॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट११)
हिरण्याक्ष
का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का
अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना
लुब्धको
विपिने कश्चित्पक्षिणां निर्मितोऽन्तकः ।
वितत्य
जालं विदधे तत्र तत्र प्रलोभयन् ॥ ५०॥
कुलिङ्गमिथुनं
तत्र विचरत्समदृश्यत ।
तयोः
कुलिङ्गी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ॥ ५१॥
आसज्जत
सिचस्तन्त्र्यां महिष्यः कालयन्त्रिता ।
कुलिङ्गस्तां
तथापन्नां निरीक्ष्य भृशदुःखितः ।
स्नेहादकल्पः
कृपणः कृपणां पर्यदेवयत् ॥ ५२॥
अहो
अकरुणो देवः स्त्रियाकरुणया विभुः ।
कृपणं
मामनुशोचन्त्या दीनया किं करिष्यति ॥ ५३॥
कामं
नयतु मां देवः किमर्धेनात्मनो हि मे ।
दीनेन
जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ॥ ५४॥
कथं
त्वजातपक्षांस्तान्मातृहीनान् बिभर्म्यहम् ।
मन्दभाग्याः
प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजाः ॥ ५५॥
एवं
कुलिङ्गं विलपन्तमारा-
त्प्रियावियोगातुरमश्रुकण्ठम्
।
स
एव तं शाकुनिकः शरेण
विव्याध
कालप्रहितो विलीनः ॥ ५६॥
एवं
यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धयः ।
नैनं
प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ॥ ५७॥
किसी
जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने
मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और
ललचाकर चिडिय़ों को फँसा लेता ॥ ५० ॥ एक दिन उसने कुलिङ्ग पक्षी के एक जोड़े को
चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया ॥
५१ ॥ कालवश वह जाल के फंदोंमें फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादाकी विपत्ति को देखकर
बड़ा दु:ख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेहसे
उस बेचारीके लिये विलाप करने लगा ॥ ५२ ॥ उसने कहा—‘यों तो
विधाता सब कुछ कर सकता है। परंतु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री
है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से
छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या ॥ ५३ ॥ उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय। इसके
बिना मैं अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दु:खसे भरा
हुआ है, लेकर क्या करूँगा ॥ ५४ ॥ अभी मेरे अभागे बच्चों के
पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जानेपर उन मातृहीन बच्चोंको मैं कैसे पालूँगा ?
ओह ! घोंसले में वे अपनी माँ
की
बाट देख रहे होंगे’
॥ ५५ ॥ इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। अपनी सहचरी के
वियोग से वह आतुर हो रहा था। आँसुओं के मारे उसका गला रुँध गया था। तबतक काल की
प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया
॥ ५६ ॥ मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो
दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती
पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी ॥ ५७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से