृणवीरुद्भिर्गह्वरमिव भवत्येवमेव गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं यस्मिन्न हि
कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एष आवसथः ||४||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! देहाभिमानी जीवोंके द्वारा सत्त्वादि गुणोंके भेदसे शुभ, अशुभ और मिश्र—तीन प्रकारके कर्म होते रहते हैं। उन
कर्मोंके द्वारा ही निर्मित नाना प्रकारके शरीरोंके साथ होनेवाला जो
संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीवको प्राप्त होता है, उसके
अनुभवके छ: द्वार हैं—मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश
होकर यह जीवसमूह मार्ग भूलकर भयङ्कर वनमें भटकते हुए धनके लोभी बनिजारोंके समान
परमसमर्थ भगवान् विष्णुके आश्रित रहनेवाली मायाकी प्रेरणासे बीहड़ वनके समान
दुर्गम मार्गमें पडक़र संसार-वनमें जा पहुँचता है। यह वन श्मशानके समान अत्यन्त
अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीरसे किये हुए कर्मोंका फल भोगना पड़ता है।
यहाँ अनेकों विघ्रोंके कारण उसे अपने व्यापारमें सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रमको शान्त करनेवाले श्रीहरि एवं गुरुदेवके चरणारविन्द-मकरन्द-मधुके
रसिक भक्त-भ्रमरोंके मार्गका अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वनमें मनसहित छ:
इन्द्रियाँ ही अपने कर्मोंकी दृष्टिसे डाकुओंके समान हैं ॥ १ ॥ पुरुष बहुत-सा कष्ट
उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्ममें होना चाहिये;
वही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुषकी आराधनाके रूपमें होता है
तो उसे परलोकमें नि:श्रेयसका हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्यका बुद्धिरूप
सारथि विवेकहीन होता है और मन वशमें नहीं होता, उसके उस
धर्मोपयोगी धनको ये मनसहित छ: इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना,
सुनना, स्वाद लेना, सूँघना,
संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करना—इन
वृत्तियोंके द्वारा गृहस्थोचित विषयभोगोंमें फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती हैं,
जिस प्रकार बेईमान मुखियाका अनुगमन करनेवाले एवं असावधान बनिजारोंके
दलका धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं ॥ २ ॥ ये ही नहीं, उस
संसार-वनमें रहनेवाले उसके कुटुम्बी भी—जो नामसे तो
स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात्
भेडिय़ों और गीदड़ोंके समान होते हैं—उस अर्थलोलुप कुटुम्बीके
धनको उसकी इच्छा न रहनेपर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेडिय़े गड़रियोंसे सुरक्षित भेड़ोंको उठा ले जाते हैं ॥ ३ ॥ जिस
प्रकार यदि किसी खेतके बीजोंको अग्रिद्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतनेपर भी खेतीका समय आनेपर वह फिर झाड़- झंखाड़, लता और तृण आदिसे गहन हो जाता है—उसी प्रकार यह
गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मोंका सर्वथा
उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओंकी पिटारी है ॥
४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
तत्र
गतो दंशमशकसमापसदैर्मनुजैः शलभ शकुन्त तस्कर मूषकादिभिरुपरुध्यमानबहिः प्राणः
क्वचित्परिवर्तमानोऽस्मिन्नध्वन्यविद्या कामकर्मभिरुपरक्तमनसानुपपन्नार्थं नरलोकं
गन्धर्वनगरमुपपन्नमिति मिथ्यादृष्टिरनुपश्यति ||५||
तत्र
च क्वचिदातपोदकनिभान्विषयानुपधावति पानभोजनव्यवायादिव्यसनलोलुपः||६||
क्वचिच्चाशेषदोषनिषदनं
पुरीषविशेषं तद्वर्णगुणनिर्मितमतिः
सुवर्णमुपादित्सत्यग्निकामकातर
इवोल्मुकपिशाचम् ||७||
अथ
कदाचिन्निवासपानीयद्रविणाद्यनेकात्मोपजीवनाभिनिवेश एतस्यां संसाराटव्यामितस्ततः
परिधावति ||८||
क्वचिच्च
वात्यौपम्यया प्रमदयारोहमारोपितस्तत्कालरजसा रजनीभूत इवासाधुमर्यादो
रजस्वलाक्षोऽपि दिग्देवता अतिरजस्वलमतिर्न विजानाति ||९||
क्वचित्सकृदवगतविषयवैतथ्यः
स्वयं पराभिध्यानेन विभ्रंशित-स्मृतिस्तयैव मरीचितोयप्रायांस्तानेवाभिधावति ||१०||
क्वचिदुलूकझिल्लीस्वनवदतिपरुषरभसाटोपं
प्रत्यक्षं परोक्षं वा रिपुराजकुलनिर्भर्त्सितेनातिव्यथितकर्णमूलहृदयः ||११||
उस
गृहस्थाश्रममें आसक्त हुए व्यक्तिके धनरूप बाहरी प्राणोंको डाँस और मच्छरोंके समान
नीच पुरुषोंसे तथा टिड्डी,
पक्षी, चोर और चूहे आदिसे क्षति पहुँचती रहती
है। कभी इस मार्गमें भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और
कर्मोंसे कलुषित हुए अपने चित्तसे दृष्टिदोषके कारण इस मर्त्यलोक को, जो गन्धर्वनगरके समान असत् है, सत्य समझने लगता है ॥
५ ॥ फिर खान-पान और स्त्री-प्रसङ्गादि व्यसनोंमें फँसकर मृगतृष्णाके समान मिथ्या
विषयोंकी ओर दौडऩे लगता है ॥ ६ ॥ कभी बुद्धिके रजोगुणसे प्रभावित होनेपर सारे
अनर्थोंकी जड़ अग्रिके मलरूप सोनेको ही सुखका साधन समझकर उसे पानेके लिये लालायित
हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वनमें जाड़ेसे
ठिठुरता हुआ पुरुष अग्रिके लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाचकी (अगिया- बेतालकी) ओर
उसे आग समझकर दौड़े ॥ ७ ॥ कभी इस शरीरको जीवित रखनेवाले घर, अन्न-जल
और धन आदिमें अभिनिवेश करके इस संसारारण्यमें इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है ॥ ८ ॥
कभी बवंडरके समान आँखोंमें धूल झोंक देनेवाली स्त्री गोदमें बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषोंकी मर्यादाका भी विचार नहीं करता। उस
समय नेत्रोंमें रजोगुणकी धूल भर जानेसे बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने
कर्मोंके साक्षी दिशाओंके देवताओंको भी भुला देता है ॥ ९ ॥ कभी अपने-आप ही एकाध
बार विषयोंका मिथ्यात्व जान लेनेपर भी अनादिकालसे देहमें आत्मबुद्धि रहनेसे
विवेक-बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण उन मरुमरीचिकातुल्य विषयोंकी ओर ही फिर दौडऩे
लगता है ॥ १० ॥ कभी प्रत्यक्ष शब्द करनेवाले उल्लू के समान शत्रुओं की और
परोक्षरूप से बोलनेवाले झींगुरों के समान राजा की अति कठोर एवं दिल को दहला
देनेवाली डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बड़ी व्यथा होती है ॥११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
स
यदा दुग्धपूर्वसुकृतस्तदा
कारस्करकाकतुण्डाद्यपुण्यद्रुमलता-विषोदपानवदुभयार्थशून्यद्रविणान्जीवन्मृतान्स्वयं
जीवन्म्रियमाण उपधावति ||१२||
एकदा
सत्प्रसङ्गान्निकृतमतिर्व्युदकस्रोतः स्खलनवदुभयतोऽपि दुःखदं
पाखण्डमभियाति
||१३||
यदा
तु परबाधयान्ध आत्मने नोपनमति तदा हि पितृपुत्रबर्हिष्मतः पितृपुत्रान्वा स खलु
भक्षयति ||१४||
क्वचिदासाद्य
गृहं दाववत्प्रियार्थविधुरमसुखोदर्कं शोकाग्निना दह्यमानो भृशं निर्वेदमुपगच्छति ||१५||
क्वचित्कालविषमितराजकुलरक्षसापहृतप्रियतमधनासुः
प्रमृतक इव विगतजीवलक्षण आस्ते ||१६||
कदाचिन्मनोरथोपगतपितृपितामहाद्यसत्सदिति
स्वप्ननिर्वृतिलक्षणमनुभवति ||१७||
क्वचिद्गृहाश्रमकर्मचोदनातिभरगिरिमारुरुक्षमाणो
लोकव्यसनकर्षितमनाः कण्टकशर्कराक्षेत्रं प्रविशन्निव सीदति ||१८||
क्वचिच्च
दुःसहेन कायाभ्यन्तरवह्निना गृहीतसारः स्वकुटुम्बाय क्रुध्यति ||१९||
स
एव पुनर्निद्राजगरगृहीतोऽन्धे तमसि मग्नः शून्यारण्य इव शेते नान्यत्किञ्चन वेद शव
इवापविद्धः ||२०||
पूर्वपुण्य
क्षीण हो जानेपर यह जीवित ही मुर्देके समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलोंवाले पापवृक्षों, इसी प्रकारकी दूषित लताओं और विषैले कुओंके समान हैं तथा जिनका धन इस लोक
और परलोक दोनोंके ही काममें नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्देके समान हैं—उन कृपण पुरुषोंका आश्रय लेता है ॥ १२ ॥ कभी असत् पुरुषोंके सङ्गसे बुद्धि
बिगड़ जानेके कारण सूखी नदीमें गिरकर दुखी होनेके समान इस लोक और परलोकमें दु:ख
देनेवाले पाखण्डमें फँस जाता है ॥ १३ ॥ जब दूसरोंको सतानेसे उसे अन्न भी नहीं
मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रोंको अथवा पिता या पुत्र
आदिका एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खानेके
लिये तैयार हो जाता है ॥ १४ ॥ कभी दावानलके समान प्रिय विषयोंसे शून्य एवं
परिणाममें दु:खमय घरमें पहुँचता है, तो वहाँ इष्टजनोंके
वियोगादिसे उसके शोककी आग भडक़ उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह
बहुत ही खिन्न होने लगता है ॥ १५ ॥ कभी कालके समान भयङ्कर राजकुलरूप राक्षस इसके
परम प्रिय धन-रूप प्राणोंको हर लेता है, तो यह मरे हुएके
समान निर्जीव हो जाता है ॥ १६ ॥ कभी मनोरथके पदार्थोंके समान अत्यन्त असत्
पिता-पितामह आदि सम्बन्धोंको सत्य समझकर उनके सहवाससे स्वप्नके समान क्षणिक सुखका
अनुभव करता है ॥ १७ ॥ गृहस्थाश्रमके लिये जिस कर्मविधिका महान् विस्तार किया गया
है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वतकी कड़ी चढ़ाईके समान ही है।
लोगोंको उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखादेखी जब यह भी उसे पूरा करनेका प्रयत्न
करता है, तब तरह-तरहकी कठिनाइयोंसे क्लेशित होकर काँटे और
कंकड़ोंसे भरी भूमिमें पहुँचे हुए व्यक्तिके समान दुखी हो जाता है ॥ १८ ॥ कभी
पेटकी असह्य ज्वालासे अधीर होकर अपने कुटुम्बपर ही बिगडऩे लगता है ॥ १९ ॥ फिर जब
निद्रारूप अजगरके चंगुलमें फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर
अन्धकारमें डूबकर सूने वनमें फेंके हुए मुर्देके समान सोया पड़ा रहता है। उस समय
इसे किसी बातकी सुधि नहीं रहती ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
कदाचिद्भग्नमानदंष्ट्रो
दुर्जनदन्दशूकैरलब्धनिद्रा क्षणो व्यथित
हृदयेनानुक्षीयमाणविज्ञानोऽन्धकूपेऽन्धवत्पतति
||२१||
कर्हि
स्म चित्काममधुलवान्विचिन्वन्यदा परदारपरद्रव्याण्यवरुन्धानो राज्ञा स्वामिभिर्वा
निहतः पतत्यपारे निरये ||२२||
अथ
च तस्मादुभयथापि हि कर्मास्मिन्नात्मनः संसारावपनमुदाहरन्ति ||२३||
मुक्तस्ततो
यदि बन्धाद्देवदत्त उपाच्छिनत्ति तस्मादपि विष्णुमित्र इत्यनवस्थितिः ||२४||
क्वचिच्च
शीतवाताद्यनेकाधिदैविकभौतिकात्मीयानां दशानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो दुरन्तचिन्तया
विषण्ण आस्ते ||२५||
क्वचिन्मिथो
व्यवहरन्यत्किञ्चिद्धनमन्येभ्यो वा काकिणिकामात्रमप्यपहरन्यत्किञ्चिद्वा
विद्वेषमेति वित्तशाठ्यात् ||२६||
कभी
दुर्जनरूप काटनेवाले जीव इतना काटते—तिरस्कार करते हैं
कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरोंको काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्तिके कारण नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदनाके
कारण क्षण-क्षणमें विवेक-शक्ति क्षीण होते रहनेसे अन्तमें अंधेकी भाँति यह नरकरूप
अँधे कुएँमें जा गिरता है ॥ २१ ॥ कभी विषयसुखरूप मधुकणोंको ढू़ँढते-ढू़ँढते जब यह
लुक- छिपकर परस्त्री या परधनको उड़ाना चाहता है, तब उनके
स्वामी या राजाके हाथसे मारा जाकर ऐसे नरकमें जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है ॥
२२ ॥ इसीसे ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्गमें रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों
ही प्रकारके कर्म जीवको संसारकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं ॥ २३ ॥ यदि किसी प्रकार
राजा आदिके बन्धनसे छूट भी गया, तो अन्यायसे अपहरण किये हुए
उन स्त्री और धनको देवदत्त नामका कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे
विष्णुमित्र नामका कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुषसे
दूसरे पुरुषके पास जाते रहते हैं, एक स्थानपर नहीं ठहरते ॥
२४ ॥ कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और
आध्यात्मिक दु:खकी स्थितियोंके निवारण करनेमें समर्थ न होनेसे यह अपार चिन्ताओंके
कारण उदास हो जाता है ॥ २५ ॥ कभी परस्पर लेन-देनका व्यवहार करते समय किसी दूसरेका
थोड़ा-सा—दमड़ीभर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस
बेईमानीके कारण उससे वैर ठन जाता है ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
अध्वन्यमुष्मिन्निम
उपसर्गास्तथा सुखदुःखरागद्वेषभयाभिमानप्रमादोन्माद शोक मोह लोभ
मात्सर्येर्ष्यावमान क्षुत्पिपासाधिव्याधिजन्मजरामरणादयः ||२७||
क्वापि
देवमायया स्त्रिया भुजलतोपगूढः प्रस्कन्नविवेकविज्ञानो
यद्विहारगृहारम्भाकुलहृदयस्तदाश्रयावसक्त
सुतदुहितृकलत्रभाषितावलोकविचेष्टितापहृतहृदय आत्मानमजितात्मापारेऽन्धे तमसि
प्रहिणोति ||२८||
(शुकदेव
जी कह रहे हैं) राजन् ! इस मार्गमें पूर्वोक्त विघ्नों के अतिरिक्त सुख-दु:ख, राग-द्वेष, भय, अभिमान,
प्रमाद, उन्माद, शोक,
मोह, लोभ, मात्सर्य,
ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा,
आधि-व्याधि, जन्म, जरा
और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न हैं ॥ २७ ॥ (इस विघ्नबहुल मार्ग में इस प्रकार
भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्रीके बाहुपाशमें पडक़र विवेकहीन हो
जाता है। तब उसीके लिये विहारभवन आदि बनवानेकी चिन्तामें ग्रस्त रहता है तथा उसीके
आश्रित रहनेवाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियोंके
मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओंमें आसक्त होकर, उन्हींमें चित्त फँस जानेसे वह इन्द्रियोंका दास अपार अन्धकारमय नरकोंमें
गिरता है ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
कदाचिदीश्वरस्य
भगवतो विष्णोश्चक्रात्परमाण्वादि द्विपरार्धापवर्ग-
कालोपलक्षणात्परिवर्तितेन
वयसा रंहसा हरत आब्रह्मतृणस्तम्बादीनां भूतानामनिमिषतो मिषतां
वित्रस्तहृदयस्तमेवेश्वरं कालचक्रनिजायुधं साक्षाद्भगवन्तं यज्ञपुरुषमनादृत्य
पाखण्डदेवताः कङ्कगृध्रबकवटप्राया आर्यसमयपरिहृताः साङ्केत्येनाभिधत्ते ||२९||
यदा
पाखण्डिभिरात्मवञ्चितैस्तैरुरु वञ्चितो ब्रह्मकुलं समावसंस्तेषां
शीलमुपनयनादिश्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठानेन
भगवतो यज्ञपुरुषस्याराधनमेव तदरोचयन्शूद्र कुलं भजते निगमाचारेऽशुद्धितो यस्य
मिथनीभावः कुटुम्बभरणं यथा वानरजातेः ||३०||
तत्रापि
निरवरोधः स्वैरेण विहरन्नतिकृपणबुद्धिरन्योन्यमुखनिरीक्षणादिना ग्राम्यकर्मणैव
विस्मृतकालावधिः ||३१||
कालचक्र
साक्षात् भगवान् विष्णुका आयुध है। वह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी
आदि अवयवोंसे युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलनेवाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थाएँ ही उसका
वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मासे लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतोंका
निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गतिमें बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय
मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान्
यज्ञपुरुषकी आराधना छोडक़र यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियोंके चक्करमें पडक़र उनके कंक,
गिद्ध, बगुला और बटेरके समान
आर्यशास्त्र-बहिष्कृत देवताओंका आश्रय लेता है—जिनका केवल
वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमोंने ही उल्लेख किया है ॥ २९ ॥ ये पाखण्डी तो स्वयं ही
धोखेमें हैं; जब यह भी उनकी ठगाईमें आकर दुखी होता है,
तब ब्राह्मणोंकी शरण लेता है। किन्तु उपनयन-संस्कारके अनन्तर
श्रौत-स्मार्तकर्मोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त
आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता; इसलिये
वेदोक्त आचारके अनुकूल अपनेमें शुद्धि न होनेके कारण यह कर्म-शून्य शूद्रकुलमें प्रवेश
करता है, जिसका स्वभाव वानरोंके समान केवल कुटुम्बपोषण और
स्त्रीसेवन करना ही है ॥ ३० ॥ वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहार करनेसे इसकी
बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरेका मुख देखना आदि विषय-भोगोंमें फँसकर
इसे अपने मृत्युकालका भी स्मरण नहीं होता ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
क्वचिद्द्रुमवदैहिकार्थेषु
गृहेषु रंस्यन्यथा वानरः सुतदारवत्सलो व्यवायक्षणः ||३२||
एवमध्वन्यवरुन्धानो
मृत्युगजभयात्तमसि गिरिकन्दरप्राये ||३३||
क्वचिच्छीतवाताद्यनेकदैविकभौतिकात्मीयानां
दुःखानां प्रतिनिवारणेऽकल्पो दुरन्तविषयविषण्ण आस्ते ||३४||
क्वचिन्मिथो
व्यवहरन्यत्किञ्चिद्धनमुपयाति वित्तशाठ्येन ||३५||
क्वचित्क्षीणधनः
शय्यासनाशनाद्युपभोगविहीनो
यावदप्रतिलब्ध-मनोरथोपगतादानेऽवसितमतिस्ततस्ततोऽवमानादीनि जनादभिलभते ||३६||
एवं
वित्तव्यतिषङ्गविवृद्धवैरानुबन्धोऽपि पूर्ववासनया मिथ उद्वहत्यथापवहति ||३७||
वृक्षोंके
समान जिनका लौकिक सुख ही फल है—उन घरोंमें ही सुख मानकर
वानरोंकी भाँति स्त्री-पुत्रादिमें आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि
विषय-भोगोंमें ही बिता देता है ॥ ३२ ॥ इस प्रकार प्रवृत्तिमार्गमें पडक़र सुख-दु:ख
भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरि-गुहामें फँसकर उसमें रहनेवाले मृत्युरूप हाथीसे
डरता रहता है ॥ ३३ ॥ कभी-कभी शीत, वायु आदि अनेक प्रकारके
आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:खोंकी निवृत्ति करनेमें
जब असफल हो जाता है, तब उस समय अपार विषयोंकी चिन्तासे यह
खिन्न हो उठता है ॥ ३४ ॥ कभी आपसमें क्रय-विक्रय आदि व्यापार करनेपर बहुत कंजूसी
करनेसे इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है ॥ ३५ ॥ कभी धन नष्ट हो जानेसे जब इसके पास
सोने, बैठने और खाने आदिकी भी कोई सामग्री नहीं रहती,
तब अपने अभीष्ट भोग न मिलनेसे यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायोंसे
पानेका निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरोंके हाथसे बहुत अपमानित होना
पड़ता है ॥ ३६ ॥ इस प्रकार धनकी आसक्तिसे परस्पर वैरभाव बढ़ जानेपर भी यह अपनी
पूर्ववासनाओंसे विवश होकर आपसमें विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है ॥ ३७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
एतस्मिन्संसाराध्वनि
नानाक्लेशोपसर्गबाधित आपन्नविपन्नो यत्र यस्तमु ह वावेतरस्तत्र विसृज्य जातं
जातमुपादाय शोचन्मुह्यन्बिभ्यद् विवदन्क्रन्दन्संहृष्यन्गायन्नह्यमानः साधुवर्जितो
नैवावर्ततेऽद्यापि यत आरब्ध एष नरलोकसार्थो यमध्वनः पारमुपदिशन्ति ||३८||
इस
संसारमार्गमें चलनेवाला यह जीव अनेक प्रकारके क्लेश और विघ्न-बाधाओंसे बाधित
होनेपर भी मार्गमें जिसपर जहाँ आपत्ति आती है, अथवा जो कोई मर
जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ देता है; तथा नये जन्मे हुओंको साथ लगाता है, कभी किसीके लिये
शोक करता है, किसीका दु:ख देखकर मूर्च्छित हो जाता है,
किसीके वियोग होनेकी आशङ्कासे भयभीत हो उठता है, किसीसे झगडऩे लगता है, कोई आपत्ति आती है तो
रोने-चिल्लाने लगता है, कहीं कोई मनके अनुकूल बात हो गयी तो
प्रसन्नताके मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी
उन्हींके लिये बँधनेमें भी नहीं हिचकता। साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधुसङ्ग से सदा वञ्चित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा
है। जहाँसे इसकी यात्रा आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्गकी अन्तिम अवधि कहते हैं,
उस परमात्माके पास यह अभीतक नहीं लौटा है ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)
यदिदं
योगानुशासनं न वा एतदवरुन्धते यन्न्यस्तदण्डा मुनय उपशमशीला उपरतात्मानः
समवगच्छन्ति ||३९||
यदपि
दिगिभजयिनो यज्विनो ये वै राजर्षयः किं तु परं मृधे शयीरन्नस्यामेव ममेयमिति
कृतवैरानुबन्धायां विसृज्य स्वयमुपसंहृताः ||४०||
कर्मवल्लीमवलम्ब्य
तत आपदः कथञ्चिन्नरकाद्विमुक्तः पुनरप्येवं संसाराध्वनि वर्तमानो
नरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरि गतोऽपि ||४१||
परमात्मा
तक तो योगशास्त्र की भी गति नहीं है; जिन्होंने सब
प्रकारके दण्ड (शासन)का त्याग कर दिया है, वे निवृत्तिपरायण
संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं ॥ ३९ ॥ जो दिग्गजोंको जीतनेवाले और
बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले राजर्षि हैं उनकी भी वहाँतक गति नहीं है। वे
संग्रामभूमिमें शत्रुओंका सामना करके केवल प्राणपरित्याग ही करते हैं तथा जिसमें ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था—उस पृथ्वीमें ही अपना शरीर छोडक़र स्वयं परलोकको चले जाते हैं। इस संसारसे
वे भी पार नहीं होते ॥ ४० ॥ अपने पुण्यकर्मरूप लताका आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार
यह जीव इन आपत्तियोंसे अथवा नरकसे छुटकारा पा भी जाता है, तो
फिर इसी प्रकार संसारमार्गमें भटकता हुआ इस जनसमुदायमें मिल जाता है। यही दशा
स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों में जानेवालोंकी भी है ॥ ४१ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)
भवाटवीका
स्पष्टीकरण
तस्येदमुपगायन्ति--
आर्षभस्येह
राजर्षेर्मनसापि महात्मनः
नानुवर्त्मार्हति
नृपो मक्षिकेव गरुत्मतः ||४२||
यो
दुस्त्यजान्दारसुतान्सुहृद्राज्यं हृदिस्पृशः
जहौ
युवैव मलवदुत्तमश्लोकलालसः ||४३||
यो
दुस्त्यजान्क्षितिसुतस्वजनार्थदारान्
प्रार्थ्यां
श्रियं सुरवरैः सदयावलोकाम्
नैच्छन्नृपस्तदुचितं
महतां मधुद्विट्
सेवानुरक्तमनसामभवोऽपि
फल्गुः ||४४||
यज्ञाय
धर्मपतये विधिनैपुणाय
योगाय
साङ्ख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय
नारायणाय
हरये नम इत्युदारं
हास्यन्मृगत्वमपि
यः समुदाजहार ||४५||
य
इदं भागवतसभाजितावदातगुणकर्मणो राजर्षेर्भरतस्यानुचरितं स्वस्त्ययनमायुष्यं धन्यं
यशस्यं स्वर्ग्यापवर्ग्यं वानुशृणोत्याख्यास्यत्यभिनन्दति च सर्वा एवाशिष आत्मन
आशास्ते न काञ्चन परत इति ||४६||
राजन्
! राजर्षि भरतके विषयमें पण्डितजन ऐसा कहते हैं—‘जैसे गरुडजी
की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा
भरतके मार्गका कोई अन्य राजा मनसे भी अनुसरण नहीं कर सकता ॥ ४२ ॥ उन्होंने
पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर अति मनोरम स्त्री, पुत्र,
मित्र और राज्यादिको युवावस्थामें ही विष्ठाके समान त्याग दिया था;
दूसरोंके लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है ॥ ४३ ॥ उन्होंने
अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन,
सम्पत्ति और स्त्रीकी तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित
रहते हैं किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टिके लिये उनपर दृष्टिपात करती रहती थी—उस लक्ष्मीकी भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब
उनके लिये उचित ही था; क्योंकि जिन महानुभावोंका चित्त
भगवान् मधुसूदनकी सेवामें अनुरक्त हो गया है, उनकी
दृष्टिमें मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है ॥ ४४ ॥ उन्होंने मृगशरीर छोडऩेकी इच्छा
होनेपर उच्चस्वरसे कहा था कि धर्मकी रक्षा करनेवाले, धर्मानुष्ठानमें
निपुण, योगगम्य, सांख्यके प्रतिपाद्य,
प्रकृतिके अधीश्वर, यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी
श्रीहरिको नमस्कार है।’ ॥ ४५ ॥
राजन्
! राजर्षि भरतके पवित्र गुण और कर्मोंकी भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह
चरित्र बड़ा कल्याणकारी,
आयु और धनकी वृद्धि करनेवाला, लोकमें सुयश
बढ़ानेवाला और अन्तमें स्वर्ग तथा मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है। जो पुरुष इसे
सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उसकी सारी
कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं; दूसरों से उसे कुछ भी
नहीं माँगना पड़ता ॥ ४६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे भरतोपाख्याने
पारोक्ष्यविवरणं नाम चतुर्दशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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