शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)

हुं हुं हुँकाररूपिण्यै, जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे  भवान्यै ते नमो नमः।।7||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं 
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु  स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8||
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं, कुरुश्व मे ।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं  मंत्रजागर्तिहेतवे  |
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि, हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।

। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

हुं हुं हुंकार'  स्वरूपिणी, ‘जं जं जं' जम्भनादिनी, 'भ्रां भ्रीं भ्रूं' के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम ॥ ७॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोड़ो और दीप्त करो करो स्वाहा। 'पां पीं पूं' के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। 'खां खीं खूं' के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो ॥८॥ 'सां सीं सूं' स्वरूपिणी सप्तशतीदेवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो। यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिये है। इसे भक्तिहीन पुरुषको नहीं देना चाहिये। हे पार्वती! इसे गुप्त रखो। हे देवी! जो बिना  कुञ्जिका के सप्तशतीका पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं  मिलती जिस प्रकार वनमें रोना निरर्थक होता है।

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के गौरीतन्त्र में शिव-पार्वती-संवादमें सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।

||ॐ तत्सत् ||
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से



श्रीदुर्गासप्तशती -सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०२)

नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि ।।1||
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च, निशुम्भासुरघातिनि || 2||
जाग्रतं हि महादेवि जपं,  सिद्धं कुरूष्व मे।।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका||3||
क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तुते।
चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी।।4||
विच्चे चाभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।5||
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी, वां वीं वूं वागधीश्वरी ।
क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि  शां शीं शूं मे शुभं कुरू।।6||

हे रुद्रस्वरूपिणी ! तुम्हें नमस्कार । हे मधु दैत्यको मारनेवाली !  तुम्हें नमस्कार है। कैटभविनाशिनी को नमस्कार। महिषासुर को मारनेवाली देवी! तुम्हें नमस्कार है॥१॥ शुम्भ का हनन करनेवाली और निशुम्भको मारनेवाली! तुम्हें नमस्कार है॥२॥ हे महादेवि! मेरे जप को जाग्रत् और सिद्ध करो।'ऐंकार' के रूप में सृष्टिस्वरूपिणी, 'ह्रीं' के रूप में सृष्टि-पालन करनेवाली ॥ ३॥ क्लीं ' के रूप में कामरूपिणी (तथा निखिल ब्रह्माण्ड)-की बीजरूपिणी देवी ! तुम्हें नमस्कार है। चामुण्डाके रूपमें चण्डविनाशिनी और 'यैकार' के रूपमें तुम वर देनेवाली हो॥४॥ ॐ विच्चे' रूप में तुम नित्य ही अभय देती हो। ( इस प्रकार 'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे') तुम इस मन्त्र का स्वरूप हो॥५॥' धां धीं धूं' के रूपमें धूर्जटी ( शिव)-की तुम पत्नी हो। 'वां वीं वूं' के रूप में तुम वाणी की अधीश्वरी हो। 'क्रां क्रीं क्रूं' के रूप में कालिकादेवी, 'शां शीं शूं' के रूप में मेरा कल्याण करो॥६॥

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गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०१)

शिव उवाच

श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।।
न कवचं नार्गलास्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।।
कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि, देवानामपि दुलर्भम्।।
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठ मात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।।

|| अथ मंत्र: ||

 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
                                             इति मन्त्र:

शिवजी बोले
देवी ! सुनो। मैं उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र का उपदेश करूँगा, जिस मन्त्रके प्रभाव से देवी का जप (पाठ) सफल होता है॥१॥ कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान, न्यास यहाँतक हैं कि अर्चन भी (आवश्यक) नहीं है॥२॥ केवल कुञ्जिका के पाठ से दुर्गा-पाठ का फल प्राप्त हो जाता है।  (यह कुञ्जिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिये भी दुर्लभ है॥ ३॥ हे पार्वती! इसे स्वयोनि की भाँति प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना  चाहिये। यह उत्तम कुञ्जिकास्तोत्र केवल पाठ के द्वारा मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि (आभिचारिक) उद्देश्यों को  सिद्ध करता है॥४॥

स्तोत्र मन्त्र-

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥ ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः । ॐ ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा॥  

(मन्त्र में आये बीजों का अर्थ जानना न सम्भव है, न आवश्यक और न वाञ्छनीय। केवल जप पर्याप्त है)

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श्रीदुर्गासप्तशती -देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०४)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०४)

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः |
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव ||||
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि |
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ||१०||
जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि |
अपराधपरम्परापरं न हि माता समुपेक्षते सुतम् ||११||
मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि |
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु ||१२||

माँ श्यामा! नाना प्रकारकी पूजन-सामग्रियोंसे कभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी। सदा कठोर भावका चिन्तन करनेवाली मेरी वाणीने कौन-सा अपराध नहीं किया है। फिर भी तुम स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथपर जो किञ्चित् कृपादृष्टि रखती हो, माँ! यह तुम्हारे ही योग्य है। तुम्हारी-जैसी दयामयी माता ही मेरे-जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है॥९॥             माता दुर्गे ! करुणासिन्धु महेश्वरी ! मैं विपत्तियों में फंसकर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ [ पहले कभी नहीं करता रहा] इसे मेरी शठता न मान लेना; क्योंकि भूख-प्याससे पीड़ित बालक । माताका ही स्मरण करते हैं॥१०॥
जगदम्ब ! मुझपर जो तुम्हारी पूर्ण कृपा बनी हुई है, इसमें  आश्चर्यकी कौन-सी बात है, पुत्र अपराध-पर-अपराध क्यों न करता जाता हो, फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती ॥११॥  महादेवि! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े, वह करो ॥१२॥

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बुधवार, 10 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०३)

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः |
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम् ||||
न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववाञ्छापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः |
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः ||||

भवानी! जो अपने अङ्गों में चिताकी राख-भभूत लपेटे रहते  हैं, जिनका विष ही भोजन है, जो दिगम्बरधारी (नग्न रहनेवाले ) हैं, मस्तकपर जटा और कण्ठमें नागराज वासुकिको हारके रूपमें  धारण करते हैं तथा जिनके हाथमें कपाल (भिक्षापात्र) शोभा पाता है, ऐसे भूतनाथ पशुपति भी जो एकमात्र जगदीश' की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारण है ? यह महत्त्व उन्हें कैसे मिला; यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल है; तुम्हारे साथ  विवाह होने से ही उनका महत्त्व बढ़ गया॥ ७॥
मुख में चन्द्रमा की शोभा धारण करनेवाली माँ! मुझे मोक्षकी इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की भी अभिलाषा नहीं है; न विज्ञान की अपेक्षा है, न सुखकी आकाङ्क्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म मृडानी, रुद्राणी, शिव, शिव, भवानी'-इन नामों का जप करते हुए बीते ॥८॥  

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श्रीदुर्गासप्तशती -देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०२)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (पोस्ट ०२)

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया |
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ||||
परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया
मया पञ्चा शीतेरधिकमपनीते तु वयसि |
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ||||
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः |
तवापर्णे कर्णे विशति मनु वर्णे फलमिदं
जनः को जानीते जननि जननीयं जपविधौ ||||

जगदम्ब! मातः! मैंने तुम्हारे चरणोंकी सेवा कभी नहीं की, देवि! तुम्हें अधिक धन भी समर्पित नहीं किया; तथापि मुझ-जैसे अधमपर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो, इसका कारण यही है कि  संसार में कुपुत्र पैदा हो सकता है, किंतु कहीं भी कुमाता नहीं होती॥४॥  
गणेशजीको जन्म देनेवाली माता पार्वती! [अन्य देवताओं की आराधना करते समय] मुझे नाना प्रकारकी सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था, इसलिये पचासी वर्षसे अधिक अवस्था बीत जानेपर
मैंने देवताओंको छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा-पूजा मुझसे नहीं हो पाती; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलनेकी आशा नहीं है। इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्बरहित होकर किसकी शरण जाऊँगा॥५॥
माता अपर्णा! तुम्हारे मन्त्रका एक अक्षर भी कानमें पड़ जाय तो  उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणीका उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओंसे सम्पन्न हो चिरकालतक निर्भय विहार करता रहता है। जब मन्त्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जपमें लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होनेवाला उत्तम फल कैसा होगा? इसको कौन मनुष्य जान सकता है॥ ६॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...