॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
श्रीराजोवाच
कस्य
हेतोः परित्यक्ता आचार्येणात्मनः सुराः
एतदाचक्ष्व
भगवञ्छिष्याणामक्रमं गुरौ ||१||
श्रीबादरायणिरुवाच
इन्द्र
स्त्रिभुवनैश्वर्य मदोल्लङ्घितसत्पथः
मरुद्भिर्वसुभी
रुद्रैरादित्यैरृभुभिर्नृप ||२||
विश्वेदेवैश्च
साध्यैश्च नासत्याभ्यां परिश्रितः
सिद्धचारणगन्धर्वैर्मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः
||३||
विद्याधराप्सरोभिश्च
किन्नरैः पतगोरगैः
निषेव्यमाणो
मघवान्स्तूयमानश्च भारत ||४||
उपगीयमानो
ललितमास्थानाध्यासनाश्रितः
पाण्डुरेणातपत्रेण
चन्द्रमण्डलचारुणा ||५||
युक्तश्चान्यैः
पारमेष्ठ्यैश्चामरव्यजनादिभिः
विराजमानः
पौलोम्या सहार्धासनया भृशम् ||६||
स
यदा परमाचार्यं देवानामात्मनश्च ह
नाभ्यनन्दत
सम्प्राप्तं प्रत्युत्थानासनादिभिः ||७||
वाचस्पतिं
मुनिवरं सुरासुरनमस्कृतम्
नोच्चचालासनादिन्द्रः
पश्यन्नपि सभागतम् ||८||
ततो
निर्गत्य सहसा कविराङ्गिरसः प्रभुः
आययौ
स्वगृहं तूष्णीं विद्वान्श्रीमदविक्रियाम् ||९||
राजा
परीक्षित् ने पूछा—भगवन् ! देवाचार्य बृहस्पतिजी ने अपने प्रिय शिष्य देवताओं को किस कारण
त्याग दिया था ? देवताओं ने अपने गुरुदेव का ऐसा कौन-सा
अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—राजन् इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के
कारण वे धर्ममर्यादा का, सदाचार का उल्लङ्घन करने लगे थे। एक
दिन की बात है, वे भरी सभा में अपनी पत्नी शची के साथ ऊँचे
सिंहासनपर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य,
ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण
और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण,
गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर,
पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे
थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गान हो रहा था। ऊपरकी ओर
चन्द्रमण्डल के समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें
देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे ॥ २—६ ॥ इसी समय देवराज
इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य बृहस्पतिजी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी
नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परंतु
वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरु का सत्कार ही किया। यहाँ तक कि वे अपने
आसन से हिले-डुले तक नहीं ॥ ७-८ ॥ त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजी ने देखा कि यह
ऐश्वर्यमद का दोष है ! बस, वे झटपट वहाँ से निकलकर चुपचाप
अपने घर चले आये ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
तर्ह्येव
प्रतिबुध्येन्द्रो गुरुहेलनमात्मनः
गर्हयामास
सदसि स्वयमात्मानमात्मना ||१०||
अहो
बत मयासाधु कृतं वै दभ्रबुद्धिना
यन्मयैश्वर्यमत्तेन
गुरुः सदसि कात्कृतः ||११||
को
गृध्येत्पण्डितो लक्ष्मीं त्रिपिष्टपपतेरपि
ययाहमासुरं
भावं नीतोऽद्य विबुधेश्वरः ||१२||
यः
पारमेष्ठ्यं धिषणमधितिष्ठन्न कञ्चन
प्रत्युत्तिष्ठेदिति
ब्रूयुर्धर्मं ते न परं विदुः ||१३||
तेषां
कुपथदेष्टॄणां पततां तमसि ह्यधः
ये
श्रद्दध्युर्वचस्ते वै मज्जन्त्यश्मप्लवा इव ||१४||
अथाहममराचार्यमगाधधिषणं
द्विजम्
प्रसादयिष्ये
निशठः शीर्ष्णा तच्चरणं स्पृशन् ||१५||
(श्रीशुकदेव
जी कह रहे हैं) परीक्षित् ! उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि
मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। वे भरी समामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे
॥ १० ॥ ‘हाय-हाय ! बड़े खेद की बात है कि भरी सभा में मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्यके
नशेमें चूर होकर अपने गुरुदेव का तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त
निन्दनीय है ॥ ११ ॥ भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्ग की
राजलक्ष्मी को पाने की इच्छा करेगा ? देखो तो सही, आज इसी ने मुझ देवराज को भी असुरों के-से रजोगुणी भाव से भर दिया ॥ १२ ॥
जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसी के आनेपर
राजसिंहासन से न उठे, वे धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते
॥ १३ ॥ ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्ग की ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरक में
गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थर की
नाव की तरह डूब जाते हैं ॥ १४ ॥ मेरे गुरुदेव बृहस्पति जी ज्ञानके अथाह समुद्र
हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेक कर उन्हें मनाऊँगा’
॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
एवं
चिन्तयतस्तस्य मघोनो भगवान्गृहात्
बृहस्पतिर्गतोऽदृष्टां
गतिमध्यात्ममायया ||१६||
गुरोर्नाधिगतः
संज्ञां परीक्षन्भगवान्स्वराट्
ध्यायन्धिया
सुरैर्युक्तः शर्म नालभतात्मनः ||१७||
तच्छ्रुत्वैवासुराः
सर्व आश्रित्यौशनसं मतम्
देवान्प्रत्युद्यमं
चक्रुर्दुर्मदा आततायिनः ||१८||
तैर्विसृष्टेषुभिस्तीक्ष्णैर्निर्भिन्नाङ्गोरुबाहवः
ब्रह्माणं
शरणं जग्मुः सहेन्द्रा नतकन्धराः ||१९||
तांस्तथाभ्यर्दितान्वीक्ष्य
भगवानात्मभूरजः
कृपया
परया देव उवाच परिसान्त्वयन् ||२०||
परीक्षित्
! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पतिजी अपने घरसे निकलकर
योगबलसे अन्तर्धान हो गये ॥ १६ ॥ देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत
ढूँढ़ा-ढुँढ़वाया;
परंतु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न
समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे,
परंतु वे कुछ भी सोच न सके ! उनका चित्त अशान्त ही बना रहा ॥ १७ ॥
परीक्षित् ! दैत्योंको भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका पता लग
गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्यके आदेशानुसार
देवताओंपर विजय पानेके लिये धावा बोल दिया ॥ १८ ॥ उन्होंने देवताओंपर इतने
तीखे-तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट- कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर
ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ १९ ॥ स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी
तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अत: उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको
धीरज बँधाते हुए कहने लगे ॥२०॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
श्रीब्रह्मोवाच
अहो
बत सुरश्रेष्ठा ह्यभद्रं वः कृतं महत्
ब्रह्मिष्ठं
ब्राह्मणं दान्तमैश्वर्यान्नाभ्यनन्दत ||२१||
तस्यायमनयस्यासीत्परेभ्यो
वः पराभवः
प्रक्षीणेभ्यः
स्ववैरिभ्यः समृद्धानां च यत्सुराः ||२२||
मघवन्द्विषतः
पश्य प्रक्षीणान्गुर्वतिक्रमात्
सम्प्रत्युपचितान्भूयः
काव्यमाराध्य भक्तितः
आददीरन्निलयनं
ममापि भृगुदेवताः ||२३||
त्रिपिष्टपं
किं गणयन्त्यभेद्य मन्त्रा भृगूणामनुशिक्षितार्थाः
न
विप्रगोविन्दगवीश्वराणां भवन्त्यभद्राणि नरेश्वराणाम् ||२४||
तद्विश्वरूपं
भजताशु विप्रं तपस्विनं त्वाष्ट्रमथात्मवन्तम्
सभाजितोऽर्थान्स
विधास्यते वो यदि क्षमिष्यध्वमुतास्य कर्म ||२५||
श्रीशुक
उवाच
त
एवमुदिता राजन्ब्रह्मणा विगतज्वराः
ऋषिं
त्वाष्ट्रमुपव्रज्य परिष्वज्येदमब्रुवन् ||२६||
ब्रह्माजी
ने कहा—देवताओ ! यह बड़े खेदकी बात है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। हरे,
हरे ! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्राह्मणका सत्कार नहीं किया ॥ २१ ॥ देवताओ ! तुम्हारी
उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओंके
सामने नीचा देखना पड़ा ॥ २२ ॥ देवराज ! देखो, तुम्हारे शत्रु
भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्यका तिरस्कार करनेके कारण अत्यन्त निर्बल हो गये
थे, परंतु अब भक्तिभावसे उनकी आराधना करके वे फिर धन-जनसे
सम्पन्न हो गये हैं। देवताओ ! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्यको अपना
आराध्यदेव माननेवाले ये दैत्यलोग कुछ दिनोंमें मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे ॥ २३ ॥
भृगुवंशियों ने इन्हें अर्थशास्त्र की पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना
चाहते हैं, उसका भेद तुमलोगों को नहीं मिल पाता। उनकी सलाह
बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थितिमें वे स्वर्गको तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोकको जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ
मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओंको अपना सर्वस्व मानते हैं
और जिनपर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमङ्गल नहीं होता ॥ २४
॥ इसलिये अब तुमलोग शीघ्र ही त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके पास जाओ और उन्हींकी सेवा
करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुमलोग
उनके असुरोंके प्रति प्रेमको क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और
उन्हें हृदयसे लगाकर यों कहने लगे ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
श्रीदेवा
ऊचुः
वयं
तेऽतिथयः प्राप्ता आश्रमं भद्रमस्तु ते
कामः
सम्पाद्यतां तात पितॄणां समयोचितः ||२७||
पुत्राणां
हि परो धर्मः पितृशुश्रूषणं सताम्
अपि
पुत्रवतां ब्रह्मन्किमुत ब्रह्मचारिणाम् ||२८||
आचार्यो
ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः
भ्राता
मरुत्पतेर्मूर्तिर्माता साक्षात्क्षितेस्तनुः ||२९||
दयाया
भगिनी मूर्तिर्धर्मस्यात्मातिथिः स्वयम्
अग्नेरभ्यागतो
मूर्तिः सर्वभूतानि चात्मनः ||३०||
तस्मात्पितॄणामार्तानामार्तिं
परपराभवम्
तपसापनयंस्तात
सन्देशं कर्तुमर्हसि ||३१||
वृणीमहे
त्वोपाध्यायं ब्रह्मिष्ठं ब्राह्मणं गुरुम्
यथाञ्जसा
विजेष्यामः सपत्नांस्तव तेजसा ||३२||
न
गर्हयन्ति ह्यर्थेषु यविष्ठाङ्घ्र्यभिवादनम्
छन्दोभ्योऽन्यत्र
न ब्रह्मन्वयो ज्यैष्ठ्यस्य कारणम् ||३३||
श्रीऋषिरुवाच
अभ्यर्थितः
सुरगणैः पौरहित्ये महातपाः
स
विश्वरूपस्तानाह प्रसन्नः श्लक्ष्णया गिरा ||३४||
देवताओं
ने कहा—बेटा विश्वरूप ! तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारे आश्रमपर अतिथि के रूप में
आये हैं। हम एक प्रकार से तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगों की समयोचित
अभिलाषा पूर्ण करो ॥ २७ ॥ जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन
सत्पुत्रोंका भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी सेवा
करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है
॥ २८ ॥ वत्स ! आचार्य वेदकी, पिता ब्रह्माजी की, भाई इन्द्रकी और माता साक्षात् पृथ्वी की मूर्ति होती है ॥ २९ ॥ (इसी
प्रकार) बहिन दयाकी, अतिथि धर्मकी, अभ्यागत
अग्नि की और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्माकी ही मूर्ति—आत्मस्वरूप
होते हैं ॥ ३० ॥ पुत्र ! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओंने हमें जीत लिया
है। हम बड़े दु:खी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबलसे हमारा यह दु:ख, दारिद्र्य, पराजय टाल दो। पुत्र ! तुम्हें हमलोगोंकी
आज्ञाका पालन करना चाहिये ॥ ३१ ॥ तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अत: जन्मसे ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्यके रूपमें वरण करके
तुम्हारी शक्तिसे अनायास ही शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेंगे ॥ ३२ ॥ पुत्र !
आवश्यकता पडऩेपर अपनेसे छोटोंका पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञानको छोडक़र
केवल अवस्था बड़प्पनका कारण भी नहीं है ॥ ३३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब देवताओंने इस प्रकार विश्वरूपसे पुरोहिती करनेकी
प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूपने प्रसन्न होकर उनसे
अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दोंमें कहा ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
श्रीविश्वरूप
उवाच
विगर्हितं
धर्मशीलैर्ब्रह्मवर्चौपव्ययम्
कथं
नु मद्विधो नाथा लोकेशैरभियाचितम्
प्रत्याख्यास्यति
तच्छिष्यः स एव स्वार्थ उच्यते ||३५||
अकिञ्चनानां
हि धनं शिलोञ्छनं तेनेह निर्वर्तितसाधुसत्क्रियः
कथं
विगर्ह्यं नु करोम्यधीश्वराः पौरोधसं हृष्यति येन दुर्मतिः ||३६||
तथापि
न प्रतिब्रूयां गुरुभिः प्रार्थितं कियत्
भवतां
प्रार्थितं सर्वं प्राणैरर्थैश्च साधये ||३७||
विश्वरूपने
कहा—पुरोहिती का काम ब्रह्मतेज को क्षीण करनेवाला है। इसलिये धर्मशील
महात्माओं ने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी
मुझ से उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थितिमें मेरे-जैसा व्यक्ति भला,
आपलोगोंको कोरा जवाब कैसे दे सकता है ? मैं तो
आपलोगोंका सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओंका पालन करना ही मेरा स्वार्थ है ॥ ३५ ॥ देवगण !
हम अकिञ्चन हैं। खेती कट जानेपर अथवा अनाजकी हाट उठ जानेपर उसमेंसे गिरे हुए कुछ
दाने चुन लाते हैं और उसीसे अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं।
लोकपालो ! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं
पुरोहितीकी निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ ? उससे तो केवल वे ही
लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है ॥ ३६ ॥ जो
काम आपलोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है—फिर भी मैं
आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आपलोगोंकी माँग ही
कितनी है। इसलिये आपलोगोंका मनोरथ मैं तन-मन-धन से पूरा करूँगा ॥ ३७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
बृहस्पतिजीके
द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण
श्रीबादरायणिरुवाच
तेभ्य
एवं प्रतिश्रुत्य विश्वरूपो महातपाः
पौरोहित्यं
वृतश्चक्रे परमेण समाधिना ||३८||
सुरद्विषां
श्रियं गुप्तामौशनस्यापि विद्यया
आच्छिद्यादान्महेन्द्राय
वैष्णव्या विद्यया विभुः ||३९||
यया
गुप्तः सहस्राक्षो जिग्येऽसुरचमूर्विभुः
तां
प्राह स महेन्द्राय विश्वरूप उदारधीः ||४०||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओं से ऐसी प्रतिज्ञा करके
उनके वरण करनेपर वे बड़ी लगन के साथ उनकी पुरोहिती करने लगे ॥ ३८ ॥ यद्यपि
शुक्राचार्य ने अपने नीतिबल से असुरों की सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से उनसे वह सम्पत्ति
छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी ॥ ३९ ॥ राजन् ! जिस विद्या से सुरक्षित होकर
इन्द्रने असुरों की सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका
उदारबुद्धि विश्वरूप ने ही उन्हें उपदेश किया था ॥ ४० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें