बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

नारायणकवच का उपदेश

श्रीराजोवाच

यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान्
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ||||
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्
यथाततायिनः शत्रून्येन गुप्तोऽजयन्मृधे ||||

श्रीबादरायणिरुवाच

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ||||

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरङ्गिणी सेना को खेल-खेल मेंअनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायणकवच को मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की ॥ १-२ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहापरीक्षित्‌ ! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने उन्हें नारायणकवच का उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो ॥ ३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

नारायणकवच का उपदेश

श्रीविश्वरूप उवाच
धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ||||
नारायणपरं वर्म सन्नह्येद्भय आगते
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ||||
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादॐकारादीनि विन्यसेत्
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ||||
करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ||||
न्यसेद्धृदय ॐकारं विकारमनु मूर्धनि
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया न्यसेत् ||||
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ||||
सविसर्गं फडन्तं तत्सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्
ॐ विष्णवे नम इति ||१०||

विश्वरूप ने कहादेवराज इन्द्र ! भयका अवसर उपस्थित होने पर नारायणकवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथमें कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके पवित्रतासे ॐ नमो नारायणायऔर ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—इन मन्त्रोंके द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि-करन्यास करे। पहले ॐ नमो नारायणायइस अष्टाक्षर मन्त्रके ॐ आदि आठ अक्षरोंका क्रमश: पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्ष:स्थल, मुख और सिरमें न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्त्रके मकारसे लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरोंका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं आठ अङ्गों में विपरीत क्रमसे न्यास करे ॥ ४६ ॥ तदनन्तर ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’—इस द्वादशाक्षर मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोंका दायीं तर्जनीसे बायीं तर्जनीतक दोनों हाथकी आठ अँगुलियों और दोनों अँगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करे ॥ ७ ॥ फिर ॐ विष्णवे नम:इस मन्त्रके पहले अक्षर का हृदयमें विका ब्रह्मरन्ध्र में, ‘ष्का भौंहोंके बीचमें, ‘का चोटीमें, ‘वेका दोनों नेत्रोंमें और का शरीरकी सब गाँठोंमें न्यास करे। तदनन्तर ॐ म: अस्त्राय फट्कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करनेसे इस विधिको जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ॥ ८१० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

नारायणकवच का उपदेश
आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ||११||
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्र पृष्ठे
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ||१२||
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात्
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्-
त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ||१३||

इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्‌का ध्यान करे और अपनेको भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तप:स्वरूप इस कवचका पाठ करे॥ ११ ॥
भगवान्‌ श्रीहरि गरुडज़ीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथोंमें शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकार से, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥ १२ ॥ मत्स्यमूर्ति भगवान्‌ जलके भीतर जलजन्तुओं से और वरुण के पाश से मेरी रक्षा करें। माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करने वाले वामन भगवान्‌ स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रम भगवान्‌ आकाश में मेरी रक्षा करें ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

नारायणकवच का उपदेश
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ||१४||
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् ||१५||
मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-
न्नारायणः पातु नरश्च हासात्
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ||१६||

जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियोंके शत्रु भगवान्‌ नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमें मेरी रक्षा करें ॥ १४ ॥
अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वी को धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान्‌ मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरोंपर और लक्ष्मणजी के सहित भरतके बड़े भाई भगवान्‌ रामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ॥ १५ ॥ भगवान्‌ नारायण मारण-मोहन आदि भयङ्कर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान्‌ दत्तात्रेय योग के विघ्नों से  और त्रिगुणाधिपति भगवान्‌ कपिल कर्मबन्धनों से मेरी रक्षा करें ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

नारायणकवच का उपदेश

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्-
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ||१७||

परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान्‌ मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से[*] और भगवान्‌ कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ॥१७॥
...........................................
[*] बत्तीस प्रकारके सेवापराध माने गये हैं१-सवारीपर चढक़र अथवा पैरोंमें खड़ाऊँ पहनकर श्रीभगवान्‌के मन्दिरमें जाना। २-रथयात्रा, जन्माष्टमी आदि उत्सवोंका न करना या उनके दर्शन न करना। ३-श्रीमूर्तिके दर्शन करके प्रणाम न करना। ४-अशुचि-अवस्थामें दर्शन करना। ५-एक हाथसे प्रणाम करना। ६-परिक्रमा करते समय भगवान्‌के सामने आकर कुछ न रुककर फिर परिक्रमा करना अथवा केवल सामने ही परिक्रमा करते रहना। ७-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने पैर पसारकर बैठना। ८-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दोनों घुटनों को ऊँचा करके उनको हाथोंसे लपेटकर बैठ जाना। ९-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने सोना। १०-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने भोजन करना। ११-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने झूठ बोलना। १२-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने जोर से बोलना। १३-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने आपसमें बातचीत करना। १४-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने चिल्लाना। १५-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने कलह करना। १६-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रहके सामने किसी को पीड़ा देना। १७-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने किसीपर अनुग्रह करना। १८-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रहके सामने किसीको निष्ठुर वचन बोलना। १९-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने कम्बलसे सारा शरीर ढक लेना। २०-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दूसरेकी निन्दा करना। २१-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने दूसरे की स्तुति करना। २२-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रह के सामने अश्लील शब्द बोलना। २३-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने अधोवायुका त्याग करना। २४-शक्ति रहते हुए भी गौण अर्थात् सामान्य उपचारोंसे भगवान्‌की सेवा-पूजा करना। २५-श्रीभगवान्‌को निवेदित किये बिना किसी भी वस्तु का खाना-पीना। २६-जिस ऋतु में जो फल हो, उसे सबसे पहले श्रीभगवान्‌ को न चढ़ाना। २७-किसी शाक या फलादिके अगले भागको तोडक़र भगवान्‌के व्यञ्जनादिके लिये देना। २८-श्रीभगवान्‌ के श्रीविग्रहको पीठ देकर बैठना। २९-श्रीभगवान्‌के श्रीविग्रहके सामने दूसरे किसीको भी प्रणाम करना। ३०-गुरुदेवकी अभ्यर्थना, कुशल-प्रश्न और उनका स्तवन न करना। ३१-अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करना। ३२-किसी भी देवताकी निन्दा करना।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

नारायणकवच का उपदेश

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्याद्- 
द्वंद्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद्
बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ||१८||
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् 
बुद्धस्तु पाषण्डगणप्रमादात्
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु
धर्मावनायोरुकृतावतारः ||१९||

भगवान्‌ धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्रिय भगवान्‌ ऋषभदेव सुख-दु:ख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञभगवान्‌ लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पों के गण से मेरी रक्षा करें ॥ १८ ॥
भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षा के लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान्‌ कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषों से मेरी रक्षा करें ॥ १९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

नारायणकवच का उपदेश

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् 
गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्र पाणिः ||२०||
देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम्
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ||२१||
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान्कालमूर्तिः ||२२||

प्रात:काल भगवान्‌ केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान्‌ गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहरके पहले भगवान्‌ नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान्‌ विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ॥ २० ॥ तीसरे पहरमें भगवान्‌ मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त  के बाद हृषीकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्धरात्रि के समय अकेले भगवान्‌ पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ॥ २१ ॥ रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान्‌ जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान्‌ विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

नारायणकवच का उपदेश
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम्
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः ||२३||
गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि
कुष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ||२४||

सुदर्शन ! आपका आकार चक्र (रथके पहिये) की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि  के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्‌ की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु-सेनाको शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ॥ २३ ॥ कौमोद की गदा ! आप से छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है। आप भगवान्‌ अजितकी प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ॥ २४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

नारायणकवच का उपदेश
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ||२५||
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि
चक्षूंषि चर्मन्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ||२६||

शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान्‌ श्रीकृष्णके फूँकनेसे भयङ्कर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा दीजिये ॥ २५ ॥ भगवान्‌ की प्यारी तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्‌की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्‌ की प्यारी ढाल ! आप में सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

नारायणकवच का उपदेश

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव च ||२७||
सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपानुकीर्तनात्
प्रयान्तु सङ्क्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः ||२८||
गरुडो भगवान्स्तोत्र स्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ||२९||
सर्वापद्भ्यो हरेर्नाम रूपयानायुधानि नः
बुद्धीन्द्रि यमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः ||३०||

सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ों वाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मङ्गल के विरोधी होंवे सभी भगवान्‌ के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायँ ॥ २७-२८ ॥ बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान्‌ गरुड और विष्वक्सेन जी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें ॥ २९ ॥ श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ॥ ३० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

नारायणकवच का उपदेश

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत्
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ||३१||
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्
भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ||३२||
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान्हरिः
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ||३३||
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-
दन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः
प्रहापय लोकभयं स्वनेन
स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ||३४||

जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान्‌ ही हैं’—इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ॥ ३१ ॥ जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान्‌ का स्वरूप समस्त विकल्पोंभेदों से रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूप से सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ॥ ३२-३३ ॥ जो अपने भयङ्कर अट्टहाससे सब लोगोंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान्‌ नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर- भीतरसब ओर हमारी रक्षा करें॥ ३४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

नारायणकवच का उपदेश
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम्
विजेष्यसेऽञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ||३५||
एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते ||३६||
न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याध्यादिभ्यश्च कर्हिचित् ||३७||

देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें यह नारायणकवच सुना दिया। इस कवचसे तुम अपनेको सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य-यूथपतियोंको जीत लोगे ॥ ३५ ॥ इस नारायणकवच को धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता अथवा पैरसे छू देता है, वह तत्काल समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३६ ॥ जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवोंसे कभी किसी प्रकारका भय नहीं होता ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

नारायणकवच का उपदेश

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन्द्विजः
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ||३८||
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ||३९||
गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्शिराः
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ||४०||

देवराज ! प्राचीन काल की बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया ॥ ३८ ॥ जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उस के ऊपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमानपर बैठकर निकले ॥ ३९ ॥ वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमानसहित आकाश से पृथ्वीपर गिर पड़े । इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मणदेवता की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को गये ॥४० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

नारायणकवच का उपदेश

श्रीशुक उवाच

य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ||४१||
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् || ४२||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदरसे झुक जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥ परीक्षित्‌ ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का  उपभोग करने लगे ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणधर्मकथनं नामाष्टमोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

श्रीराजोवाच
कस्य हेतोः परित्यक्ता आचार्येणात्मनः सुराः
एतदाचक्ष्व भगवञ्छिष्याणामक्रमं गुरौ ||१||

श्रीबादरायणिरुवाच
इन्द्र स्त्रिभुवनैश्वर्य मदोल्लङ्घितसत्पथः
मरुद्भिर्वसुभी रुद्रैरादित्यैरृभुभिर्नृप ||२||
विश्वेदेवैश्च साध्यैश्च नासत्याभ्यां परिश्रितः
सिद्धचारणगन्धर्वैर्मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ||३||
विद्याधराप्सरोभिश्च किन्नरैः पतगोरगैः
निषेव्यमाणो मघवान्स्तूयमानश्च भारत ||४||
उपगीयमानो ललितमास्थानाध्यासनाश्रितः
पाण्डुरेणातपत्रेण चन्द्रमण्डलचारुणा ||५||
युक्तश्चान्यैः पारमेष्ठ्यैश्चामरव्यजनादिभिः
विराजमानः पौलोम्या सहार्धासनया भृशम् ||६||
स यदा परमाचार्यं देवानामात्मनश्च ह
नाभ्यनन्दत सम्प्राप्तं प्रत्युत्थानासनादिभिः ||७||
वाचस्पतिं मुनिवरं सुरासुरनमस्कृतम्
नोच्चचालासनादिन्द्रः पश्यन्नपि सभागतम् ||८||
ततो निर्गत्य सहसा कविराङ्गिरसः प्रभुः
आययौ स्वगृहं तूष्णीं विद्वान्श्रीमदविक्रियाम् ||९||

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! देवाचार्य बृहस्पतिजी ने अपने प्रिय शिष्य देवताओं को किस कारण त्याग दिया था ? देवताओं ने अपने गुरुदेव का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहाराजन् इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण वे धर्ममर्यादा का, सदाचार का उल्लङ्घन करने लगे थे। एक दिन की बात है, वे भरी सभा में अपनी पत्नी शची के साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गान हो रहा था। ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डल के समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे ॥ २६ ॥ इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य बृहस्पतिजी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परंतु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरु का सत्कार ही किया। यहाँ तक कि वे अपने आसन से हिले-डुले तक नहीं ॥ ७-८ ॥ त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजी ने देखा कि यह ऐश्वर्यमद का दोष है ! बस, वे झटपट वहाँ से निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

तर्ह्येव प्रतिबुध्येन्द्रो गुरुहेलनमात्मनः
गर्हयामास सदसि स्वयमात्मानमात्मना ||१०||
अहो बत मयासाधु कृतं वै दभ्रबुद्धिना
यन्मयैश्वर्यमत्तेन गुरुः सदसि कात्कृतः ||११||
को गृध्येत्पण्डितो लक्ष्मीं त्रिपिष्टपपतेरपि
ययाहमासुरं भावं नीतोऽद्य विबुधेश्वरः ||१२||
यः पारमेष्ठ्यं धिषणमधितिष्ठन्न कञ्चन
प्रत्युत्तिष्ठेदिति ब्रूयुर्धर्मं ते न परं विदुः ||१३||
तेषां कुपथदेष्टॄणां पततां तमसि ह्यधः
ये श्रद्दध्युर्वचस्ते वै मज्जन्त्यश्मप्लवा इव ||१४||
अथाहममराचार्यमगाधधिषणं द्विजम्
प्रसादयिष्ये निशठः शीर्ष्णा तच्चरणं स्पृशन् ||१५||

(श्रीशुकदेव जी कह रहे हैं) परीक्षित्‌ ! उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। वे भरी समामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे ॥ १० ॥ हाय-हाय ! बड़े खेद की बात है कि भरी सभा में मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्यके नशेमें चूर होकर अपने गुरुदेव का तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है ॥ ११ ॥ भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्ग की राजलक्ष्मी को पाने की इच्छा करेगा ? देखो तो सही, आज इसी ने मुझ देवराज को भी असुरों के-से रजोगुणी भाव से भर दिया ॥ १२ ॥ जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसी के आनेपर राजसिंहासन से न उठे, वे धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते ॥ १३ ॥ ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्ग की ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरक में गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थर की नाव की तरह डूब जाते हैं ॥ १४ ॥ मेरे गुरुदेव बृहस्पति जी ज्ञानके अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेक कर उन्हें मनाऊँगा॥ १५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

एवं चिन्तयतस्तस्य मघोनो भगवान्गृहात्
बृहस्पतिर्गतोऽदृष्टां गतिमध्यात्ममायया ||१६||
गुरोर्नाधिगतः संज्ञां परीक्षन्भगवान्स्वराट्
ध्यायन्धिया सुरैर्युक्तः शर्म नालभतात्मनः ||१७||
तच्छ्रुत्वैवासुराः सर्व आश्रित्यौशनसं मतम्
देवान्प्रत्युद्यमं चक्रुर्दुर्मदा आततायिनः ||१८||
तैर्विसृष्टेषुभिस्तीक्ष्णैर्निर्भिन्नाङ्गोरुबाहवः
ब्रह्माणं शरणं जग्मुः सहेन्द्रा नतकन्धराः ||१९||
तांस्तथाभ्यर्दितान्वीक्ष्य भगवानात्मभूरजः
कृपया परया देव उवाच परिसान्त्वयन् ||२०||

परीक्षित्‌ ! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान्‌ बृहस्पतिजी अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये ॥ १६ ॥ देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूँढ़ा-ढुँढ़वाया; परंतु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परंतु वे कुछ भी सोच न सके ! उनका चित्त अशान्त ही बना रहा ॥ १७ ॥ परीक्षित्‌ ! दैत्योंको भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोल दिया ॥ १८ ॥ उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे-तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट- कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ १९ ॥ स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अत: उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको धीरज बँधाते हुए कहने लगे ॥२०॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

श्रीब्रह्मोवाच
अहो बत सुरश्रेष्ठा ह्यभद्रं वः कृतं महत्
ब्रह्मिष्ठं ब्राह्मणं दान्तमैश्वर्यान्नाभ्यनन्दत ||२१||
तस्यायमनयस्यासीत्परेभ्यो वः पराभवः
प्रक्षीणेभ्यः स्ववैरिभ्यः समृद्धानां च यत्सुराः ||२२||
मघवन्द्विषतः पश्य प्रक्षीणान्गुर्वतिक्रमात्
सम्प्रत्युपचितान्भूयः काव्यमाराध्य भक्तितः
आददीरन्निलयनं ममापि भृगुदेवताः ||२३||
त्रिपिष्टपं किं गणयन्त्यभेद्य मन्त्रा भृगूणामनुशिक्षितार्थाः
न विप्रगोविन्दगवीश्वराणां भवन्त्यभद्राणि नरेश्वराणाम् ||२४||
तद्विश्वरूपं भजताशु विप्रं तपस्विनं त्वाष्ट्रमथात्मवन्तम्
सभाजितोऽर्थान्स विधास्यते वो यदि क्षमिष्यध्वमुतास्य कर्म ||२५||

श्रीशुक उवाच
त एवमुदिता राजन्ब्रह्मणा विगतज्वराः
ऋषिं त्वाष्ट्रमुपव्रज्य परिष्वज्येदमब्रुवन् ||२६||

ब्रह्माजी ने कहादेवताओ ! यह बड़े खेदकी बात है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे ! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्राह्मणका सत्कार नहीं किया ॥ २१ ॥ देवताओ ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा ॥ २२ ॥ देवराज ! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्यका तिरस्कार करनेके कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परंतु अब भक्तिभावसे उनकी आराधना करके वे फिर धन-जनसे सम्पन्न हो गये हैं। देवताओ ! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्यको अपना आराध्यदेव माननेवाले ये दैत्यलोग कुछ दिनोंमें मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे ॥ २३ ॥ भृगुवंशियों ने इन्हें अर्थशास्त्र की पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुमलोगों को नहीं मिल पाता। उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थितिमें वे स्वर्गको तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोकको जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओंको अपना सर्वस्व मानते हैं और जिनपर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमङ्गल नहीं होता ॥ २४ ॥ इसलिये अब तुमलोग शीघ्र ही त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके पास जाओ और उन्हींकी सेवा करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुमलोग उनके असुरोंके प्रति प्रेमको क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर यों कहने लगे ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

श्रीदेवा ऊचुः
वयं तेऽतिथयः प्राप्ता आश्रमं भद्रमस्तु ते
कामः सम्पाद्यतां तात पितॄणां समयोचितः ||२७||
पुत्राणां हि परो धर्मः पितृशुश्रूषणं सताम्
अपि पुत्रवतां ब्रह्मन्किमुत ब्रह्मचारिणाम् ||२८||
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः
भ्राता मरुत्पतेर्मूर्तिर्माता साक्षात्क्षितेस्तनुः ||२९||
दयाया भगिनी मूर्तिर्धर्मस्यात्मातिथिः स्वयम्
अग्नेरभ्यागतो मूर्तिः सर्वभूतानि चात्मनः ||३०||
तस्मात्पितॄणामार्तानामार्तिं परपराभवम्
तपसापनयंस्तात सन्देशं कर्तुमर्हसि ||३१||
वृणीमहे त्वोपाध्यायं ब्रह्मिष्ठं ब्राह्मणं गुरुम्
यथाञ्जसा विजेष्यामः सपत्नांस्तव तेजसा ||३२||
न गर्हयन्ति ह्यर्थेषु यविष्ठाङ्घ्र्यभिवादनम्
छन्दोभ्योऽन्यत्र न ब्रह्मन्वयो ज्यैष्ठ्यस्य कारणम् ||३३||

श्रीऋषिरुवाच
अभ्यर्थितः सुरगणैः पौरहित्ये महातपाः
स विश्वरूपस्तानाह प्रसन्नः श्लक्ष्णया गिरा ||३४||

देवताओं ने कहाबेटा विश्वरूप ! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारे आश्रमपर अतिथि के रूप में आये हैं। हम एक प्रकार से तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगों की समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो ॥ २७ ॥ जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रोंका भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है ॥ २८ ॥ वत्स ! आचार्य वेदकी, पिता ब्रह्माजी की, भाई इन्द्रकी और माता साक्षात् पृथ्वी की मूर्ति होती है ॥ २९ ॥ (इसी प्रकार) बहिन दयाकी, अतिथि धर्मकी, अभ्यागत अग्नि की और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्माकी ही मूर्तिआत्मस्वरूप होते हैं ॥ ३० ॥ पुत्र ! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओंने हमें जीत लिया है। हम बड़े दु:खी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबलसे हमारा यह दु:ख, दारिद्र्य, पराजय टाल दो। पुत्र ! तुम्हें हमलोगोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये ॥ ३१ ॥ तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अत: जन्मसे ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्यके रूपमें वरण करके तुम्हारी शक्तिसे अनायास ही शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेंगे ॥ ३२ ॥ पुत्र ! आवश्यकता पडऩेपर अपनेसे छोटोंका पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञानको छोडक़र केवल अवस्था बड़प्पनका कारण भी नहीं है ॥ ३३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवताओंने इस प्रकार विश्वरूपसे पुरोहिती करनेकी प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूपने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दोंमें कहा ॥ ३४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

श्रीविश्वरूप उवाच
विगर्हितं धर्मशीलैर्ब्रह्मवर्चौपव्ययम्
कथं नु मद्विधो नाथा लोकेशैरभियाचितम्
प्रत्याख्यास्यति तच्छिष्यः स एव स्वार्थ उच्यते ||३५||
अकिञ्चनानां हि धनं शिलोञ्छनं तेनेह निर्वर्तितसाधुसत्क्रियः
कथं विगर्ह्यं नु करोम्यधीश्वराः पौरोधसं हृष्यति येन दुर्मतिः ||३६||
तथापि न प्रतिब्रूयां गुरुभिः प्रार्थितं कियत्
भवतां प्रार्थितं सर्वं प्राणैरर्थैश्च साधये ||३७||

विश्वरूपने कहापुरोहिती का काम ब्रह्मतेज को क्षीण करनेवाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओं ने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझ से उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आपलोगोंको कोरा जवाब कैसे दे सकता है ? मैं तो आपलोगोंका सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओंका पालन करना ही मेरा स्वार्थ है ॥ ३५ ॥ देवगण ! हम अकिञ्चन हैं। खेती कट जानेपर अथवा अनाजकी हाट उठ जानेपर उसमेंसे गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसीसे अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो ! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहितीकी निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है ॥ ३६ ॥ जो काम आपलोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय हैफिर भी मैं आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आपलोगोंकी माँग ही कितनी है। इसलिये आपलोगोंका मनोरथ मैं तन-मन-धन से पूरा करूँगा ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण

श्रीबादरायणिरुवाच

तेभ्य एवं प्रतिश्रुत्य विश्वरूपो महातपाः
पौरोहित्यं वृतश्चक्रे परमेण समाधिना ||३८||
सुरद्विषां श्रियं गुप्तामौशनस्यापि विद्यया
आच्छिद्यादान्महेन्द्राय वैष्णव्या विद्यया विभुः ||३९||
यया गुप्तः सहस्राक्षो जिग्येऽसुरचमूर्विभुः
तां प्राह स महेन्द्राय विश्वरूप उदारधीः ||४०||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओं से ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करनेपर वे बड़ी लगन के साथ उनकी पुरोहिती करने लगे ॥ ३८ ॥ यद्यपि शुक्राचार्य ने अपने नीतिबल से असुरों की सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी ॥ ३९ ॥ राजन् ! जिस विद्या से सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरों की सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूप ने ही उन्हें उपदेश किया था ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...